जब स्कूल सपनों के नहीं, संघर्षों के प्रतीक बन जाएं

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 22-10-2025
When schools become symbols of struggle, not dreams
When schools become symbols of struggle, not dreams

 

उर्मिला नायक

हर समाज की असली ताकत उसके शैक्षणिक स्तर से झलकती है वहाँ से जहाँ बच्चे स्कूल जाने के सपने देखना सीखते हैं. लेकिन भारत के कई ग्रामीण इलाकों में ये स्कूल अब भी सपनों के नहीं, संघर्षों के प्रतीक बने हुए हैं. यहाँ शिक्षा कोई सहज अधिकार नहीं, बल्कि रोज़ की जंग है. ये जंग गरीबी से, असमानता से, और कभी-कभी खुद समाज की सोच से भी होता है.

हालांकि राजस्थान सरकार ने शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए सरकारी स्कूलों की निगरानी का कदम उठाया है पर असली सवाल यह है कि जो कदम मानवीय संवेदना और समानता की भावना से शुरू होनी चाहिए, क्या सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्था बदलने से वह बदलाव आएगा?

ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है. यहाँ अक्सर शिक्षकों की भारी कमी होती है. कई बार वर्षों तक पद खाली रहते हैं, जिससे एक ही शिक्षक को कई विषय पढ़ाने पड़ते हैं.

परिणामस्वरूप बच्चों को न तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल पाती है और न ही शिक्षक अपने कार्य से संतुष्ट रहते हैं. ऐसे स्कूलों में ज्यादातर बच्चे आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर परिवारों से आते हैं, वे परिवार जिनके माता-पिता रोज़ी-रोटी की तलाश में सुबह जल्दी निकल जाते हैं और देर शाम घर लौटते हैं. इन माता-पिता के सामने हर दिन यह द्वंद रहता है कि रोजी रोटी कमाऊं या बच्चों की देखभाल करूं?

विशेषकर महिलाओं के लिए यह सवाल और भी कठिन है. राजस्थान के बीकानेर जिला के लूणकरणसर स्थित नाथवाना गाँव की 40 वर्षीय ममता बताती हैं कि “मेरे दो बेटे स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन मैं यह नहीं जानती कि वे रोज़ स्कूल जाते भी हैं या नहीं.

सुबह हम दोनों पति-पत्नी मजदूरी पर निकल जाते हैं. अगर काम न करें तो बच्चों को खिलाएंगे क्या?” ममता की बात उन लाखों ग्रामीण महिलाओं की कहानी है जिनकी जिंदगी दो सिरों पर टिकी है, एक तरफ घर और बच्चों की ज़िम्मेदारी, दूसरी तरफ गरीबी की मार.

ग्रामीण शिक्षा की इस बहस में लैंगिक दृष्टिकोण बेहद अहम है. जब माता-पिता काम पर निकल जाते हैं, तो अक्सर लड़कियाँ घर के कामकाज में लग जाती हैं और लड़के बाहर खेलते या घूमते हैं. धीरे-धीरे यह असमानता “स्वाभाविक” मानी जाने लगती है. शिक्षा यहाँ सिर्फ किताबों का ज्ञान नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय का अवसर भी है खासकर लड़कियों के लिए.

अगर गाँव में 12वीं तक का स्कूल हो, तो लड़कियों को बाहर के गाँव नहीं जाना पड़ेगा, जिससे उनका ड्रॉपआउट रेट काफी घट सकता है. लेकिन जब शिक्षा का ढाँचा ही अधूरा है, तब समान अवसर की बात अधूरी रह जाती है. यह स्थिति न केवल लड़कियों की शिक्षा को प्रभावित करती है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने के अवसर से भी वंचित कर देती है.

राजस्थान में शिक्षा विभाग की एक बड़ी चुनौती है शिक्षकों की भारी कमी. पिछले महीने सितंबर के अंत में राज्य शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में विभिन्न पदों पर लगभग 25 से 30 हजार से अधिक शिक्षकों के पद खाली हैं.

इसका सीधा असर ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई देता है. जब एक शिक्षक को न केवल कई विषय पढ़ाने होते हैं बल्कि स्कूल की अन्य प्रशासनिक जिम्मेदारी भी निभानी होती हैं, तो वह थकान और निराशा से भर जाता है. ऐसी परिस्थितियों में बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होना स्वाभाविक है. शिक्षा का तंत्र तब तक सशक्त नहीं हो सकता जब तक शिक्षक को पर्याप्त सहयोग, प्रशिक्षण और सम्मान न मिले.

शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि इंसानियत और समझ विकसित करने का माध्यम है. ग्रामीण समाज में जब हम शिक्षा की बात करते हैं, तो यह केवल “स्कूल में पढ़ाई” की बात नहीं होती बल्कि यह बच्चों की सुरक्षा, उनकी भावनात्मक स्थिरता और उनके सपनों से जुड़ी होती है. नाथवाना गांव में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति समुदाय के लोग अधिक हैं.

इन समुदायों की आर्थिक स्थिति कमजोर है. गाँव में शिक्षा को लेकर जागरूकता बहुत सीमित है, क्योंकि यहाँ “कमाना” अक्सर “पढ़ने” से ज़्यादा जरुरी समझा जाता है.

यह मानसिकता किसी व्यक्ति की गलती नहीं, बल्कि एक लंबे सामाजिक-आर्थिक संघर्ष का परिणाम है. जब पेट भरने का सवाल हो, तब शिक्षा की प्राथमिकता पीछे छूट जाती है. इसलिए शिक्षा के अधिकार को केवल नीति या योजना का हिस्सा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समान अवसर के अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए. शिक्षा सुधार में महिलाओं की भागीदारी को केंद्र में रखना जरूरी है.

जब महिलाएँ आर्थिक रूप से सक्षम होती हैं, तब वे अपने बच्चों विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान देती हैं. लेकिन ग्रामीण भारत में आज भी कई महिलाएँ निर्णय प्रक्रिया से दूर रखी जाती हैं.

यदि सरकार महिलाओं को सशक्त करने वाली योजनाओं को शिक्षा नीति से जोड़ दे जैसे महिलाओं के लिए स्थानीय स्कूल समितियों में प्रतिनिधित्व, स्कूल प्रबंधन में भागीदारी और बेटियों की शिक्षा पर प्रोत्साहन, तो इसका असर जमीनी स्तर पर दिखाई देगा. शिक्षा सुधार तभी सफल होगा जब महिलाओं की आवाज़ न केवल सुनी जाए, बल्कि वे नीति निर्माण का हिस्सा भी बने। ग्रामीण शिक्षा की समस्या किसी एक विभाग या संस्था की नहीं है.

यह पूरी समाज की जिम्मेदारी है. सरकार को शिक्षकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और निगरानी में पारदर्शिता लानी होगी. स्थानीय समुदायों को स्कूल प्रबंधन में शामिल करना होगा. साथ ही समाज को भी यह समझना होगा कि शिक्षा “दान” नहीं, बल्कि “अधिकार” है.

ग्रामीण शिक्षा को केवल सुधार की भाषा में नहीं, बल्कि संवेदना और समानता की भाषा में समझने की जरूरत है. जब शिक्षा को मानवीय दृष्टि से देखा जाएगा जहाँ एक मजदूर माँ का संघर्ष, एक पिता की चिंता और एक बच्चे का सपना समान रूप से महत्व रखता हो तभी यह समाज सच्चे अर्थों में शिक्षित कहलाएगा. राजस्थान के नाथवाना जैसे गांवों में शिक्षा की रौशनी तभी फैलेगी जब सरकार, समाज और परिवार तीनों मिलकर यह तय करें कि हर बच्चा, चाहे लड़की हो या लड़का, अपने सपनों तक पहुँचने का हक रखता है और उसे यह हक हर परिस्थिति में मिलनी चाहिए.

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)