हम मस्जिदें तो बनाते हैं, लैब क्यों नहीं ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 19-07-2025
We build mosques, why not labs?
We build mosques, why not labs?

 

अब्दुल्लाह मंसूर

हम मुसलमान अक्सर हैरत में पड़ जाते हैं—यहूदी आखिर इतने आगे कैसे निकल गए? और फिर हम खुद ही सवाल का जवाब भी घुमा-फिरा कर दे देते हैं: अमेरिका उनके साथ है, मीडिया उन्हीं का है, दुनिया उनकी दलाल है.हम बेचारे मज़लूम, साजिशों के शिकार, तस्लीमशुदा बेगुनाह.चलिए मान लिया कि पूरी दुनिया वाकई उनके पीछे खड़ी है, पर क्या कोई कौम सिर्फ साजिशों की बदौलत इतनी ऊँचाई तक पहुँच सकती है?

दुनिया की पूरी आबादी में यहूदियों की गिनती एक कोने जितनी है—कुल 1.5करोड़.लेकिन नोबेल पुरस्कारों की फेहरिस्त में उनकी मौजूदगी इतनी है कि हर कुछ पन्नों बाद उनका नाम टकरा जाता है.विज्ञान, अर्थशास्त्र, दवा, साहित्य—हर दायरे में वे अपने निशान छोड़ चुके हैं.आइंस्टीन, फ्रायड, सॉक, इलियन—इनके नाम याद करते-करते सांस फूलने लगती है, पर इनकी रफ्तार कभी थमी नहीं.

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अब सोचिए, क्या यह सब भी किसी साजिश का हिस्सा था? क्या इन्होंने हर नई चीज़ को “हराम” कहकर नकारा? क्या इन्होंने लड़कियों की पढ़ाई को साजिश बताया? क्या इन्होंने रिसर्च सेंटर की जगह मदरसे और लैब की जगह बहस के अड्डे बनाए ?

नहीं, इन्होंने शिक्षा को हथियार बनाया.ये वही यहूदी थे जिन्हें यूरोप में सदियों सताया गया, जिन्हें हिटलर ने गैस चैंबरों में झोंका, जिन्हें क्रूसेड्स से लेकर होलोकॉस्ट तक बर्बाद किया गया.पर इन्होंने शिकायत की पोटली नहीं उठाई—किताबें उठाईं.उन्हें पता था कि सवाल पूछना फितना नहीं, फर्ज़ होता है.ऐसा नहीं था.यहुदी समाज चांदी का चम्मच मुँह में ले कर पैदा हुआ है.

मध्यकालीन यूरोप में यहूदी समुदाय को ईसा मसीह की मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया, जिससे उनके प्रति गहरा धार्मिक और सामाजिक पूर्वाग्रह पनपा.जैसे ही ईसाई सत्ता में आए, यहूदियों के खिलाफ कठोर कानून बनाए गए.

मध्यकालीन यूरोप में जब उन्हें शहर से बाहर घेटो में धकेला गया, खेती-बाड़ी, व्यापार और सम्मानजनक कामों से दूर किया गया, तब उन्होंने साहूकारी और दस्तकारी जैसे कामों में अपनी जगह बनाई.

ईसाइयों के लिए सूद लेना पाप था, तो यहूदियों के लिए साहूकारी ही बची.नतीजा—लोगों ने इन्हें चालाक, लालची, सिर्फ पैसे वाला समझ लिया.यहूदी बस्तियों में ईसाई अक्सर कर्ज लेने या चुकाने जाते थे, जिससे दोनों समुदायों के बीच तनाव और अविश्वास बढ़ा.

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कई बार, ऋण से छुटकारा पाने या धार्मिक घृणा के चलते यहूदी बस्तियों पर हमले (पोग्रोम) होते थे—घरों को जलाया जाता, लोगों की हत्या की जाती,संपत्ति लूटी जाती थी.ऐसे नरसंहार और हिंसा की घटनाएं यूरोप के विभिन्न हिस्सों में आम थीं, विशेषकर क्रूसेड्स, ब्लैक डेथ, और अन्य संकटों के दौरान.

गिल्ड सिस्टम की वजह से उन्हें मुख्यधारा के व्यवसायों से बाहर रखा गया, लेकिन उन्होंने सुनारगिरी, दर्जीगिरी, इंजीनियरिंग, और विज्ञान जैसे कामों में अपने लिए दरवाज़े खोलने शुरू कर दिए.जब समाज ने दरवाज़े बंद किए, उन्होंने खिड़कियों से रोशनी लेना सीख लिया.यह वही दौर था जब पूरी दुनिया अंधविश्वासों में डूबी थी और यहूदी समाज धीरे-धीरे तर्क और प्रयोग के रस्ते चलने लगा.

फ्रांसीसी क्रांति के बाद जब नागरिक अधिकारों का दौर शुरू हुआ, तो फ्रांस पहला देश बना जिसने यहूदियों को बराबरी दी.इसके बाद ब्रिटेन और जर्मनी ने भी यही किया.सामाजिक भेदभाव खत्म नहीं हुआ, लेकिन कम से कम रास्ते खुले.

यही वो वक्त था जब हस्कला—यहूदी प्रबोधन की शुरुआत हुई.उन्होंने किताबों में सिर्फ दुआएं नहीं, विज्ञान और दर्शन भी पढ़ा.एक दिलचस्प मिसाल लीजिए — 17वीं सदी में बारूच स्पिनोजा महान यहूदी दार्शनिक थे, उन्होंने अपने धर्म की कुछ बातों पर सवाल उठा दिया.बस, फिर क्या था.

उसके अपने ही समाज ने उसे बाहर कर दिया.मगर वही स्पिनोजा आगे चलकर आधुनिक सोच और आलोचनात्मक विवेक का प्रतीक बन गया.और यहूदी समाज? उसने वक्त के साथ यह सीखा कि अगर सवालों को मार दोगे, तो सोच भी मर जाएगी.

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आज वही यहूदी समाज स्पिनोजा के नाम पर रिसर्च फंड देता है, पुरस्कार देता है.कहता है — “हमसे चूक हुई थी.” क्या हमने कभी ऐसा कहा? सवाल पूछने वालों को तो हम सूली पर लटका देते हैं.

अब एक दूसरा महत्वपूर्ण सवाल पूछते हैं.मुस्लिम समाज में वैज्ञानिक सोच (साइंटिफिक फिक्र) क्यों नहीं विकसित हो पाई और इस्लामी दुनिया में साइंस का बड़ा इंकलाब क्यों नहीं आया. इस सवाल के कई पहलू हैं.

इतिहास गवाह है कि शुरुआती दौर में मुस्लिम समाज ने विज्ञान, गणित, चिकित्सा, खगोलशास्त्र और दर्शन में बहुत तरक्की की थी.बगदाद का 'बैतुल हिक्मा' (ज्ञान का घर) दुनियाभर के विद्वानों का केंद्र था.लेकिन यह सुनहरा दौर तेरहवीं सदी के बाद धीरे-धीरे खत्म होने लगा.

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सोच और नजरिए में आया बदलाव था.मुस्लिम समाज में धीरे-धीरे किस्मत और तकदीर पर विश्वास बढ़ गया.'अशअरी' विचारधारा ने यह मानना शुरू किया कि दुनिया में जो कुछ भी होता है, वह सीधे अल्लाह की मर्जी से होता.

इंसान का उसमें कोई खास दखल नहीं.इस सोच ने कारण और परिणाम (काज एंड इफेक्ट) की वैज्ञानिक समझ को कमजोर कर दिया.जब समाज में यह मान्यता हो जाए कि सब कुछ ऊपर वाले की मर्जी से होता है, तो लोग प्रकृति के नियमों और विज्ञान की खोज में कम रुचि लेते हैं.इससे जिज्ञासा, कल्पना और खोज की भावना कम होती चली गई.

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शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव आया.ज्यादातर ध्यान धार्मिक शिक्षा पर केंद्रित हो गया और विज्ञान, गणित जैसे विषयों को कम महत्व दिया गया.इससे बच्चों में वैज्ञानिक सोच और तर्कशक्ति का विकास नहीं हो पाया.आगे चलकर जब यूरोप में विज्ञान और तकनीक का विकास हो रहा था, मुस्लिम समाज में शिक्षा का स्तर गिरता गया और वैज्ञानिक सोच पिछड़ती गई.

राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं की भूमिका भी अहम रही.मुस्लिम देशों में राजशाही और धार्मिक नेताओं का गठजोड़ बना रहा, जिससे खुलकर सोचने और नए विचारों को अपनाने की आजादी नहीं मिली.जब किसी समाज में सवाल पूछने, प्रयोग करने और नए विचारों को आजमाने की छूट नहीं होती, तो वहां विज्ञान और नई खोजें आगे नहीं बढ़ पातीं.

फिर ये हुआ कि हमारे यहाँ सवाल पूछने ईमान का दुश्मन बना दिया गया.। कोई बच्चा पूछ बैठे कि "हज़रत खदीजा र.अ. तो तिज़ारत करती थीं, तो हमारी बहनों को दफ्तर जाने से क्यों रोका जाता है?" — जवाब में या तो नाराज़गी मिलती है या फतवा.

आज भी छोटे शहरों में लड़की कॉलेज जाना चाहे तो घर में बवाल.अगर बैंक में नौकरी कर ले तो इस्लाम खतरे में पड़ जाता है.सूद हराम है.  मुस्लिम समाज में शिक्षा को लेकर सोच है कि दुनिया इम्तिहान है.

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असली ठिकाना आखिरत.इसलिए पारंपरिक पढ़ाई, धार्मिक मूल्य, और विज्ञान-तकनीक से दूरी.मोबाइल, इंटरनेट, नई तकनीक पर शक—बच्चों की डिजिटल समझ वहीं की वहीं.मुझे याद है 90-2000के दशक तक मुस्लिम समाज अपने घरों में टेलीविजन नहीं लगाते थे.

दूसरी तरफ, यहूदी समाज में शिक्षा का मतलब सिर्फ रट्टा नहीं, बल्कि सोचने की कला है.तर्क, प्रयोग और आधुनिक विज्ञान वहां स्कूलों का हिस्सा हैं.इज़राइल का एक बच्चा साइबर सिक्योरिटी और रोबोटिक्स पर प्रोजेक्ट बना रहा होता है, और हमारे यहाँ इसी उम्र का बच्चा ‘डिजिटल तस्बीह’ ढूंढ़ रहा होता है.

यहूदी समाज की नजर में बच्चे भविष्य की पूंजी हैं, और हमारे समाज में उन्हें बस जल्दी निकाह की जिम्मेदारी बना दिया जाता है.यहां “बेटियों को बाहर भेज कर पढ़ाओ” कहना यहूदी साज़िश बताई जाती है.

शादी की उम्र 18साल तय करने की बात आए तो “शरीअत में दखल” का हल्ला मचता है जैसा अभी पाकिस्तान में हो रहा है.धर्मनिरपेक्षता हमारे समाज में गाली बन गई है.दुनिया क्वांटम कंप्यूटिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग पर काम कर रही है, और हम अभी भी मुशवरा कर रहे हैं कि मोबाइल ऐप्स हलाल हैं या हराम। बेटियों को मोबाइल देना चाहिए या नहीं.

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इज़राइल के बायकॉट की बात खूब होती है.मगर बायकॉट तब असर करता है जब आपके पास खुद का विकल्प हो.आप उनकी तकनीक, दवाइयां, सॉफ्टवेयर का बायकॉट कर सकते हैं—अगर आपके पास खुद की लैब, रिसर्च सेंटर, यूनिवर्सिटी हो.we can't boycott what we can't build. वरना ये वैसा है जैसे खाली जेब वाला कहे—“मैं अम्बानी के माल में नहीं जाऊँगा.”

पिछले पचास सालों में हमने कितनी ऐसी यूनिवर्सिटियां बनाई हैं जिनकी चर्चा न्यूयॉर्क टाइम्स या साइंस जर्नल में हो? कोई ऐसा मदरसा जिसमें बच्चा फिक़्ह भी पढ़े और फिजिक्स भी? मस्जिदें बनाई हैं—अच्छी बात है—पर उनके साथ एक विज्ञान-प्रयोगशाला होती, तो और बेहतर होता.

दीन और दुनिया में टकराव नहीं, तालमेल होता.उल्टा यह हुआ कि जब पश्चिमी दुनिया में औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक खोजें हो रही थीं, मुस्लिम समाज ने उन्हें अपनाने में देर कर दी.जब यूरोप वाले विज्ञान की रेलगाड़ी पर सवार होकर आगे बढ़ रहे थे, मुस्लिम समाज अपने पुराने खच्चर पर बैठा सोच रहा था—"हमारे पास भी कभी अरबी घोड़ा था." छपाई की मशीन आई तो उसे अपनाने से भी डर गए—कहीं कुरान छप गई तो पवित्रता कम न हो जाए.ज्ञान का प्रसार तो दूर, किताबें छापना भी गुनाह बन गया.

सुधार का मतलब मज़हब छोड़ना नहीं, बल्कि उसे बेहतर समझना है.अल्लाह ने अक्ल दी है, सोचने की ताकत दी है—क्या उसे इस्तेमाल न करना शुक्रगुज़ारी है? हम कहते हैं कि हम पसमांदा हैं, मगर जिम्मेदारी किसकी है?

सिर्फ अमरीका, इज़राइल, यहूदियों की? या हमारी खुद की सुस्ती, बंद सोच, हर बात को 'फितना' कहकर टालने की आदत?धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इस्लाम में ज्ञान को महत्व दिया गया है, लेकिन व्यावहारिक रूप में धार्मिक संस्थाओं और समाज ने वैज्ञानिक सोच को हमेशा खुलकर बढ़ावा नहीं दिया.

कई बार धार्मिक मान्यताएं और परंपराएं विज्ञान के रास्ते में रुकावट बन गईं.अगर वाकई चाहते हैं कि हमारी बेटियाँ स्कूल जाएँ, हमारे बच्चे लैब में काम करें, और मस्जिदों से कुरआन की तिलावत के साथ वैज्ञानिक चेतना भी निकले—तो बदलाव खुद से शुरू करना होगा.नारों से नहीं, विकल्पों से.घबराने से नहीं, सोचने से.और हर विरोध की जगह समाधान गढ़ने से.

अब बात पसमांदा की—मेरे मोहल्ले की चाय परचून से लेकर फेसबुक के “जिहादी तलवार” इमोजी तक, हर जगह वही पुराना फॉर्मूला चलता है—अपनी बिरादरी की चोट को “उम्मत का ज़ख्म” बना दो.

कॉलेज में सैयद साहब के बेटे को सीट न मिले तो “इस्लाम खतरे में”, शेख साहब का ठेका छिने तो “मुसलमानों पर जुल्म.” और जब कोई पसमांदा पूछे—“हमारा नेता कब?”—तो फौरन फतवा—“फसाद मत फैलाओ, एकता का वक्त है.”

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हमसे ही पूछा जाता है तो बताओ तुमने 50साल में क्या किया अरे भाई सत्ता तुम्हारे हाथ में थी, वह भी 800सालों से हम तो तुम्हारी प्रजा कौमे थी तो अब तुम बताओ कि तुमने क्या किया हम इस गलाज़त में क्यों है?

आज़ादी के बाद भी मुस्लिम नाम से तुमने मलाई खाई है और जवाब पसमांदा दे?  सदियों से लीडरशिप, माइक, माला उन्हीं ऐशो-आराम वालों के पास.करघा बुनना, मजदूरी, रिक्शा चलाना—सब हमने किया; पर “कौमी प्रतिनिधि” चुनना हो तो वही ऊँची टोपी वाले आगे.कमेटी में सारे सैयद, मस्जिद में फकत जुम्मन.

इन अशरफ साहबान ने “जज़्बाती नारों का डिजिटल पैकेज” भी तैयार कर लिया है—खिलाफ़त का हवाला, अल-अक़्सा पर आंसू, पर पसमांदा बच्चों की स्कूल-फीस पूछो तो माइक खामोश.कुर्सी, सम्मेलन, सरकारी अनुदान बंटे—पीछे से धक्का देकर हम ही को आगे दिखा देंगे—“देखो, सबसे गरीब ये हैं.”

शासन वही, दस्तख़त वही, जवाब देते वक्त पूछेंगे—“तुम पसमांदा ने कौम के लिए क्या किया?” जनाब, हमने आपके महल के पत्थर ढोए, खेत जोते, शहर बसाए.अब सवाल हमारा—सत्ता तुम्हारी, जिम्मेदारी भी तुम्हारी.

अगली बार जब टीवी-स्टूडियो या मस्जिद के लाउडस्पीकर से “उम्मत बचाओ” का सायरन बजे, तो पहले बता दीजिए कि पसमांदा की जमीन, रोज़गार, इज़्ज़त बचाने के लिए आपकी स्क्रिप्ट में कौन-सी हकीमी दवा है.अगर सिर्फ आँसू-एंड-आयत पैकेज है, तो हुज़ूर, वह दुकान बंद कीजिए और जगह हमें दीजिए—हम अपने पसीने से नया कोड लिखेंगे, जिसमें बराबरी का पासवर्ड भी होगा और हिसाब-किताब का लॉगिन भी.

( लेखक पसमांदा चिंतक हैं )