रमजानः भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में क्यों याद आता है ‘रूह अफजा ’ का खानदान ?

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 02-04-2022
रमजानः भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में क्यों याद आता है ‘रूह अफजा ’ का खानदान ?
रमजानः भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में क्यों याद आता है ‘रूह अफजा ’ का खानदान ?

 

मंसूरूद्दीन फरीदी / नई दिल्ली
 
यूं तो रमजान में पूरी दुनिया के मुसलमान रोजे रखते हैं, पर हिंदुस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में इस दौरान एक बात काॅमन देखी जाती है. वह है रोजा इफ्तार के समय शरबत ‘रूह अफजा’ का व्यापकता से इस्तेमाल. और हो क्यों नहीं इन तीनों देशों का ‘रूह अफजा’ से  करीब का नाता जो है. इस वक्त स्थिति यह है कि रमजान शुरू होने से पहले ही तीनों देशों में शरबत-ए-रूह अफजा बाजार से आॅट आॅफ स्टाॅक हो गया है.

आइए, आगे बढ़ने से पहले शरबत-ए-रूह अफजा और इसके उत्पादककर्ता की कहानी जानते हैं. 
ruh
 
रूहअफजा.... इसका नाम ही काफी है. यह नाम जब दिमाग में आता है, तो जीभ में गजब की मिठास और ताजगी पैदा होने लगती है. इतना ही नहीं, आंखें चमक उठाती हैं और आत्मा अपने आप तरोताजा हो जाती है. गर्मी और थकान का नामोनिशान मिट जाता है. यह सिर्फ दिमाग में आने वाले नाम का परिणाम है.
 
इसके आगे की कहानी मंत्रमुग्ध कर देने वाली है.  इस शरबत को शरबतों का राजा कहा जाता है. पिछले 111 सालों से यह जवान है. वैश्विक बाजार में बड़े खिलाड़ियों के उभरने के बावजूद, रूहअफा का रंग और स्वाद वैसा का वैसा ही है.
 
इसका स्थान शरबत की दुनिया में एवरेस्ट की तरह है. हर किसी को लोकप्रियता के साथ प्रसिद्धि पाने की इच्छा है, लेकिन इस शरबत की नियति में अल्लाह ने जो स्थान लिखा है, वह अब तक किसी के भाग्य में नहीं आया है.
 
यदि आप यह समझना चाहते हैं कि जीवन का एक हिस्सा होने का क्या अर्थ है, तो ‘रूहअफा‘ की इस लाल बोतल को देखें. यह शरबत वास्तव में दुनिया के एक बड़े हिस्से की जीवनदायिनी बन गया है.
 
विशेषकर जब रमजान की बात आती है, तो इस प्रेरणा का कोई विकल्प नहीं है. उपवास करने वाले व्यक्ति के यह बहुत दिलचस्प है. हालांकि यह पेय प्रभाव में शांत है, लेकिन चाहे गर्मी हो या सर्दी, लाल सीरप इफ्तार में एक आवश्यक घटक है.
 
वास्तव में, ‘रूहअफजा‘ केवल एक शरबत या पेय पदार्थ नहीं है, जो केवल मेहमान नवाजी के लिए उपयोग किया जाता है, बल्कि हमारी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा बन गया है.
 
तथ्य यह है कि कितने दशक बीत गए, यह अभी भी हमारी नसों में बसा हुआ है. आज भी, इसकी खुशबू अतीत की यादों की कई खिड़कियां खोल देती है.
 
 
हकीम अजमल खान 

‘रूहअफजा‘ की एक पूरी लंबी कहानी है .रूहअफजा चूंकि हमदर्द का एक उत्पाद है, इसलिए हमदर्द की कहानी को जानना महत्वपूर्ण है. इस तरह संस्थान ने यूनानी चिकित्सा का काम शुरू किया था, लेकिन उसकी पहचान निश्चित रूप से रूहअफजा प्रेरित थी.
 
हकीम अब्दुल मजीद को पहली बार मासिह-उल-मुल्क हकीम अजमल खान द्वारा स्थापित भारतीय फार्मेसी में नियुक्त किया गया था. 1904 में, उन्होंने अपने ससुर रहीम बख्श साहिब से कुछ पैसे लिए और हमदर्द की नींव रखी और उसी समय एक हर्बल व्यापार शुरू किया. हकीम अब्दुल मजीद ने हमदर्द की दुकान चलाने के लिए पौधों से दवाइयां बनानी शुरू कीं.
 
हकीम अब्दुल मजीद 

उनकी पत्नी राबिया बेगम ने हर स्तर पर अपने पति की मदद की. राबिया बेगम और उनकी बहन फातिमा बेगम अब्दुल मजीद साहिब के साथ काम करती थीं और हाथ से गोलियां बनाती थीं. हमदर्द को हौज काजी से लाल कानवी की एक दुकान में स्थानांतरित कर दिया गया और जब व्यापार का विस्तार हुआ, तो उन्हें लाल कानवी से अपने मूल स्थान पर स्थानांतरित करना पड़ा.
 
हकीम उस्ताद हसन खान संरक्षक थे

सभी जानते हैं कि रूहअफजा वास्तव में हमदर्द का एक उत्पाद है. लेकिन इस महान शरबत के लिए नुस्खा कब और किसने तैयार किया? इसकी एक दिलचस्प कहानी है.
 
वास्तव में, हकीम अब्दुल मजीद के हमदर्द फार्मेसी में हकीम उस्ताद हसन खान भी चिकित्सा और फार्मास्यूटिकल्स के क्षेत्र से जुड़े थे. वह सहारनपुर, उत्तर प्रदेश के थे, लेकिन आजीविका की तलाश में वह दिल्ली आ गए थे. वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने रूहअफजा के पहले संस्करण को संकलित किया. पाकिस्तान के गठन के बाद, वह कराची चले गए.
 
प्रेरणादायक नुस्खा

ऐसा कहा जाता है कि हमदर्द फार्मेसी के संस्थापकों ने फलों, फूलों और जड़ी-बूटियों को मिलाकर एक ऐसा अनोखा नुस्खा बनाना चाहा, जो इसके स्वाद और प्रभावशीलता में अद्वितीय हो.
 
हर स्वभाव का व्यक्ति इसका उपयोग कर सके. उसके बाद इस धारणा पर काम शुरू हुआ. हकीम उस्ताद हसन खान ने रूहअफजा की विधि और नुस्खे में जड़ी बूटियों के अपने ज्ञान और अनुभव को शामिल किया. अफसोस और आश्चर्यजनक रूप से, इस व्यक्ति ने गुमनामी का जीवन जीया. इतना ही नहीं, हमदर्द फार्मेसी और प्रयोगशालाओं की वेबसाइट पर वह प्रेरणा के पहले संरक्षक के रूप में सूचीबद्ध है.
 
शरबत में प्रमुख तत्व उनकी प्रभावशीलता में अद्वितीय थे. शरबत में इस्तेमाल की जाने वाली जड़ी-बूटियों में खरीफ के बीज, मुनक्का, कासनी, नीलोफर, गाओ जबुान और हरा धनिया शामिल हैं.
 
रूहअफजा के नुस्खे में संतरे, अनानास, गाजर और तरबूज आदि जैसे फलों का इस्तेमाल किया गया है. सब्जियों में पालक, पुदीना और हरा कद्दू आदि और फूलों में गुलाब, केवड़ा, नींबू और संतरे के फूलों का रस, खुशबू और ठंडा करने के लिए खस और चंदन की लकड़ी का भी उपयोग किया गया. और जो शरबत तैयार किया गया था, वह लाजवाब तैयार हुआ.
 
रूहअफजा भारतीय सभ्यता का हिस्सा कहा जाता है. इसका प्रमाण यह है कि हम न केवल रूहअफजा को शरबत के रूप में पीने के लिए उत्सुक रहते हैं, बल्कि कुछ लोग इसे दूध में तीन-चार चम्मच डालकर भी पीते हैं.
 
हम इसके छिड़काव के आदी हो गए हैं. इसे फलों, कस्टर्ड, तरबूज, बर्फ, खीर आदि में भी स्वाद के लिए मिलाते हैं. सभी का मानना है कि एक गिलास बर्फ में रूहअफजा की मौजूदगी ठंडी, सुगंधित, मीठी, स्फूर्तिदायक, शरीर में शांति और शीतलता का एहसास जगाती है.
khandan
खानदान-ए-हमदर्द: दो भाई, तीन देश, एक रूह
   
 
हमदर्द यानी यूनानी. यूनानी यानि हमदर्द. यह छाप कोई सपना नहीं, बल्कि हकीकत है. इस हकीकत के पीछे के दिमाग को दुनिया ‘बड़े हकीम साहब’ यानी हकीम अब्दुल हमीद के नाम से जानती है.
 
एक ऐसा नाम जिसने यूनानी चिकित्सा को नई ऊंचाइयां दीं. वे हर उस क्षेत्र में यूनानी चिकित्सा के प्रति ‘हमदर्द’ बन गए, जिसमें राष्ट्र ने समर्थन या मसीहाई की मांग की.
 
यही कारण है कि आज चिकित्सा, औषधि विज्ञान, यूनानी चिकित्सा के अस्तित्व और विकास शिक्षा, इतिहास और अनुसंधान के क्षेत्र में उनका योगदान एक मीनार की तरह है.
 
 दुनिया हमदर्द को एक संस्था के बजाय एक आंदोलन के रूप में देखती है, जिसमें महान आत्मा एक वास्तुकार के रूप में होती है. हकीम अब्दुल हमीद की सोच किसी दायरे तक सीमित नहीं थी. वे वाणी के नहीं, चरित्र के विजेता थे. कम बात और ज्यादा काम की उनकी नीति ने एक पौधे को घना पेड़ बना दिया. देश और राष्ट्र के लिए, निश्चित रूप से, ‘हमदर्द’ वास्तव में ‘हमदर्द’ के रूप में उभरा.
 
कहा जाता है कि जब देश का बंटवारा हुआ था, तब अफरातफरी मच गई थी. यहां तक कि ‘बड़े हकीम साहब’ के छोटे भाई हकीम मुहम्मद सईद भी पाकिस्तान चले गए थे.
 
भारत के अधिकांश मुस्लिम शिक्षित वर्ग पाकिस्तान चले गए. जब लोग पलायन कर रहे थे, हकीम अब्दुल हमीद शिक्षण संस्थानों के लिए जमीन खरीद रहे थे.
 
प्रख्यात इस्लामी विद्वान और पद्मश्री प्रोफेसर अख्तर लुसा के अनुसार, ‘‘महान हकीम साहब ने देश के विभाजन के बाद वही भूमिका निभाई, जो 1857 के गदर के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने निभाई थी. उन्होंने शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया और एक सिलसिला शुरू किया, जो आज भी उनकी दूरदर्शिता जगजाहिर है.’’
 
देश के बंटवारे से पहले

हकीम अब्दुल मजीद सबसे पहले मसीह-उल-मुल्क हकीम अजमल खान द्वारा स्थापित भारतीय फार्मेसी में कार्यरत थे. वर्ष 1904 में उन्होंने अपने ससुर रहीम बख्श साहिब से कुछ पैसे लिए और हमदर्द नींव शुरू की.
 
उसी समय, उन्होंने जड़ी-बूटियों का व्यापार करना शुरू कर दिया. हाकिम अब्दुल मजीद ने हमदर्द की दुकान चलाने के लिए पौधों से दवा बनाना शुरू किया. उनकी पत्नी राबिया बेगम और उनकी बहन फातिमा बेगम, अब्दुल मजीद के काम में हाथ बटाती थीं. वह पौधों को पत्थर से पीसती थीं और हाथ से गोलियां बनाती थीं.
 
अब्दुल मजीद की मृत्यु के बाद, उनके बेटे हकीम अब्दुल हमीद ने मोर्चा संभाला. जिन्होंने धीरे-धीरे हमदर्द को सिंहासन पर बिठाया.
ruh afza
 
हमदर्दः दो भाई, तीन देश, एक नाम

दरअसल, 1906 में हकीम हाफिज अब्दुल मजीद ने अविभाजित भारत की राजधानी दिल्ली में हमदर्द की स्थापना की थी. संस्थापक की मृत्यु के बाद, उनकी पत्नी राबिया बेगम ने अपने बेटे हकीम अब्दुल हमीद की मदद से व्यवसाय को जीवित रखा.
 
विभाजन के बाद भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ‘हमदर्द’ के नाम से लेकिन ‘रूहआफजा’ के नाम से फलने-फूलने वाला यह पहला विभाजन था. हमदर्द का यह पेय अपने वैभव के कारण पूरी दुनिया में ‘लाल बादशाह’ के नाम से जाना जाने लगा.
 
हालांकि, यह ध्यान देना दिलचस्प है कि जब पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया, तो ढाका हमदर्द का नाम ‘हमदर्द बांग्लादेश’ हो गया. यानी विभाजन के बाद उपमहाद्वीप में हमदर्द कम नहीं हुआ, बल्कि फैल गया.
 
करुणा की भावना

जब हमदर्द की बात आती है, तो सबसे पहला नाम जो दिमाग में आता है, वह है ‘आध्यात्मिकता’. इस तरह संस्थान ने यूनानी चिकित्सा पर अपना काम शुरू किया. उसकी पहचान निश्चित रूप से इसी से प्रेरित थी.
 
दरअसल, जब प्रेरणा के नुस्खे का परीक्षण किया गया, तो क्या देश या दुनिया इसका ‘प्रशंसक’ बन गया? रूहआफजा ने भारत में हकीम अब्दुल हमीद और पाकिस्तान में उनके भाई हकीम मुहम्मद सईद के उत्थान और पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
 
संस्थानों का नेटवर्क

हकीम अब्दुल हमीद साहब ने खुद को दवा तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग मंच बनाए और भाषा से शायरी तक और इतिहास से शोध तक नए विद्वानों के मार्ग प्रशस्त किए.
 
उन्होंने अपनी सेवाओं के लिए एक भी क्षेत्र नहीं चुना, बल्कि जहां कहीं कमी थी और जरूरत पड़ी, उन्होंने ‘आधारशिला’ रखी. आज न सिर्फ बड़ी-बड़ी कंपनियां खड़ी हैं, बल्कि फल-फूल रही हैं.
 
यह यात्रा निश्चित रूप से हमदर्द वक्फ प्रयोगशाला दिल्ली से शुरू हुई. जिसके तहत इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज, इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्ट्री ऑफ मेडिसिन, मेडिकल रिसर्च, हमदर्द कॉलेज ऑफ फार्मेसी, हमदर्द मेडिकल कॉलेज, मजीदिया हॉस्पिटल सहित विभिन्न संस्थानों की स्थापना की गई. जिनके हकीम अब्दुल हमीद मुख्य ट्रस्टी थे.
 
हाकिम अब्दुल हमीद हमदर्द नेशनल फाउंडेशन, गालिब अकादमी, हमदर्द एजुकेशन सोसाइटी, हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च सेंटर के संस्थापक के रूप में भी सक्रिय थे. वह अखिल भारतीय यूनानी चिकित्सा सम्मेलन के अध्यक्ष और यूनानी चिकित्सा में केंद्रीय अनुसंधान परिषद के उपाध्यक्ष भी थे. अल्लाह सर्वशक्तिमान द्वारा हकीम अब्दुल हमीद को कई क्षमताओं का आशीर्वाद दिया गया था. वह कई अकादमिक, साहित्यिक, चिकित्सा और पत्रकारिता के क्षेत्रों में शामिल थे.
 
संस्थानों की स्थापना और रखरखाव

महत्वपूर्ण बात यह है कि हकीम अब्दुल हमीद ने हर क्षेत्र में विकास और उन्नति के लिए संस्थानों की स्थापना की, लेकिन साथ ही उनके स्वास्थ्य और जीवन की व्यवस्था की, ताकि संस्थानों को किसी भी तरह की जरूरत न पड़े. यह उनकी दूरदर्शिता थी, जिसने अनुदान या सहायता की प्रतीक्षा किए बिना अपने समय की संस्थाओं को आगे बढ़ाया.
 
हकीम अब्दुल हमीद के इस गुण के बारे में प्रख्यात विद्वान और पद्मश्री प्रोफेसर अख्तरुल वासे कहते हैं, ‘‘संगठन स्थापित करना उतना मुश्किल नहीं है, जितना कि उसे स्वस्थ और जीवित रखना.
 
हकीम अब्दुल हमीद ने कुछ ऐसा किया, जिससे उनके द्वारा स्थापित संस्था के खर्चों को पूरा करने के लिए उचित व्यवस्था की गई. जब उन्होंने बस्ती हजरत निजामुद्दीन में गालिब के मकबरे से सटी जमीन खरीदी और गालिब अकादमी का निर्माण किया, तो उन्होंने पास की एक इमारत, झा हाउस, जिसमें होटल करीम नेमत भी है, को इसके रखरखाव और कर्मचारियों के वेतन के लिए समर्पित किया. ताकि उसके किराए से अकादमी के अस्तित्व को बनाए रखा जा सके.’’
 
विचार की ऊंचाई

हकीम अब्दुल हमीद खुद को किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रखते थे. अगर वे यूनानी चिकित्सा के विशेषज्ञ थे, तो उन्होंने एलोवेरा को भी स्वीकार कर लिया. जब इतिहास और इस्लाम की बात आती है, तो इसने अंतरधार्मिक ज्ञान और सद्भाव का मार्ग भी प्रशस्त किया.
 
दरअसल, 1963 में हकीम साहब ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज की स्थापना की, जिसके निदेशक स्वर्गीय सैयद ओसाफ अली थे. यह संस्था बाद में जामिया हमदर्द का हिस्सा बन गई.
 
महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका दायरा केवल इस्लामी शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य अंतर्धर्म की शिक्षाओं का अध्ययन करना और सभी धर्मों की समान शिक्षाओं को प्रस्तुत करना था.
 
इतना ही नहीं, 1965 में जब हकीम साहब ने आसिफ अली रोड पर हमदर्द रिसर्च क्लिनिक और नर्सिंग होम खोला, तो इलाज की यूनानी पद्धति के साथ-साथ इलाज की अंग्रेजी पद्धति को भी अपनाया गया. रक्त परीक्षण, बुखार परीक्षण और अन्य परीक्षण अंग्रेजी पद्धति से किए गए.
 
नर्सिंग होम में चिकित्सकों के साथ-साथ एलोपैथी के योग्य डॉक्टरों की सेवाएं भी ली गई.. संसारचंद अलमस्त एक बहुत ही योग्य चिकित्सक थे. जिन्होंने गीता का उर्दू में अनुवाद किया और अपने चाहने वालों को विदेश भेजा.
 
यह नर्सिंग होम बाद में मजीदिया अस्पताल बन गया. सिम्पैथेटिक इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च इसका एक विकसित संस्करण है.
hamdard
शिक्षा के क्षेत्र में

हमदर्द नाम भारत में हर किसी के जीवन में कहीं न कहीं ‘हमदर्द’ की भूमिका निभा रहा है. चूंकि उन्होंने इस संस्था को एक आंदोलन बनाया, इसलिए उसने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.
 
हकीम अब्दुल हमीद की सबसे बड़ी शैक्षिक उपलब्धि निस्संदेह जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय है. वे इसके संस्थापक चांसलर थे. वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी थे और उन्होंने बहुत लोकप्रियता हासिल की.
 
शिक्षा के साथ-साथ रोजगार को भी महत्व दिया गया. उन्होंने रोजगार के लिए कौशल को भी बढ़ावा दिया. शिक्षा के साथ-साथ प्रशिक्षण और तैयारी की व्यवस्था की.
 
इसलिए, इनमें से अधिकांश संस्थान व्यावसायिक शिक्षा पर केंद्रित थे और इस उद्देश्य के लिए एक सहानुभूतिपूर्ण व्यावसायिक रोजगार ब्यूरो की स्थापना की गई थी. हमदर्द कॉलेज ऑफ फार्मेसी, हमदर्द मेडिकल कॉलेज, रफीदा नर्सिंग कॉलेज, हमदर्द स्टडी सर्कल आईएएस कोचिंग के लिए.
 
कुछ विशुद्ध रूप से साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थानों ने भी रोजगार से संबंधित पाठ्यक्रमों की पेशकश की. गालिब अकादमी की तरह, सुलेख, सुलेख, टाइपिंग और कंप्यूटर पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते थे.
 
सिम्पैथेटिक स्टडी सर्कल के तत्वावधान में छात्रों का चयन कर उन्हें आईएएस के लिए तैयार किया गया, उन्हें आवास, भोजन और पुस्तकालय की सुविधा भी प्रदान की गई. जो आईएएस अफसर देने लगा और यह सिलसिला जारी है. शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी महत्वपूर्ण क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां हकीम अब्दुल हमीद का विचार न पहुंचा हो और न उस पर अमल किया गया हो.
 
सादगी का प्रतीक

इसमें कोई शक नहीं है कि अब्दुल हमीद बड़े हकीम साहब की सेवाएं हिमालय जितनी ऊंची हैं, उन्हें इब्न सिना पुरस्कार 1993 (रूस) पद्म श्री पुरस्कार 1995 (भारत) पद्म भूषण पुरस्कार 1991 (भारत) सहित कई सम्मानों से सम्मानित किया गया.
 
दिलचस्प बात यह है कि उन्हें पुरस्कारों में कभी दिलचस्पी नहीं रही. प्रो. अख्तर अल-वासे के अनुसार, वह भाषण के नहीं बल्कि चरित्र के विजेता थे. इसलिए वो अवॉर्ड लेने नहीं गए और न ही किसी पार्टी को संबोधित किया.
 
जामिया हमदर्द में इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर गुलाम याह्या अंजुम कहते हैंः ‘‘महान फकीर की सादगी, वाक्पटुता और प्रज्ञा अद्वितीय थी. वे एक पुरानी फियेट कार में यात्रा करते थे. ड्राइवर ने जब एक महंगी कार की कीमत बताई, तो उन्होंने कहा कि जब सस्ती कार में सफर करना संभव है, तो उसकी क्या जरूरत है?
 
वे एक विपुल लेखक भी थे. उन्होंने थ्योरी एंड फिलॉसॉफर्स ऑफ मेडिसिन 1973, फिलॉसफी ऑफ मेडिकल एंड साइंस 1972, अरब मेडिसिन एंड मॉडर्न मेडिसिन 1977 लिखी. उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में विभिन्न विषयों पर कई किताबें भी लिखी हैं.
 
हकीम साहब के चिराग

स्वर्गीय हाकिम अब्दुल हमीद के दो पुत्र अब्दुल मोईद और हमीद अहमद ने अपने जीवनकाल में ही ‘हमदर्द’ में विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाना शुरू कर दिया था.
ruh
 
अब्दुल मोईदः चिकित्सा के क्षेत्र में नई ऊंचाइयां

अब्दुल मोईद ने भी हमदर्द के कारोबार को नया जीवन देने में अहम भूमिका निभाई. वह विशेष रूप से दुनिया के कोने-कोने में प्रेरणा देने में सफल रहे. स्वर्गीय अब्दुल मुईद का उद्देश्य न केवल यूनानी चिकित्सा प्रणाली को संरक्षित करना था, बल्कि इंटरनेट के प्रसार, एलोपैथी की बढ़ती लोकप्रियता और स्वास्थ्य सेवा में विनिर्माण क्षमताओं के नए युग के बीच पारिवारिक व्यवसाय को जीवित रखना भी था.
 
उनकी मृत्यु के बाद, उनके बेटे अब्दुल मजीद और असद मोईद ने हमदर्द में नवाचार के एक मिशन की शुरुआत की.
 
2005-06 में कारोबार 200 करोड़ रुपये से भी कम था. उसके बाद, स्वर्गीय अब्दुल मोईद ने संगठनात्मक संरचना, बिक्री और वितरण, खर्च आदि के लिए 500 करोड़ रुपये की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन 20-2019 तक यह 700 रुपये तक पहुंच गई. करोड़.
 
हमीद अहमदः शैक्षिक मिशन के नेता

हमदर्द नेशनल फाउंडेशन के संस्थापक सदस्यों में से एक के रूप में, हमीद अहमद अपने साथ असीमित ज्ञान और अनुभव लेकर आए. 50 से अधिक वर्षों के दौरान उन्होंने हमदर्द नेशनल फाउंडेशन को भारत के सबसे सम्मानित चैरिटी में से एक बना दिया है. वह वर्तमान में हमदर्द नेशनल फाउंडेशन (इंडिया) - एचईसीए के अध्यक्ष और हमदर्द नेशनल फाउंडेशन (इंडिया) के सह-अध्यक्ष हैं.
 
हमीद अहमद 1989 में हमदर्द विश्वविद्यालय से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने से पहले से इसमें शामिल थे. इन वर्षों में, उन्होंने विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद, वित्त समिति और कई अन्य सलाहकार निकायों में काम किया है, और जामिया हमदर्द के विकास का नेतृत्व किया है.
 
1973 में हमदर्द लेबोरेटरीज इंडिया में इसके बिक्री और विपणन प्रमुख के रूप में शामिल होने के बाद से, उन्होंने व्यापार के जबरदस्त विकास और हमदर्द के नाम की देखरेख की है, जिसमें उन्होंने खुद को भारत के प्रमुख व्यापारिक नेताओं में से एक के रूप में स्थापित किया है. वह वर्तमान में हमदर्द लेबोरेटरीज इंडिया (फूड्स) के प्रमुख हैं.
 
हमीद अहमद के साथ अब उनके बेटे हामिद अहमद भी हमदर्द से जुड़े हैं. हमदर्द विश्वविद्यालय के चांसलर बनने से पहले वह हमदर्द लैबोरेट्रीज इंडिया-फूड्स डिवीजन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और ट्रस्टी भी थे. इसके अलावा, वह 2017 से हमदर्द नेशनल फाउंडेशन (इंडिया) के सचिव के रूप में कार्यरत हैं.
 
सीमा पारः हकीम मुहम्मद सईद की कहानी

हकीम मोहम्मद सईद बंटवारे के समय बड़ी बेचैनी से पाकिस्तान का रुख कर चुके थे. खाली हाथ और खाली जेब. यह सिर्फ एक कौशल था कि पाकिस्तान जाकर उन्होंने ‘हमदर्द पाकिस्तान’ की स्थापना की. रूहआफजा ने इसे एक नई ऊंचाई देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लंबे संघर्ष के बाद उन्होंने हमदर्द नाम को पाकिस्तान में उतना ही चमकीला बना दिया, जितना भारत में था.
 
हकीम मुहम्मद सईद एक चिकित्सा शोधकर्ता और विद्वान थे. वह 1993 से 1996 तक सिंध प्रांत, पाकिस्तान के गवर्नर थे. वह ओरिएंटल मेडिसिन के क्षेत्र में पाकिस्तान में अग्रणी चिकित्सा शोधकर्ताओं में से एक थे.
 
हकीम मुहम्मद सईद ने चिकित्सा, दर्शन, विज्ञान, स्वास्थ्य, धर्म, भौतिकी, साहित्य, सामाजिक विज्ञान और यात्रा वृत्तांत पर लगभग 200 पुस्तकों का लेखन और संकलन किया.
 
उर्दू में सबसे लोकप्रिय बच्चों की पत्रिका हमदर्द नोनिहाल है, उर्दू में स्वास्थ्य और स्वच्छता पर मासिक पत्रिका हमदर्द स्वास्थ्य है और अंग्रेजी पत्रिका हमदर्द इस्लामी और हमदर्द मेडिक्स है. लेकिन तमाम सेवाओं और विकास कार्यों के बावजूद 17 अक्टूबर 1998 को कराची में हमदर्द लैबोरेट्रीज के प्रवेश द्वार पर हमलावरों ने हकीम सईद की गोली मारकर हत्या कर दी.
 
हैरानी की बात है कि हकीम अब्दुल हमीद ने देश के विभाजन के बाद अपने भाई के सीमा पार करने का आघात सहा था, लेकिन उन्होंने अपनी हत्या के नौ महीने बाद जुलाई 1999 में दिल्ली के अपोलो अस्पताल में अंतिम सांस ली.
 
आज ‘हमदर्द’ उस नींव के कारण अपने मजबूत पैरों पर खड़ा है, जिसमें महान फकीर की दूरदर्शिता, सादगी, विनम्रता, ज्ञान, ईमानदारी और जुनून शामिल है.