माँ की आवाज़: ऑटिज्म बच्चों के लिए बेहतर सुविधाएं क्यों जरूरी हैं?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 31-05-2025
Maa Ki Aawaz: Why are better facilities needed for autistic children?
Maa Ki Aawaz: Why are better facilities needed for autistic children?

 

एक स्पेशल चाइल्ड की मां की डायरी - अंतिम भाग

अगर मातृत्व ने मुझे कुछ सिखाया है, तो वह है—संघर्ष करना.लेकिन यह संघर्ष मुट्ठियों से नहीं, बल्कि शब्दों से, पत्रों से, अपॉइंटमेंट्स, आवेदन पत्रों और अथक प्रयासों से होता है.कभी नहीं सोचा था कि एक न्यूरोडायवर्जेंट बच्चे की माँ बनना, एक आंशिक शोधकर्ता, थैरेपिस्ट, समन्वयक और नीति विशेषज्ञ बनने जैसा होगा.मगर मैं यही कर रही हूँ.

जब तक्ष को ऑटिज़्म का निदान मिला, मैंने सरकार से कोई चमत्कार की अपेक्षा नहीं की थी.लेकिन यह ज़रूर सोचा था कि एक स्पष्ट ढांचा मिलेगा, थोड़ी समझदारी मिलेगी, और सबसे ज़रूरी—सहारा मिलेगा.लेकिन जो मिला, वो था भ्रम, असंगति और एक ऐसा तंत्र, जिसकी आँखें आज भी ऑटिज़्म को पूरी तरह पहचान नहीं पाई हैं.

हाँ, दिल्ली में कुछ प्रगति हुई है.सरकारी अस्पतालों में विकासात्मक आकलन (developmental assessments) होते हैं.कुछ सरकारी स्कूल "कागज़ों पर" समावेशी (inclusive) हैं.RPWD (दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम) के अंतर्गत अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं.लेकिन नीति और व्यवहार के बीच की खाई आज भी दिल तोड़ देने वाली है.

कुछ चुनौतियाँ आपके साथ साझा करना चाहती हूँ—जो हम झेल चुके हैं और अब भी झेल रहे हैं:

निदान में देरी

सरकारी अस्पतालों में अत्यधिक भीड़ होती है.एक सही विकासात्मक आकलन के लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ता है.और जब तक आधिकारिक निदान नहीं मिलता, तब तक थेरेपी, विशेष स्कूल या किसी भी सरकारी सहायता तक पहुँच नहीं हो पाती.

मैंने निजी केंद्र में जाँच करवा ली, लेकिन जो यह नहीं कर सकते, उनका क्या? यह देरी अक्सर कीमती महीनों—यहाँ तक कि वर्षों—को छीन लेती है, जबकि यही समय सबसे प्रभावी हस्तक्षेप के लिए ज़रूरी होता है.

थेरेपी की कमी

निदान के बाद भी, सरकारी सहायता प्राप्त थैरेपी (जैसे स्पीच, ऑक्यूपेशनल या ABA थेरेपी) का मिलना बेहद मुश्किल है.सरकारी सुविधाएँ संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं.हमें निजी केंद्रों पर निर्भर रहना पड़ा, जो बेहद महंगे हैं—और अधिकतर परिवारों की पहुँच से बाहर.विकासात्मक स्थिति के लिए इतनी बुनियादी चीज़ “लक्ज़री” क्यों बन गई है?

विकलांगता प्रमाण पत्र की जटिलता

इस प्रक्रिया में कई चरण होते हैं—अस्पताल के रेफरल, लंबा कागज़ी काम, कतारें, बार-बार मूल्यांकन.और जब अंत में प्रमाणपत्र मिलता है, तो भी कई लोग नहीं समझते कि ऑटिज़्म एक स्थिर विकलांगता नहीं है.यह एक स्पेक्ट्रम है, जिसमें उतार-चढ़ाव होते हैं.मगर हमारी प्रणाली एक "निश्चित प्रतिशत" चाहती है—जैसे हमारे बच्चों की क्षमताओं को अंकों में बाँधा जा सकता है.

स्कूलों की चुप्पी

मुख्यधारा के स्कूल समावेशी होने का दावा करते हैं, लेकिन व्यवहार में वे प्रशिक्षित नहीं हैं.विशेष शिक्षकों की संख्या बेहद कम है. ढांचा अधूरा है.सबसे दुखद—कई शिक्षक अब भी ऑटिज़्म को “मानसिक मंदता” समझते हैं.यह अज्ञानता न केवल दर्दनाक है—बल्कि खतरनाक भी है.

सरकार से मेरी अपील – दिल से निकली रचनात्मक बातें

 हर ज़िले में ऑटिज़्म के लिए अर्ली इंटरवेंशन सेंटर बनाएं

जहाँ सिर्फ निदान नहीं, बल्कि ठोस समर्थन मिले.एक ही छत के नीचे स्पीच, ऑक्यूपेशनल और बिहेवियरल थैरेपी उपलब्ध हो.ये केंद्र हर शहर और कस्बे में हों, जहाँ प्रशिक्षित विशेषज्ञ बच्चों और परिवारों का मार्गदर्शन करें.

हमारे बच्चों को सहयोग देने वालों में निवेश करें

हमारे पास विकासात्मक बाल रोग विशेषज्ञों, स्पीच थेरेपिस्ट्स, OT और विशेष शिक्षकों की भारी कमी है.अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम, प्रमाणन पाठ्यक्रम और सरकारी नियुक्तियाँ शुरू की जाएँ.

lady विकलांगता प्रमाण पत्र की प्रक्रिया को सरल और संवेदनशील बनाएं

यह प्रक्रिया ऑनलाइन, ट्रैक योग्य हो और इसमें मानवीय दृष्टिकोण हो.अधिकारियों को यह सिखाया जाए कि ऑटिज़्म हमेशा दिखाई नहीं देता.सिर्फ इसलिए कि बच्चा “सामान्य” दिखता है. इसका मतलब यह नहीं कि उसकी चुनौतियाँ नहीं हैं.

समावेशी शिक्षा को वास्तव में समावेशी बनाएं.

बच्चे को सिर्फ कक्षा में बैठा देने से समावेश नहीं होता.उसे सीखने और बढ़ने का वातावरण चाहिए.सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में विशेष शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए.शिक्षकों को प्रशिक्षित करें, RPWD अधिनियम को कड़ाई से लागू करें.समावेश ऐसा हो कि बच्चों को स्थल नहीं, स्वीकृति महसूस हो.

 समाज में जागरूकता फैलाएँ—खुलेआम, स्पष्ट रूप से

ऑटिज़्म अब भी कई समुदायों में गलतफहमी और डर का विषय है.हमें राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियान चाहिए—गली नुक्कड़ों पर नाटक, स्कूलों में कार्यक्रम, सरकारी दफ्तरों में वर्कशॉप्स.समझ ही स्वीकृति की पहली सीढ़ी है.

अभिभावकों को न भूलें

हम मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक रूप से थक चुके हैं.हमें उम्मीद से अधिक कार्यवाही चाहिए.पेरेंट सपोर्ट ग्रुप्स, हेल्पलाइन्स, ट्रेनिंग सेशंस—ये हमारी लाइफलाइन बन सकते हैं.और कृपया—हवाई अड्डों, अस्पतालों, मॉल्स जैसे सार्वजनिक स्थलों पर कर्मचारियों को विशेष बच्चों के प्रति संवेदनशीलता सिखाएं.

.अगर दुबई दुनिया का पहला ऑटिज़्म-फ्रेंडली ट्रैवल डेस्टिनेशन बन सकता है, तो हम क्यों नहीं?हमें सहानुभूति नहीं, प्रणाली की ज़रूरत है.हम अपने बच्चों में विश्वास करते हैं.हम बस इतना चाहते हैं कि आप भी उन पर विश्वास करें.

मैं यह पत्र निराशा से नहीं, आशा से लिख रही हूँ.आशा है कि कोई, कहीं, इस पत्र को पढ़ेगा और कहेगा—"हमें बेहतर करना होगा."क्योंकि हम कर सकते हैं. और हमें करना ही होगा.तक्ष के लिए.उसके जैसे हर बच्चे के लिए.और हर उस माँ के लिए जो अपने बच्चे के लिए थोड़ा बड़ा सपना देखने की हिम्मत रखती है.

सादर

सपना

( एक क्रिएटिव राइटर)

-----समाप्त