क़मर जलालाबादी अपने नाम के ही मुताबिक हिंदी फिल्मी आकाश के ‘क़मर’ थे. ऐसे चांद, जिनके गानों से दिल आज भी मुनव्वर होते हैं. पूरी चार दहाई तक उनका फिल्मों से वास्ता रहा और इस दौरान उन्होंने अपने चाहने वालों को अनेक सदाबहार, मदहोश कर देने वाले नग़मे दिए.
वह किस अंदाज़ के नग़मा निगार थे, इसके लिए सिर्फ एक छोटी सी मिसाल काफ़ी है. फ़िल्म ’हावड़ा ब्रिज’ के मस्ती और शोख़ी भरे गीत ‘मेरा नाम चिन चिन चूं’ और ‘आइये मेहरबां बैठिये जाने जां, शौक़ से लीजिए जी इश्क के इम्तिहां’ उन्हीं की बेजोड़ कलम से निकले थे.
सूबा पंजाब में अमृतसर के पास एक छोटे से कस्बे ’जलालाबाद’ में जन्मे क़मर जलालाबादी का असल नाम ओम प्रकाश भण्डारी था. शायरी से मुहब्बत ने उन्हें ‘क़मर’ जलालाबादी बना दिया. साल 1942 में मशहूर ड्रामा-निगार सैयद इम्तियाज अली ’ताज’ की सिफ़ारिश पर उन्हें पंचोली पिक्चर्स की फिल्म ’ज़मींदार’ में गीत लिखने का मौक़ा मिला. इस फिल्म के संगीतकार साहिब-ए-फ़न गुलाम हैदर थे. ’ज़मींदार’ के सभी गाने हिट हुए. ख़ास तौर पर शमशाद बेगम द्वारा गाया गीत ‘‘दुनिया में गरीबों को आराम नहीं मिलता’’. इस फिल्म की कामयाबी से ‘क़मर’ जलालाबादी को ‘प्रभात’ फिल्म कंपनी, पूना में काम मिल गया.
‘प्रभात पिक्चर्स’ के साथ उन्होंने फिल्म ‘चांद’ साइन की. इस फिल्म के मौसिकार हुस्नलाल भगतराम थे. इत्तेफ़ाक से ‘चांद’ उनकी भी पहली फिल्म थी. इस फिल्म के गाने भी ख़ूब मक़बूल हुए. ‘‘दो दिलों को यह दुनिया मिलने नहीं देती’’ गाने ने खूब धूम मचाई. ‘चांद’ के बाद प्रभात स्टुडियो की ‘गोकुल’, ‘रामशास्त्री’ और ‘गोकुल’ के गाने भी ‘क़मर’ जलालाबादी ने लिखे. फिल्म ‘गोकुल’ ने सिल्बर जुबली मनाई.
फिल्म ‘गोकुल’ के गानों की कामयाबी ने ‘क़मर’ जलालाबादी के लिए मुंबई की राह आसान कर दी. साल 1946 में वे मायानगरी मुंबई पहुंच गए. पहुंचते ही उन्हें फिल्म ‘प्यार की जीत’, ‘शहीद’ और ‘शबनम’ फिल्मों में गाने लिखने का मौका मिल गया. साल 1948-49 में रिलीज हुई, ये तीनों ही फिल्में सुपर हिट रहीं और गानों ने भी पूरे देश में धूम मचा दी.
गानों की लोकप्रियता का आलम यह था कि ‘‘इक दिल के टुकड़े हज़ार हुए’’, ‘‘इतने दूर हैं हुज़ूर’’, ‘‘ओ दूर जाने वाले, वादा न भूल जाना’’ (फिल्म-प्यार की जीत), ‘‘बदनाम न हो जाए मुहब्बत का फ़साना’’ (फिल्म-शहीद), ‘‘तुम्हारे लिए हुए बदनाम’’, ‘‘किस्मत में बिछड़ना था’’ (फिल्म-शबनम) उस वक्त गली-गली में गूंजे. इन फिल्मों की कामयाबी ने ‘क़मर’ जलालाबादी को फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया.
उनके पास फिल्मों में गाने लिखने के लिए लाइन लग गई. काम की मसरूफ़ियत कुछ इस क़दर थी कि निर्माता-निर्देशक राज कपूर को भी उन्हें इंकार करना पड़ा. अलबत्ता बाद में उन्होंने राज कपूर की फिल्म ‘छलिया’ के गाने लिखे. जो बेहद मक़बूल हुए. फिल्म का शीर्षक गीत ‘छलिया मेरा नाम..’ के अलावा ‘डम डम डीगा डीगा’ और ‘तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के’ जैसे गानों ने फिल्मी दुनिया में क़मर जलालाबादी का स्टारडम और बढ़ा दिया.
साल 1958 में आई उनकी फिल्म ‘फ़ागुन’ के भी सभी गाने सुपर हिट हुए. ‘हावड़ा ब्रिज’ के गानों की तरह मौसिकार ओपी नैय्यर और कमर जलालाबादी की जोड़ी ने इस फिल्म में भी अपने गीत-संगीत का जादू जगाया. ख़ास तौर पर फिल्म ‘फागुन’ के ‘‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया’’, ‘‘मैं सोया अख़ियां मीचे, तेरी जुल्फ़ों के नीचे’’ और ‘‘पिया-पिया न लागे मोरा ज़िया’’ गाने खूब चले.
क़मर जलालाबादी ने यूं तो फिल्म की सिचुएशन और ज़रूरत के मुताबिक हर रंग, अंदाज़ के गीत लिखे, लेकिन महबूब की जुदाई और ग़म-उदासी में डूबे नग़मे लिखने में उनका कोई जवाब नहीं था. इंसानी जज़्बात को वे अपने नग़मों में इस ख़ूबसूरती से पिरोते कि सबको भा जाता था. आम ज़बान में लिखे उनके गीतों में ज़िंदगी के गहरे मायने छिपे रहते थे. ‘‘दोनों ने किया था प्यार मगर’’ (फिल्म-महुआ), ’‘मैं तो एक ख़्वाब हूं’’ (फिल्म-हिमालय की गोद में), ‘‘दीवानों से यह मत पूछो’’ (फिल्म-उपकार), ‘‘मैं कैसे कहूं टूटे हुए दिल की कहानी’’ (फिल्म-नरग़िस), ‘‘कोई दुनिया में हमारी तरह बर्बाद न हो’’ (फिल्म-प्यार की जीत), ‘‘मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो’’ (फिल्म-छलिया), ‘‘फिर तुम्हारी याद आई ए सनम’’ (फिल्म-रुस्तम सोहराब), ''मुहब्बत ज़िंदा रहती है, मुहब्बत मर नहीं सकती''(फिल्म-चंगेज़ ख़ान).
फिल्मी दुनिया में गीतकारों को ज़िंदगी के हर रंग, मनो भाव के लिए गीत लिखने होते हैं. उनमें कोई-कोई गीत ऐसा बन जाता है, जो अपनी भाषा और भाव से हमेशा के लिए अमर हो जाता है. कमर जलालाबादी ने ऐसा ही एक गीत फ़िल्म ’पहली तारीख़’ के लिए लिखा था. संगीतकार सुधीर फड़के के संगीत निर्देशन में गायक किशोर कुमार ने क़मर जलालाबादी के लिखे मस्ती भरे बोलों ‘‘दिन है सुहाना आज पहली तारीख़ है, ख़ुश है ज़माना आज..’’ को उसी मस्ती और चुहल भरे अंदाज़ में गाकर इस गीत को अमर बना दिया. यह गाना देश के मिडिल क्लास के जज़्बात, उम्मीद और आने वाले कल की आशंकाओं की नुमाइंदगी करता है.
आम अवाम में गाने की इस क़दर मक़बूलियत थी कि रेडियो सीलोन हर महीने की पहली तारीख़ को इसे रेगूलर बजाता था. कई दशकों तक यह सिलसिला चलता रहा. किसी भी गाने के लिए यह मर्तबा कोई छोटी बात नहीं. साल 1954 में फिल्म ‘पहली तारीख़’ आई थी. सात दशक होने को आए, मगर इस गाने के टक्कर का कोई दूसरा गाना नहीं आया.
क़मर जलालाबादी ने अपने लंबे करियर में कई होनहार संगीतकारों के साथ काम किया और एक गीतकार के तौर पर अनेक न भुलाए जाने वाले गाने हिंदी सिनेमा को दिये. क़मर जलालाबादी के साथ हुस्नलाल भगतराम और ओपी नैय्यर की अच्छी ट्यूनिंग थी.
उनके गानों पर ओपी नैय्यर मिनिटों में धुन बना देते थे. बाद मे संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के साथ भी उन्होंने एक लंबी पारी खेली. फ़िल्म ’छलिया’ की कामयाबी के बाद इस तिकड़ी ने एक के बाद एक सुपर हिट फिल्में दी. ‘पासपोर्ट’, ‘जौहर महमूद इन गोवा’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘दिल ने पुकारा’, ‘उपकार’, ‘सुहागरात’, ‘हसीना मान जाएगी’, ‘आंसू और मुस्कान’, ‘होली आई रे’, ‘घर घर की कहानी’, ‘सच्चा झूठा’, ‘पारस’ और ‘एक हसीना दो दीवाने’ वे फिल्में हैं, जिनके गाने आज भी पसंद किए जाते हैं. क़मर जलालाबादी ने अपने समय के तक़रीबन सभी टॉप सिंगरों के साथ काम किया. यही नहीं एसडी बर्मन, सरदार मलिक, हेमंत कुमार आदि संगीतकारों ने भी उनके गीतों को अपनी आवाज़ दी.
क़मर जलालाबादी की फिल्मों में मक़बूलियत की वजह यदि जानें, तो उनकी गीतों की सादा ज़बान है. अपने गीतों में वे हिंदी, उर्दू के ऐसे आसान अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल करते थे, जिन्हें आम आदमी भी आसानी से समझ लेता था. यही नहीं उनके नग़मों में ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और तर्ज़ुबा भी झलकता था. क़मर जलालाबादी ने गीतों के अलावा करीब डेढ़ सौ से ज्यादा फिल्मों में कहानियां, स्क्रीन प्ले और संवाद भी लिखे. इनमें से कुछ अहम फिल्मों के नाम हैं, ‘फागुन’, ‘आंसू’, ‘मुनीम जी’, ‘उजाला’, ‘ताजमहल’ और ‘छोटी भाभी’ आदि. फिल्म ‘छोटी भाभी’ के तो वे निर्माता भी थे. क़मर जलालाबादी ‘फ़िल्म राइटर एसोसिएशन’ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे.
’रश्क-ए-क़मर’ क़मर जलालाबादी की गैर फिल्मी ग़ज़लों का मज़मुआ है. इस मज़मुए में उनकी एक से बढ़कर एक लाजवाब ग़ज़लें शामिल हैं. ‘‘मत करो यारों इधर और उधर की बातें/कर सको तुम तो करो रश्क-ए-क़मर की बातें.’’, ‘‘इक हसीन ला-जवाब देखा है/रात को आफ़्ताब देखा है/नर्गिसी आँख ज़ुल्फ़ शब-रंगी/बादलों का जवाब देखा है.’’, ‘‘छोटी सी बे-रुख़ी पे शिकायत की बात है/और वो भी इसलिए कि मोहब्बत की बात है.’’ 9 जनवरी, 2003 को क़मर जलालाबादी इस दुनिया को यह कहकर अलविदा कह गए,‘‘शेर-ओ-सुखन की ख़ूब सजाऊंगा महफ़िलें/दुनिया में होगा नाम मगर, उसके बाद क्या/.....इक रोज़ मौत जीस्त का दर खटखटाएगी/बुझ जाएगा चिराग-ए-‘क़मर’, उसके बाद क्या/उठी थी ख़ाक, ख़ाक से मिल जाएगी वहीं/फिर उसके बाद किसको ख़बर, उसके बाद क्या.’’ इस ग़ज़ल की चंद लाइनों में उन्होंने जैसे ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयां कर दिया है. ये फ़लसफ़ा, ये गहरी सोच एक मुद्दत के तजुर्बे से हासिल होती है.
क़मर जलालाबादी ने दुनिया की पाठशाला से जो कुछ भी सीखा, वह अपने चाहने वालों को ग़ज़लों, नग़मों के मार्फ़त वापस लौटाया.