सलीम समद
18 महीनों के अंतराल के बाद, देश फरवरी 2026 में आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है.जब से नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस ने पिछले अगस्त को अंतरिम सरकार का नेतृत्व संभाला है, उन्होंने प्रशासन चलाने में कई अड़चनों का सामना किया है.उनके सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और विश्वसनीय चुनाव की रूपरेखा घोषित करना, जिससे लोग अपनी इच्छानुसार एक वैध राजनीतिक सरकार चुन सकें.
दूसरी चुनौती थी कानून और व्यवस्था की स्थिति को स्थिर करना.अधिकतर पुलिसकर्मी, हजारों छात्रों और प्रदर्शनकारियों की हत्या के प्रतिशोध के डर से, अपनी ड्यूटी छोड़ कर भाग चुके हैं.इस कारण से देश में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस बल अपर्याप्त हो गया है.
हालांकि, हर शहर और कस्बे में सेना की तैनाती के द्वारा कानून-व्यवस्था कायम रखने की कोशिश की जा रही है.साथ ही, अवामी लीग के नेताओं के खिलाफ मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए मुकदमा चलाने की प्रक्रिया शुरू की गई है, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना भी शामिल हैं.उन पर हजारों प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवाने का आरोप है.
पिछले जुलाई-अगस्त में "मानसून क्रांति" नामक रक्तरंजित विरोध प्रदर्शनों के दौरान हसीना को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और वे भारत में निर्वासन में चली गईं.यह उनका राजनीतिक जीवन में दूसरा निर्वासन है.इस बीच, एक राजनीतिक घटनाक्रम में, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के कार्यवाहक अध्यक्ष तारिक रहमान ने लंदन में निर्वासन में रह रहे प्रोफेसर यूनुस से मुलाकात की.
एक घंटे की इस बैठक में नई सरकार से जुड़ी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक असहमति पर चर्चा हुई.यूनुस ने बार-बार कहा कि चुनाव अगले साल जून से पहले होना चाहिए, लेकिन बीएनपी, जो एक दक्षिणपंथी लोकतांत्रिक पार्टी है, चुनाव दिसंबर के अंत में कराने की मांग कर रही है.बीएनपी का कहना है कि अगर चुनाव दिसंबर तक नहीं हुए तो देश में राजनीतिक और आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकता है, जिससे कानून-व्यवस्था बिगड़ सकती है.
यूनुस का मत है कि चुनाव आवश्यक सुधारों पर राजनीतिक पार्टियों की सहमति के बाद ही होने चाहिए.हालांकि बीएनपी और उससे जुड़ी पार्टियों ने दिसंबर में चुनाव कराने की मांग के पीछे कोई ठोस कारण नहीं दिया है.राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि फरवरी में हाई स्कूल की परीक्षा, रमज़ान का महीना (मध्य फरवरी से), मार्च में ईद उल फित्र, और फिर मानसून के आगमन जैसे कारण सामान्य चुनाव के लिए अनुकूल नहीं हैं.
ईद उल-अज़हा के अवसर पर यूनुस ने घोषणा की थी कि चुनाव अप्रैल 2026 में होंगे.इस घोषणा पर जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख डॉ. शफीकुर रहमान ने प्रतिक्रिया दी कि यह निर्णय देश को लोकतंत्र की ओर ले जाने में आश्वासन देता है.वहीं नेशनल सिटिजन्स पार्टी (एनसीपी) ने कहा कि जुलाई चार्टर (मानसून क्रांति) और प्रस्तावित सुधारों को लागू किया जाना चाहिए, और उन्हें चुनाव की घोषित समयसीमा से कोई आपत्ति नहीं है.
बीएनपी ने चुनाव की इस घोषणा को खारिज कर दिया और दिसंबर के अंत तक चुनाव कराने की मांग को लेकर सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरने की घोषणा कर दी.हालांकि, लंदन की बैठक के बाद तारिक रहमान ने स्वीकार किया कि सभी राजनीतिक दलों को न्यायपालिका, चुनाव आयोग, नौकरशाही, पुलिस प्रशासन, भ्रष्टाचार विरोधी आयोग आदि में सुधारों के लिए सहमति देनी होगी.
यूनुस चाहते हैं कि राजनीतिक दल इन सुधार प्रस्तावों पर सहमत हों ताकि चुने गए नेताओं की पारदर्शिता, जवाबदेही और सामाजिक ज़िम्मेदारी सुनिश्चित हो सके.लेकिन राजनेता, अपने समर्थकों को वफादार बनाए रखने और अपराधों से बचाव के लिए पुलिस, न्यायपालिका और प्रशासन में प्रभाव बनाए रखना चाहते हैं.
इसलिए यह स्पष्ट है कि राजनेता सुधारों का विरोध करते हैं.उनका तर्क है कि अंतरिम सरकार को कोई सुधार लागू करने का अधिकार नहीं है.वे कहते हैं कि चुनी हुई संसद को इन सुधारों को पारित कर सार्वजनिक कानून बनाना चाहिए.
इस बीच, बीएनपी ने जमात-ए-इस्लामी या किसी भी इस्लामी पार्टी के साथ गठबंधन से इनकार कर दिया है.उन्हें पूरा विश्वास है कि वे बहुमत प्राप्त कर सरकार बनाएंगे.वहीं, छात्र नेताओं द्वारा स्थापित नई "राजा की पार्टी" – एनसीपी के साथ भी बीएनपी के मतभेद हैं, जिन्होंने हसीना सरकार को गिराने में प्रमुख भूमिका निभाई.
एनसीपी का कहना है कि बीएनपी की कमजोरी के कारण ही तानाशाही सरकार को गिराया नहीं जा सका.हसीना ने विपक्ष का दमन किया और बीएनपी के हजारों नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को आतंकवाद, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने और पुलिस पर हमले के आरोपों में जेल में डाल दिया.
2014, 2018 और 2024 के चुनाव बिना विपक्ष के हुए और चुनाव परिणामों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने 'फर्जी' बताया.रिपोर्टों में मतपेटियों में पहले से ही वोट डालना, मतदान केंद्रों पर गुंडों का कब्ज़ा, और वोट की खरीद-फरोख्त के व्यापक आरोप लगे.
हसीना ने कभी निष्पक्ष और समावेशी चुनाव कराने की परवाह नहीं की.उन्होंने मीडिया की आलोचना, मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टें और चुनाव पर्यवेक्षकों की टिप्पणियों को नजरअंदाज किया.उन्होंने वरिष्ठ पत्रकारों को लाभ देकर अपने पक्ष में कर लिया और पत्रकार यूनियनों को भी विभाजित कर दिया.
सैकड़ों पत्रकारों को साइबर अपराध कानूनों के तहत कानूनी उत्पीड़न, धमकी और जेल का सामना करना पड़ा.इन कठोर कानूनों का इस्तेमाल विपक्ष, आलोचकों, असहमति रखने वालों और खासतौर पर उन पत्रकारों के खिलाफ किया गया जो हसीना के प्रति वफादार नहीं थे.
अब मीडिया का परिदृश्य बदल चुका है.अधिकांश मीडिया संस्थान ऐसी खबरें प्रकाशित या प्रसारित नहीं कर सकते, जो एनसीपी के छात्र नेताओं की भावनाओं को आहत करे.कई बार वे समाचार कक्ष में घुस आते हैं.जब कोई खबर उनके रहन-सहन या फंडिंग पर सवाल उठाती है तो उसे हटाने का दबाव डालते हैं.
कई पत्रकारों को एनसीपी की धमकियों के चलते नौकरी से निकाल दिया गया या इस्तीफा देना पड़ा.ढाका प्रेस क्लब ने भी एनसीपी के दबाव में 100 से अधिक वरिष्ठ पत्रकारों की सदस्यता रद्द कर दी.
"सेंटर फॉर पार्टनरशिप इनिशिएटिव" के कार्यकारी निदेशक डॉ. रकीब अल हसन का कहना है कि एनसीपी सत्ता में आने के बावजूद लोकाचार और धर्मनिरपेक्षता में विश्वास नहीं करता.उन्होंने पेशेवरों, नौकरशाहों, पत्रकारों, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों और शिक्षकों के खिलाफ राजनीतिक प्रतिशोध शुरू किया है.
टीवी और रंगमंच के कलाकारों को प्रतिबंधित किया गया है.कई नाटकों को स्थगित कर दिया गया जब तक कि निर्माता ने 'विवादित' कलाकारों को हटा नहीं दिया.इन छात्र नेताओं ने अब बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और सैन्य नेतृत्व का विश्वास खो दिया है, जो अब भी प्रोफेसर यूनुस के पीछे मजबूती से खड़ा है.
छात्र नेताओं के जमात-ए-इस्लामी और अन्य कट्टरपंथी इस्लामी समूहों को खुश करने की कोशिश को भी आम लोगों ने नकार दिया है.
एक निजी शोध संस्थान का अनुमान है कि एनसीपी के लिए चुनाव में उन करोड़ों लोगों का समर्थन हासिल करना कठिन होगा, जो मानसून क्रांति में सड़कों पर उतरे थे। अब चुनाव में केवल आठ महीने बचे हैं.
( लेखक सलीम समद, बांग्लादेश के एक पुरस्कार विजेता स्वतंत्र पत्रकारहैं.यह उनके विचार हैं )