कैमरे के पीछे की साजिश: हॉलीवुड कैसे बनाती है ईरान की 'दुश्मन' छवि

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 19-06-2025
The conspiracy behind the camera: How Hollywood creates an 'enemy' image of Iran
The conspiracy behind the camera: How Hollywood creates an 'enemy' image of Iran

 

~अब्दुल्लाह मंसूर

आज के वैश्विक परिदृश्य में मीडिया और सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि विचारधारा, राजनीति और जनमत निर्माण का सबसे प्रभावशाली औजार बन चुके हैं.विशेष रूप से हॉलीवुड, जिसे अमेरिकी सॉफ्ट पावर का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है.अपने फिल्मों, टीवी सीरीज और मीडिया नैरेटिव्स के जरिए न केवल अमेरिकी संस्कृति और मूल्यों का प्रचार करता है, बल्कि विरोधी देशों की छवि को भी नियंत्रित करता है.

यह प्रक्रिया केवल ईरान तक सीमित नहीं, उन सभी देशों पर लागू होती है जिन्हें अमेरिका या पश्चिम "दुश्मन" मानता है.जैसे रूस, चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया, इराक, अफगानिस्तान  आदि.हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया के इस छवि निर्माण के पीछे कौन-सी रणनीतियाँ हैं, वे किन तरीकों से काम करती हैं, और इसका वैश्विक जनमत पर क्या प्रभाव पड़ता है—इन्हीं बिंदुओं पर यह लेख केंद्रित है, जिसमें ईरान के उदाहरणों के साथ-साथ वहां की अपनी फिल्मों की भूमिका भी शामिल की गई है.

हॉलीवुड को केवल मनोरंजन उद्योग के तौर पर देखना एक बड़ी भूल होगी.यह अमेरिकी सॉफ्ट पावर का सबसे बड़ा निर्यातक है, जो अपने कंटेंट के जरिए अमेरिकी मूल्यों, विचारधाराओं और नीतियों को दुनिया भर में फैलाता है.

जोसेफ नाइ के अनुसार, सॉफ्ट पावर वह शक्ति है, जिसमें आकर्षण, संस्कृति और विचारधारा के माध्यम से अपनी बात मनवाई जाती है, न कि सैन्य या आर्थिक दबाव से.हॉलीवुड की फिल्में, टीवी सीरीज और वेब सीरीज अमेरिकी जीवनशैली, लोकतंत्र, मानवाधिकारों और स्वतंत्रता के आदर्शों को ग्लैमराइज करती हैं.

इसके विपरीत, विरोधी देशों को अक्सर आतंकवाद, कट्टरपंथ, तानाशाही, पिछड़ेपन और असभ्यता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.यह एक प्रकार का "सांस्कृतिक युद्ध" है, जिसमें हॉलीवुड विचारधारा और परसेप्शन की लड़ाई लड़ता है.

ईरान की छवि पश्चिमी मीडिया में 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से ही नकारात्मक रूप में उभरनी शुरू हुई.क्रांति के बाद ईरान ने अमेरिका के मित्रवत शासन को गिराकर एक कट्टरपंथी इस्लामी सरकार स्थापित की, जिससे अमेरिका के लिए यह देश एक बड़ा खतरा बन गया.

9/11 के बाद, जब अमेरिका ने "ग्लोबल वॉर ऑन टेरर" की घोषणा की, तब से ईरान को आतंकवाद और वैश्विक अस्थिरता का केंद्र बताया जाने लगा.हॉलीवुड की फिल्मों और टीवी सीरीज ने इस छवि को और मजबूत किया, जिसमें ईरान को बार-बार खलनायक, पिछड़ा, कट्टर और असहिष्णु देश के रूप में दिखाया गया.

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Argo’ (2012) जैसी फिल्में इस छवि निर्माण का सबसे बड़ा उदाहरण हैं.यह फिल्म 1979 की ईरानी क्रांति के दौरान अमेरिकी दूतावास संकट पर आधारित है.इसमें ईरानियों को हिंसक, उग्र और भीड़ के रूप में दिखाया गया.

जबकि अमेरिकी और कनाडाई पात्रों को साहसी, समझदार और मानवीय बताया गया.फिल्म में सीआईए एजेंट टोनी मेंडेज़ एक नकली हॉलीवुड साइंस-फिक्शन फिल्म की आड़ में छह अमेरिकी राजनयिकों को ईरान से निकालने की योजना बनाता है.

पूरी कहानी में ईरानियों की छवि एक खतरनाक, अस्थिर और पश्चिम विरोधी समाज के रूप में उभरती है, जबकि अमेरिकी मिशन को नायकत्व और नैतिकता से जोड़ा गया है.

इसी तरह ‘Homeland’ जैसी टीवी सीरीज आतंकवाद, जासूसी और पश्चिमी सुरक्षा के विषयों पर आधारित है, जिसमें ईरान को बार-बार आतंकवाद का केंद्र, अमेरिकी हितों के लिए खतरा और कट्टरपंथी के रूप में दिखाया गया है.

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‘Not Without My Daughter’ (1991) में ईरानी समाज को महिलाओं के लिए क्रूर, असहिष्णु और पिछड़ा दिखाया गया है.‘The Stoning of Soraya M.’ (2008) जैसी फिल्में ईरान में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार, विशेषकर पत्थर मार-मारकर हत्या की अमानवीय प्रथा को उजागर करती हैं.

‘Tehran’ (2020-) जैसी इज़राइली थ्रिलर सीरीज में ईरान को खतरनाक, चालाक और पश्चिमी हितों के लिए बड़ा खतरा दिखाया गया है.इन सभी फिल्मों और सीरीज में ईरान के लोगों को अक्सर बिना पृष्ठभूमि या मानवीय संदर्भ के, केवल कट्टरपंथी, आतंकवादी या दमनकारी के रूप में दिखाया जाता है.महिलाओं की छवि भी अक्सर पीड़ित और दबाई गई के रूप में प्रस्तुत की जाती है.

ईरान के भीतर बनी फिल्में भी अपने समाज की नकारात्मक छवि को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करती हैं.इन फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में सराहा जाता है.पश्चिमी मीडिया इन्हें खूब प्रमोट करता है.उदाहरण के लिए, ‘Persepolis’ (2007) एक एनिमेटेड फिल्म है, जिसमें 1979 की क्रांति और उसके बाद के ईरान को एक युवा लड़की की नजर से दिखाया गया है.

फिल्म में ईरान को धार्मिक कट्टरता, महिलाओं की आज़ादी पर पाबंदी, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन के प्रतीक के रूप में दिखाया गया है.‘The Circle’ (2000) में ईरान में महिलाओं की स्थिति, सामाजिक पाबंदियों और लैंगिक असमानता को उजागर किया गया है.

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‘Taxi’ (2015) और ‘This Is Not a Film’ (2011) जैसी फिल्मों में सेंसरशिप, सामाजिक असमानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को दिखाया गया है.‘Aghazadeh’ (2020) जैसी ईरानी टीवी सीरीज में देश के कुलीन वर्ग, भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग को उजागर किया गया है.

इन फिल्मों और सीरीज में ईरानी समाज की समस्याओं, असमानताओं और राजनीतिक दमन को प्रमुखता से दिखाया गया है, जिससे पश्चिमी दर्शकों को यह संदेश मिलता है कि ईरान में रहना कठिन, असहिष्णु और पिछड़ेपन से भरा है.

यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ईरानी समाज में महिलाओं के अधिकारों का दमन और लैंगिक भेदभाव एक गंभीर और निंदनीय समस्या है, जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता.हाल के वर्षों में ईरान में महिलाओं पर हिजाब और जीवनशैली को लेकर कठोर कानून, राजनीतिक भागीदारी में कमी, विवाह, तलाक और संपत्ति जैसे मामलों में भेदभाव और सार्वजनिक जीवन में पाबंदियाँ लगातार बढ़ी हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने ‘जेंडर अपार्थाइड’ तक कहा है.

लेकिन यह भी उतना ही सच है कि ऐसी ही दमनकारी नीतियाँ सऊदी अरब और अन्य अरब देशों में भी हैं, जहाँ महिलाओं को समान रूप से राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

इसके बावजूद, हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया में केवल ईरान को बार-बार नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सऊदी अरब जैसे देशों पर ऐसी आलोचनात्मक फिल्में या सीरीज शायद ही बनती हैं.इससे स्पष्ट है कि किसी एक देश को विशेष रूप से टारगेट किया जाता है.इसके पीछे अक्सर राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक हित छिपे होते हैं.

मानवाधिकार के नाम पर अमेरिका ने कई बार सैन्य हस्तक्षेप को जायज ठहराया है—जैसे इराक पर ‘जनसंहारक हथियारों’ का झूठा आरोप लगाकर युद्ध थोपना, जबकि बाद में यह साबित हो गया कि ऐसे हथियार थे ही नहीं.

इन युद्धों के पीछे अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक तंत्र, हथियार कंपनियों और राजनीतिक हितों का गठजोड़ सक्रिय रहता है, जो युद्ध और अस्थिरता से लाभ उठाते हैं.इसीलिए जरूरी है कि जब भी किसी एक देश को बार-बार मीडिया और फिल्मों में निशाना बनाया जाए, तो उसके पीछे की राजनीति और हितों को भी समझा जाए, न कि केवल मानवाधिकार के नाम पर किसी सैन्य कार्रवाई को सही मान लिया जाए.

इस विषय पर फिल्म वाइस देखी जा सकती है जो अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति डिक चेनी की कहानी है.डिक चेनी का किरदार उस राजनीति का चेहरा है जो भावनाओं, देशभक्ति और सुरक्षा के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाकर सिर्फ मुनाफा कमाती है.

ओरीएंटलिज़्म के सिद्धांत के अनुसार, पश्चिम ने पूर्वी देशों को एकसमान, पिछड़ा और असभ्य क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित होती है। हॉलीवुड की फिल्मों में यह दृष्टिकोण स्पष्ट है, जहां ईरान जैसे देश एकसमान, क्रूर और कट्टरपंथी के रूप में चित्रित होते हैं.

यह दृष्टिकोण न केवल सांस्कृतिक बल्कि राजनीतिक भी है, जो अमेरिकी और पश्चिमी हितों के संरक्षण के लिए पूर्वी देशों की छवि को विकृत करता है.इस प्रकार हॉलीवुड की फिल्में एक प्रकार का "सांस्कृतिक उपनिवेशवाद" करती हैं, जो पश्चिमी प्रभुत्व को वैध बनाती हैं.

हॉलीवुड की फिल्में और टीवी सीरीज दर्शकों के मन में एक निश्चित सोच और भावना को जन्म देने के लिए डिज़ाइन की जाती हैं.जब कोई देश या संस्कृति बार-बार नकारात्मक रूप में प्रस्तुत होती है, तो दर्शक उसके प्रति पूर्वाग्रह और भय विकसित करते हैं.

अमेरिकी सरकार और खुफिया एजेंसियां भी इस प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाती हैं.कई बार वे फिल्मों के निर्माण में सहयोग देती हैं, स्क्रिप्ट में बदलाव करवाती हैं ताकि अमेरिकी नीति के अनुरूप नैरेटिव तैयार हो.इससे हॉलीवुड की फिल्मों में अमेरिकी हितों की पूर्ति होती है और विरोधी देशों की छवि धूमिल होती है.

यह भी ध्यान देने योग्य है कि हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया द्वारा नकारात्मक छवि निर्माण केवल ईरान तक सीमित नहीं है.रूस, चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया, इराक, अफगानिस्तान आदि देशों के साथ भी यही पैटर्न अपनाया गया है.

इन सभी देशों को फिल्मों, टीवी सीरीज और मीडिया रिपोर्ट्स में बार-बार खलनायक, मानवाधिकार विरोधी, आतंकवाद समर्थक या असभ्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है.

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उदाहरण के लिए, "Valley of the Wolves: Iraq" जैसी तुर्की फिल्में अमेरिका को खलनायक के रूप में दिखाती हैं, लेकिन पश्चिमी मीडिया में ऐसी फिल्मों को अक्सर "प्रोपेगेंडा" या "विवादास्पद" करार दिया जाता है.वहीं हॉलीवुड की फिल्मों को "मूल्य आधारित" या "सच्चाई पर आधारित" बताया जाता है.चाहे वे ऐतिहासिक तथ्यों को कितना भी तोड़-मरोड़ कर पेश करें.

मीडिया केवल फिल्मों तक सीमित नहीं.समाचार चैनल, अखबार, ऑनलाइन पोर्टल्स और सोशल मीडिया भी अमेरिकी विदेश नीति के अनुरूप नैरेटिव गढ़ते हैं.शोध से पता चलता है कि अमेरिकी मुख्यधारा मीडिया अक्सर सरकारी नीतियों के अनुरूप खबरों को फ्रेम करता है.

जैसे इराक युद्ध, सीरिया संकट, या ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर रिपोर्टिंग में देखा गया है.मीडिया रिपोर्ट्स में विरोधी देशों की नकारात्मक खबरों को प्रमुखता दी जाती है, जबकि अमेरिका या पश्चिम की गलतियों को नजरअंदाज या उचित ठहराया जाता है.

हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया ने दशकों से अपनी विदेश नीति के विरोधियों की छवि को नकारात्मक, स्टीरियोटाइप और खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया है.यह प्रक्रिया केवल हॉलीवुड तक सीमित नहीं, बल्कि खुद उन देशों की फिल्मों में भी देखने को मिलती है, जहां आत्मालोचना या सामाजिक समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है.

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इसका उद्देश्य अमेरिकी और पश्चिमी हस्तक्षेप को नैतिक, जरूरी और न्यायसंगत ठहराना है, जबकि विरोधी देशों को वैश्विक खतरे के रूप में स्थापित करना है.यह पैटर्न वैश्विक जनमत निर्माण, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और परसेप्शन मैनेजमेंट का हिस्सा है, जिससे अमेरिकी हितों को बढ़ावा मिलता है और विरोधी देशों की आवाज़ दब जाती है.

दर्शकों के लिए जरूरी है कि वे इन फिल्मों और मीडिया नैरेटिव्स को आलोचनात्मक दृष्टि से देखें, ताकि वे सच्चाई और प्रोपेगेंडा में फर्क कर सकें.

( लेखक पसमांदा चिंतक हैं.)