गुलाम कादिर के दिए से आज कश्मीरी पंडितों के घर होंगे रौशन

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 03-11-2021
गुलाम कादिर
गुलाम कादिर

 

रिजवान शफी वानी / श्रीनगर

मिट्टी के घड़े के बिना दिवाली का त्योहार अधूरा सा लगता है. आज भी हर जगह कश्मीरी मिट्टी के घड़े और दियों की मांग है. जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के क्रालपुरा इलाके के रहने वाले गुलाम कादिर कुमार इन दिनों मिट्टी के बर्तन और दिए बनाने में लगे हैं.

गुलाम कादिर कुमार हिंदुओं के सबसे बड़े त्योहार दिवाली पर मिट्टी के घड़े बनाकर शांति और भाईचारे का संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं. यह काम उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिला है. पिछले 50सालों से वे मिट्टी के बर्तन और दिए बना रहे हैं, जिसे भक्त बड़े उत्साह से खरीदते हैं.

गुलाम कादिर कुमार उन्हें हर साल की तरह बनाकर बेचने की कोशिश कर रहे हैं.

एक समय था, जब गुलाम कादिर कुमार दिवाली से पहले हजारों मिट्टी के बर्तन बनाया करते थे. उनके द्वारा हजारों घरों को रौशन किया गया था. हालांकि, कई सालों से वे अंधेरे में खोए हुए हैं.

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गुलाम कादिर मिट्टी के दिए बनाते हुए  


गुलाम कादिर कुमार का कहना है कि श्रीनगर के अधिकांश मंदिरों को उनके द्वारा बनाए गए हस्तशिल्प से सजाया गया था. लेकिन अब तकनीक के इस युग में चीनी मिट्टी के बर्तनों की मांग कम हो गई है.

उन्होंने कहा, ‘मैं अब 70का हूं. आज से 50साल पहले जब मैंने यह काम शुरू किया था, तो श्रीनगर में आबादी कम थी और मैं दिवाली से एक हफ्ते पहले पंडित समुदाय के घरों में जाकर उन्हें बेच देता था. उन्होंने मेरे साथ बहुत सम्मान और आतिथ्य का व्यवहार किया. गुलाम कादिर ने कहा कि दिवाली पर लोग एक-दूसरे के घर मिठाई और तोहफे लेकर जाते हैं और त्योहार की बधाई देते हैं.’

गुलाम कादिर कहते हैं कि दिवाली पर मुझे पंडित समुदाय के लोग बुलाते थे, लेकिन मैं अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण नहीं जा पाता था. वे मेरे लिए मिठाइयां रखते थे और जब भी मैं उनके पास दोबारा जाता, तो वे मुझे मेरा हिस्सा देते थे.’

उन्होंने कहा, ‘1990के दशक में सब कुछ बदल गया, जब चीजें बदतर हो गईं.’ आधुनिक बाजारों में इलेक्ट्रॉनिक तामझाम, लैंप और लाइटें आसानी से उपलब्ध हैं. यहां के लोग अपने घरों को चाइनीज लाइट से भी सजाते हैं, जिसका असर कुम्हारों पर पड़ा है.’

गुलाम कादिर मिट्टी के बर्तनों के अलावा मिट्टी के बर्तन और रोजमर्रा की अन्य चीजें भी बनाते हैं. उनका कहना है कि मिट्टी के बर्तनों की मांग बहुत कम है. मिट्टी के बर्तन और मिट्टी के दिए बनाने में बहुत मेहनत लगती है. यह धंधा प्रभावित हुआ है. उन्हें डर है कि कहीं ये कुटीर उद्योग खत्म तो नहीं हो जाएगा.

कश्मीर की युवा पीढ़ी को अब इस काम में कोई दिलचस्पी नहीं है. नई पीढ़ी अन्य नौकरियों की तलाश में है.

गुलाम कादिर कुमार के काम की तारीफ करते हुए एक स्थानीय पंडित ने कहा कि गुलाम कादिर कुमार ने मिट्टी के बर्तन बनाने की परंपरा को न सिर्फ जिंदा रखा हुआ है, बल्कि त्योहारों को धर्म के तराजू पर तौलने वालों के लिए एक मिसाल कायम की.

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संस्कृति के सेतु हैं गुलाम कादिर 

उन्होंने कहा, ‘हमारे देश में दिवाली पर मिट्टी के दीपक का उपयोग करने की परंपरा है. हमारे पूर्वज मिट्टी के दियों का प्रयोग करते थे. चाइनीज लाइट की प्रचुरता के कारण लोग बाजार में आ रहे हैं.

कोरोना वायरस से हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है, वहीं मिट्टी के बर्तनों का कारोबार भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है. दीपावली हम सबके लिए है. इसलिए मेरी सभी से अपील है कि दिवाली के अवसर पर मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करें, ताकि इन कुम्हारों के घरों में रोशनी की जा सके.

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि दीवाली एक प्राचीन त्योहार है, जो मॉरीशस, श्रीलंका, म्यांमार, मलेशिया, सिंगापुर, नेपाल और फिजी सहित दुनिया के कई देशों में बहुत धूमधाम और समारोह के साथ मनाया जाता है.

इस पर्व को निराशा पर आशा की जीत का प्रतीक माना जाता है. त्योहार की तैयारी 9 दिन पहले से शुरू हो जाती है और अन्य अनुष्ठान अगले 5 दिनों तक जारी रहते हैं. मूल त्योहार अमावस्या की रात को मनाया जाता है.