उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की पुण्यतिथि : संगीत की कोई सरहद नहीं

Story by  अर्सला खान | Published by  [email protected] | Date 21-08-2025
Ustad Bismillah Khan's death anniversary: Music has no boundaries
Ustad Bismillah Khan's death anniversary: Music has no boundaries

 

अर्सला खान/नई दिल्ली

भारत की सांस्कृतिक धरोहर में जब भी शहनाई का ज़िक्र होता है तो सबसे पहले नाम आता है उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का... वे केवल शहनाई के महान वादक ही नहीं थे, बल्कि संगीत को इंसानियत और सौहार्द का माध्यम मानने वाले संतुलित व्यक्तित्व भी थे. 21 अगस्त 2006 को उनका निधन हुआ, लेकिन आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना महज़ एक कलाकार को श्रद्धांजलि देना नहीं है, बल्कि उस विचारधारा को सम्मान देना है जिसमें संगीत को धर्म, जाति और सीमा से परे इंसानियत का साझा सुर माना गया.

संगीत की कोई सरहद नहीं 

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का मानना था कि संगीत की कोई सीमा नहीं होती. यह इंसान को इंसान से जोड़ता है और आत्मा को निर्मल करता है. उनके लिए शहनाई केवल वाद्ययंत्र नहीं थी, बल्कि आत्मा की आवाज़ थी. वे कहा करते थे "संगीत का कोई धर्म नहीं होता, यह मंदिर की घंटियों में भी गूंजता है और अज़ान की सदा में भी." यही वजह थी कि उन्होंने बनारस के विश्वनाथ मंदिर से लेकर मस्जिदों के आँगन तक अपने सुरों से समरसता का संदेश दिया.
 
बनारस और शहनाई का रिश्ता

बिस्मिल्लाह खान का जीवन बनारस की गलियों और घाटों से गहराई से जुड़ा रहा. वे कहते थे कि गंगा के किनारे बहती हवा और मंदिरों की घंटियां ही उन्हें संगीत का सच्चा रियाज़ कराती हैं. बनारस उनके लिए महज़ शहर नहीं था, बल्कि संगीत की आत्मा थी. उन्होंने यहां के सांस्कृतिक माहौल को अपने सुरों में समेटा और पूरी दुनिया तक पहुंचाया.
 
ऐतिहासिक प्रस्तुतियां

बिस्मिल्लाह खान की शहनाई ने कई ऐतिहासिक पलों को अपनी धुनों से सजाया. 15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ाद हुआ, तो लाल किले से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहला स्वतंत्रता दिवस भाषण दिया और उसके तुरंत बाद उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई गूंजी. यह पल भारतीय इतिहास का अमिट हिस्सा बन गया. इसके अलावा 26 जनवरी 1950 को भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में भी उनकी शहनाई की तान ने समारोह को अद्भुत गरिमा प्रदान की. यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा और उनकी धुनें राष्ट्रीय पर्वों का अभिन्न हिस्सा बन गईं.
 

 
हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश

उनका जीवन और संगीत दोनों ही सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल रहे. वे अक्सर कहा करते थे कि संगीत किसी धर्म का बंधक नहीं है. यही कारण था कि उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर में भी सुर सजाए और ईद के मौके पर भी शहनाई की गूंज बिखेरी. उनके सुर इस बात का प्रमाण थे कि कला जब अपने शुद्ध रूप में सामने आती है तो वह इंसानों को बांटती नहीं, बल्कि जोड़ती है.
 
 
अंतरराष्ट्रीय ख्याति और भारतीयता

बिस्मिल्लाह खान ने पूरी दुनिया में शहनाई को वह स्थान दिलाया, जो पहले तक केवल शास्त्रीय कार्यक्रमों या विवाह समारोहों तक सीमित था. उन्होंने अमेरिका, यूरोप और एशिया के कई देशों में अपनी कला का प्रदर्शन किया. बावजूद इसके, वे अपनी जड़ों से कभी अलग नहीं हुए. वे बनारस छोड़कर कहीं और बसने के पक्षधर नहीं थे. उनका कहना था. "मुझे गंगा की लहरों और बनारस की गलियों में ही रब्ब मिलता है." यह भारतीय संस्कृति और परंपरा से उनके गहरे लगाव को दर्शाता है.
 
 
पुरस्कार और सम्मान

अपने लंबे संगीत सफर में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले. उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया, जो भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है. इसके अलावा पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री जैसे अलंकरणों से भी नवाज़ा गया, लेकिन वे अक्सर कहते थे कि असली पुरस्कार तो श्रोताओं की तालियाँ और उनकी आँखों में झलकती खुशी है.
 
 
आज के दौर में उनकी प्रासंगिकता

आज जब समाज कई बार धार्मिक और जातीय आधार पर बंटा नज़र आता है, ऐसे समय में बिस्मिल्लाह खान का जीवन और विचार और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं. उनका मानना था कि अगर इंसान संगीत सुन ले तो उसके दिल से नफ़रत के जज़्बात खुद-ब-खुद मिट जाएंगे. उनकी शहनाई की तान हमें याद दिलाती है कि कला और संस्कृति वह पुल हैं जो दिलों को जोड़ते हैं और समाज को बेहतर बनाते हैं.
 

 
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने शहनाई को न सिर्फ़ विश्व पटल पर प्रतिष्ठित किया, बल्कि अपने संगीत से इंसानियत और भाईचारे का संदेश भी दिया. उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना दरअसल उस सांस्कृतिक विरासत को याद करना है, जो हमें जोड़ती है, हमारी आत्मा को गहराई से छूती है और हमें यह सिखाती है कि संगीत का कोई धर्म नहीं होता, उसकी सरहदें नहीं होतीं.
 

 
उनकी शहनाई आज भी यही कहती है. सुर ही असली भाषा है, और इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म.
 
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