जनभाषा की जययात्रा: हिंदी प्रकाशन का योगदान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 21-09-2025
The Victory of the People's Language: The Contribution of Hindi Publications
The Victory of the People's Language: The Contribution of Hindi Publications

 

fमंजीत ठाकुर

भारत की आधुनिक हिंदी साहित्यिक चेतना का एक बड़ा अध्याय है, हिंदी प्रकाशन का इतिहास. यह सिर्फ किताबों और अख़बारों के छपने की दास्तान नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की गाथा भी है. हिंदी का मुद्रण और प्रकाशन जैसे-जैसे विकसित हुआ, उसने जनमानस को जागरूक किया, राष्ट्रवाद की अलख जगाई और साहित्य को जनभाषा की गरिमा प्रदान की.

आज जब किताबों का संसार डिजिटल पन्नों तक सिमट रहा है, तब यह याद करना जरूरी है कि हिंदी प्रकाशन ने किस तरह कठिन राहों से गुज़रते हुए अपनी बुनियाद रखी और किन संस्थानों ने उसे आकार दिया.हिंदी प्रकाशन की कहानी 19वीं सदी से शुरू होती है. मुद्रण कला का भारत में आगमन भले ही 16वीं शताब्दी में पुर्तग़ालियों के ज़रिए हुआ, लेकिन हिंदी में व्यवस्थित प्रकाशन का आरंभ काफ़ी बाद में हुआ.

सबसे पहले भारतमित्र (1873, कलकत्ता) और कविवचन सुधा (1868, कलकत्ता) जैसे अखाबर सामने आए. पर वास्तव में हिंदी पत्रकारिता और प्रकाशन को गति मिली उदंत मार्तंड (1826) से, जिसे पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने कोलकाता से प्रकाशित किया. यह पहला हिंदी साप्ताहिक था.

इन शुरुआती प्रकाशनों ने साहित्य, संस्कृति और समाज की चेतना में हलचल मचाई. हिंदी अब सिर्फ काव्य की भाषा नहीं रही, वह समाज सुधार और राष्ट्रीय चेतना की आवाज़ बनने लगी.

प्रकाशन संस्थानों का उभार: छपाई से संस्कृति की नब्ज तक

हिंदी के पाठकों की संख्या तेजी से बढ़ने के बाद संगठित प्रकाशन संस्थान सामने आए. ये संस्थान केवल किताब छापने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि साहित्यिक धारा का मार्गदर्शन करने लगे.1870 के आसपास के वर्षों में बनारस का भारतजीवन प्रेस हिंदी प्रकाशन जगत का अग्रदूत था. इस प्रेस से कई पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें निकलीं. भारतजीवन अख़बार ने सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना को स्वर दिया.

दूसरी तरफ, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने हिंदी के मानकीकरण और नागरी लिपि के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसी कड़ी में 1900में ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन हुआ. संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे हिंदी की साहित्यिक चेतना का केंद्र बना दिया.

द्विवेदी युग ने हिंदी गद्य, आलोचना और नई कविता को दिशा दी. यही वह मंच था, जहाँ प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे रचनाकारों की रचनाएँ पाठकों तक पहुँचीं.प्रयाग (इलाहाबाद) ने हिंदी साहित्य और प्रकाशन का गढ़ बनकर इतिहास रचा. ‘इंडियन प्रेस’ और बाद में सरस्वती प्रेस ने साहित्यकारों की पूरी पीढ़ी गढ़ दी. प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियाँ इसी दौर में व्यवस्थित रूप से पाठकों तक पहुँचीं.

इलाहाबाद (अब प्रयाग) की हिंदुस्तानी अकादमी ने शोधपरक, प्राच्य विद्या और साहित्यिक ग्रंथों का प्रकाशन किया. गंभीर और उच्चकोटि के हिंदी साहित्य को मंच देने में इसकी अहम भूमिका रही.स्वतंत्रता के बाद हिंदी साहित्य का एक नया अध्याय शुरू हुआ. राजकमल प्रकाशन ने आधुनिक हिंदी साहित्य को पहचान दी. अज्ञेय, मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी—इन सभी लेखकों की किताबें राजकमल ने प्रकाशित कीं. इस संस्थान ने गुणवत्ता और गंभीरता दोनों को संतुलित किया.

1950–60के दशक में एक अन्य प्रकाशन संस्थान उभराः राधाकृष्ण प्रकाशन. इस प्रकाशन ने कहानी, उपन्यास और आलोचना साहित्य को लोकप्रिय मंच दिया. हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे व्यंग्यकारों की रचनाओं को राधाकृष्ण प्रकाशन ने जन-जन तक पहुँचाया.

लोकभारती और ज्ञानपीठ प्रकाशन जैसे संस्थान आज बी उच्च साहित्यिक मानकों के लिए जाने जाते हैं. खासकर ज्ञानपीठ प्रकाशन ने हिंदी सहित भारतीय भाषाओं की क्लासिक रचनाओं का प्रकाशन कर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाया.

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प्रकाशन का सामाजिक सरोकार

हिंदी प्रकाशन केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहा. स्वतंत्रता आंदोलन के समय प्रकाशित अख़बार और पत्रिकाएँ (जैसे ‘भारत मित्र’, ‘हिंदी प्रदीप’, ‘कर्मयोगी’) ने जनता में आज़ादी की चेतना जगाई. किताबें और पत्रिकाएँ उस दौर में ‘घोषणापत्र’ की तरह काम करती थीं.

स्वतंत्रता के बाद प्रकाशन ने शिक्षा के प्रसार में अहम योगदान दिया. पाठ्यपुस्तकें, पत्रिकाएँ और जनसाहित्य—सबने मिलकर हिंदी को एक जीवंत भाषायी संसार बना दिया.

आज की हिंदी

आज हिंदी प्रकाशन के सामने दोहरी चुनौती है. एक ओर डिजिटल माध्यम ने कागज़ी किताबों की दुनिया को चुनौती दी है, दूसरी ओर पाठकों की रुचियाँ भी तेजी से बदल रही हैं.लेकिन इतिहास गवाह है कि हिंदी प्रकाशन हर संकट को अवसर में बदलता आया है. आज भी ई-पुस्तकें, ऑडियो बुक्स और ऑनलाइन पत्रिकाएँ नए पाठक वर्ग तक पहुँच बना रही हैं. राजकमल, वाणी और अन्य प्रकाशन संस्थान अब डिजिटल माध्यम को भी अपना रहे हैं.

हिंदी प्रकाशन का भविष्य

xभविष्य में हिंदी प्रकाशन को थामने वाले तीन स्तंभों पर ध्यान रखना होगा, गुणवत्ता यानी साहित्यिक गंभीरता और भाषा की गरिमा; दूसरी, सुलभता यानी किताबें हर वर्ग तक पहुँचे, चाहे प्रिंट के रूप में हो या डिजिटल माध्यम से; और तीसरा, समकालीन सरोकार यानी आज के समाज, राजनीति और युवाओं की आवाज़ को मंच मिले.

आज जब युवा पीढ़ी सोशल मीडिया पर लिख रही है और डिजिटल किताबें पढ़ (और ऑडियो के रूप में सुन) रही है, तब यह याद रखना जरूरी है कि हिंदी प्रकाशन की नींव उन संस्थानों ने रखी थी, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी हिंदी को जनभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया.

आज के दौर में हिंदी प्रकाशकों की भूमिका

हिंदी साहित्य ने अपनी लंबी यात्रा में अनेक मोड़ देखे हैं. आज जब पाठक वर्ग तेजी से बदल रहा है और डिजिटल माध्यम पारंपरिक किताबों को चुनौती दे रहा है, तब हिंदी प्रकाशकों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है. वे न केवल साहित्य को जीवित रखे हुए हैं, बल्कि नए प्रयोगों और मंचों के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाने का काम कर रहे हैं.

v-राजकमल प्रकाशन समूह (दिल्ली)

राजकमल हिंदी प्रकाशन का सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित नाम है. यह क्लासिक साहित्य, आधुनिक गद्य-कविता और समकालीन चिंतन को लगातार सामने ला रहा है. राजकमल ने डिजिटल किताबें और ऑनलाइन बुकस्टोर के ज़रिए युवाओं को भी जोड़ा है.

-वाणी प्रकाशन (दिल्ली)

वाणी ने हिंदी साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने का कार्य किया है. अनुवाद, समकालीन उपन्यास और आलोचना साहित्य में इसकी भूमिका विशिष्ट है. वाणी ‘वाणी प्रिज़्म’ जैसे कार्यक्रमों से नए लेखकों को मंच भी देता है.

-राधाकृष्ण प्रकाशन (दिल्ली)

यह प्रकाशन व्यंग्य और कथा साहित्य का बड़ा केंद्र रहा है. हरिशंकर परसाई, शरद जोशी से लेकर समकालीन लेखकों तक—राधाकृष्ण ने हिंदी व्यंग्य और गद्य साहित्य को लोकप्रिय बनाया.

-भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली)

ज्ञानपीठ प्रकाशन ने भारतीय भाषाओं के साहित्य को हिंदी के पाठकों तक पहुँचाने में खास योगदान दिया. क्लासिक साहित्य और गंभीर किताबों के प्रकाशन में इसकी प्रतिष्ठा बनी हुई है.

-लोकभारती प्रकाशन (इलाहाबाद/प्रयागराज)

लोकभारती ने शोधपरक ग्रंथों और विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों की किताबों के जरिए हिंदी जगत में महत्वपूर्ण स्थान बनाया है. इसकी किताबें आज भी विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए आधारभूत सामग्री मानी जाती हैं.

-अमर भारती प्रकाशन (दिल्ली)

लोकप्रिय और समकालीन विषयों की पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध. इसने हल्के-फुल्के साहित्य और जनपक्षधर किताबों के जरिए व्यापक पाठक वर्ग को जोड़ा है.

d-पेंगुइन स्वदेश (दिल्ली)

समकालीन कथा साहित्य और नई पीढ़ी के लेखकों को प्रकाशित करने के लिए जाना जाता है. सामाजिक और राजनीतिक विमर्श की किताबों को मंच देने में इसकी अहम भूमिका है. मूल रूप से अंग्रेजी के प्रकाशन संस्थान रहे पेंगुइन ने हिंदी में प्रकाशन शुरू किया तो काफी महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित की. लोकप्रिय साहित्य को अपनाने के क्रम में पेंगुइन इंडिया ने पॉकेट बुक में मार्केट लीडर रहे हिंद पॉकेट बुक्स का अधिग्रहण कर लिया और पेंगुइन स्वदेश नाम से हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं में भी किताबें प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया है.

d-प्रभात प्रकाशन (दिल्ली)

प्रभात प्रकाशन जनसाहित्य, प्रेरक व्यक्तित्वों की जीवनी और समसामयिक विषयों पर आधारित पुस्तकों के लिए लोकप्रिय है. यह प्रकाशन युवाओं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों तक आसानी से पहुँच बनाता है.

-नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी, भारत सरकार)

एनबीटी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में कम दाम पर गुणवत्तापूर्ण किताबें उपलब्ध कराई हैं. यह साहित्य को गाँव-गाँव और स्कूल-कॉलेजों तक ले जाने वाला सबसे बड़ा सरकारी संस्थान है.

-साहित्य अकादमी प्रकाशन

भारत की राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था, जो भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ कृतियों का अनुवाद और प्रकाशन करती है. हिंदी सहित अन्य भाषाओं का श्रेष्ठ साहित्य यहाँ से aव्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचता है.

भोपाल स्थित मंजुल प्रकाशन हिंदी प्रकाशन जगत में अपेक्षाकृत नया लेकिन प्रभावशाली नाम है. 1999में स्थापित इस संस्थान ने खासतौर पर अनुवाद साहित्य के क्षेत्र में पहचान बनाई है. अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर किताबों जैसे पाउलो कोएल्हो की ‘द अल्केमिस्ट’, जे.के. रोलिंग की हैरी पॉटर सीरीज, रॉबिन शर्मा की ‘द मॉन्क हू सोल्ड हिज फेरारी’ आदि को हिंदी में लाकर इसने हिंदी पाठकों को वैश्विक साहित्य से जोड़ा.

dसाथ ही यह प्रेरणादायक, प्रबंधन, अध्यात्म और लोकप्रिय उपन्यासों के प्रकाशन के लिए भी जाना जाता है. मंजुल प्रकाशन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने हिंदी पाठकों के बीच पढ़ने की नई संस्कृति को विकसित किया और युवाओं को किताबों की दुनिया से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई.

आज के हिंदी प्रकाशक केवल किताब छापने वाले कारोबारी नहीं हैं, बल्कि देश के सांस्कृतिक सेतु हैं. वे नए और पुराने साहित्य को जोड़ते हैं, अनुवाद के जरिए भाषाओं के पुल बनते हैं और अब डिजिटल माध्यम से पाठकों की नई पीढ़ी तक पहुँच रहे हैं.

(लेखक आवाज द वाॅयस के सोशल मीडिया संपादक हैं)