-फ़िरदौस ख़ान
इस्लाम, बक़रीद यानी ईद उल अज़हा पर चौपायों की क़ुर्बानी करने तक ही सीमित नहीं है. दरअसल क़ुर्बानी तो इस दीन का एक अर्कान भर है, जो हमें अपनी सबसे प्यारी चीज़ अल्लाह की राह में क़ुर्बान करने की सीख देता है.
इस्लाम का मतलब है सलामती यानी अमन. सबके लिए सलामती चाहना और इसके लिए हर मुमकिन कोशिश करना ही इस्लाम का पैग़ाम है. इस्लाम में सिर्फ़ पांच वक़्त की नमाज ही फ़र्ज़ नहीं की गई है, बल्कि चौबीस घंटे अख़लाक भी फ़र्ज़ किया गया है. इस अख़लाक में सबकुछ ही आ जाता है.
खाना खिलाओ
इस्लाम में दूसरों की मदद करने और मेलजोल को बहुत ज़्यादा अहमियत दी गई है.अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि रहमान यानी अल्लाह की इबादत करो और खाना खिलाया करो और सलाम को आम करो, चाहे उससे जान पहचान हो या न हो. (तिर्मिज़ी)
रिश्तेदारों, यतीमों, मिस्कीनों, मुसाफ़िरों और फ़क़ीरों का हक़
इस्लाम के मुताबिक़ इंसान के माल पर सिर्फ़ उसी का हक़ नहीं है बल्कि उसके और उसके अलावा उसके रिश्तेदारों, यतीमों, मोहताजों, मुसाफ़िरों और मांगने वालों का भी हक़ है.इस्लाम में पड़ौसियों के भी रिश्तेदारों की तरह अधिकार हैं.
इस्लाम पड़ौसियों के साथ अच्छा बर्ताव करने का हुक्म देता है. क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि और तुम अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराओ और वालिदैन के साथ हुस्ने सुलूक करो और रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और नज़दीकी पड़ौसियों और अजनबी पड़ौसियों और साथ उठने बैठने वालों और मुसाफ़िरों और अपने गु़लामों से अच्छा बर्ताव करो. (4:36)
फिर तुम अपने रिश्तेदारों और मिस्कीनों और मुसाफ़िरों को उनका हक़ देते रहो. ये उन लोगों के हक़ में बेहतर है, जो अल्लाह की ख़ुशनूदी चाहते हैं. और वही लोग कामयाबी पाने वाले हैं. (30:38)
अबूज़र ग़फ़्फ़ारी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें नसीहत दी कि अबूज़र शोरबा पकाओ, तो उसमें पानी बढ़ा दिया करो और उससे अपने हमसायों यानी पड़ौसियों की ख़बरगिरी करते रहो यानी उसमें से अपने हमसाये को भी कुछ दे दिया करो. (सही मुस्लिम)
बेटियों को उनका हिस्सा दें
इस्लाम में बेटियों के साथ अच्छा बर्ताव करने की तालीम दी गई है. इसके साथ ही मीरास में उनका हिस्सा भी मुक़र्रर किया गया है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है- “मर्दों के लिए उस माल में से हिस्सा है, जो वालिदैन और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो और औरतों के लिए भी वालिदैन और क़रीबी रिश्तेदारों के तरके यानी छोड़े हुए माल में से हिस्सा है. माल कम हो या ज़्यादा वह अल्लाह का मुक़र्रर किया हुआ हिस्सा है.” (4: 7)
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है- “अल्लाह तुम्हारी औलाद के हक़ के बारे में तुम्हें हुक्म देता है कि एक लड़के का हिस्सा दो लड़कियों के हिस्से के बराबर है. फिर अगर औलाद में सिर्फ़ लड़कियां ही हों और वे दो या दो से ज़्यादा हों, तो उनके लिए इस तरके का दो तिहाई हिस्सा है.
और अगर इकलौती लड़की हो, तो उसका आधा हिस्सा है. मय्यत के वालिदैन के लिए उन दोनों में से हर एक के लिए तरके का छठा हिस्सा है. बशर्ते मय्यत की कोई औलाद न हो. फिर अगर उस मय्यत की कोई औलाद न हो, तो उसके वारिस सिर्फ़ उसके वालिदैन होंगे.
इसमें उसकी मां के लिए तिहाई हिस्सा है और बाक़ी सब बाप का है. फिर अगर मय्यत के भाई और बहन हों, तो उसकी मां के लिए छठा हिस्सा है. यह तक़सीम उस वसीयत के पूरा करने के बाद होगी, जो उसने की हो या क़र्ज़ की अदायगी के बाद होगी.
तुम नहीं जानते कि तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटों में से तुम्हें नफ़ा पहुंचाने में कौन तुम्हारे क़रीबतर है. ये अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किए हुए हिस्से हैं. बेशक अल्लाह बड़ा साहिबे इल्म बड़ा हिकमत वाला है.”(4: 11)
जो लोग अपनी बहन-बेटियों को मीरास में उनका हिस्सा नहीं देते, उन्हें सख़्त अज़ाब से ख़बरदार किया गया है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नाफ़रमानी करे और उसकी हदों से तजावुज़ करे, तो अल्लाह उसे दोज़ख़ में डाल देगा. वह हमेशा उसमें रहेगा और उसके लिए ज़िल्लतअंगेज़ अज़ाब है.”(4:14)
हज़रत अबू उमामा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अल्लाह तआला ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया है. इसलिए किसी वारिस के लिए वसीयत जायज़ नहीं है.” (अबू दाऊद)
हक़ीक़त यही है कि इस्लाम सबके साथ भलाई करने हुक्म देता है. क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि और तुम में से एक उम्मत ऐसी ज़रूर होनी चाहिए, जो लोगों को भलाई की तरफ़ बुलाए और अच्छे काम करने का हुक्म दे और बुराई से रोके और यही वे लोग हैं, जो कामयाबी पाएंगे.
और तुम उन लोगों की तरह न हो जाना, जो फ़िरक़ों में तक़सीम हो गए थे और अपने पास वाज़ेह निशानियां आ जाने के बाद भी इख़्तिलाफ़ करने लगे. और उन लोगों के लिए सख़्त अज़ाब है. (3:104-105)
लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि बहुत से मुसलमान क़ुर्बानी के मर्म को नहीं समझते. ईद उल अज़हा पर चौपायों की क़ुर्बानी करके ये मान लेते हैं कि उन्होंने अपने तमाम फ़र्ज़ पूरे कर दिए. जिस दिन तमाम मुसलमान त्यौहारों से वाबस्ता सीख को समझ जाएंगे और उस पर अमल करने लगेंगे, तो उस वक़्त न तो कोई मुसलमान बदहाल होगा और न ही उसका पड़ौसी, भले ही वह किसी भी मज़हब को मानने वाला हो.
(लेखिका आलिमा हैं)