अहमद नदीम कासमीः एक हरफनमौला अदीब जो शायर था और अफसानानिगार भी

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 10-07-2021
अहमद नदीम कासमी
अहमद नदीम कासमी

 

आवाज विशेष । अहमद नदीम क़ासमी की पुण्यतिथि

-ज़ाहिद ख़ान

उर्दू अदब में अहमद नदीम क़ासमी उस नामचीन शख़्सियत का नाम है, जिन्हें कुछ लोग शायर के तौर पर तो, कुछ अफ़साना निगार, तंक़ीद निगार, जर्नलिस्ट और एडिटर की हैसियत से जानते हैं. अहमद नदीम क़ासमी एक हरफ़नमौला अदीब थे. उनके चाहे अफ़साने देख लीजिए, चाहे गज़ल़-नज़्में इनमें पंजाब की देहातों की सुंदर अक्कासी दिखलाई देती है. उन्होंने शुरुआत में रूमानी ग़ज़लें लिखीं, लेकिन बाद में जिं़दगी की तल्ख सच्चाईयों को अपने अदब का मौजू़़ बना लिया.
 
उनकी शायरी जहां इंसानी दोस्ती का जज़्बा जगाती है, तो वहीं उसमें आने वाले कल की खू़बसूरत तस्वीर भी है. अफ़साना-निगारी में वे प्रेमचंद के बाद एक बड़े अफ़साना-निगार के तौर पर उभरे. वहीं शायरी में उनका अहम कारनामा उर्दू अदब की रिवायत को काइम रखते हुए, उसमें तरक़्क़ीपसंद नजरिया लाना था. वे अपनी रिवायत और मिट्टी से हमेशा जुड़े रहे. उर्दू अदब की क़दीम रिवायत के अलावा उन्होंने जदीद ग़ज़ल को भी अपनाया, बल्कि उसे आगे बढ़ाया. अहमद नदीम क़ासमी ने हर अंदाज की नज़्में लिखीं. उनके अदबी सरमाये में एक से बढ़कर एक नज़्में हैं. मिसाल के तौर पर उनकी मक़बूल नज़्म ‘पाबंदी’ पर गर नज़र-ए-सानी करें, तो यह नज़्म पाबंदी इज़हार-ए-ख़्याल के खिलाफ सदा-ए-एहतिजाज़ है. सादा अल्फ़ाज़ में उन्होंनें इस नज़्म में वह ख़्याल पिरोया है, जो हर दौर में मौज़ू रहेगा.‘‘मिरे आक़ा को गिला है कि मिरी हक़-गोई/राज़ क्यूँ खोलती/और मैं पूछता हूँ तेरी सियासत फ़न में/ज़हर क्यूँ घोलती है/मैं वो मोती न बनूँगा जिसे साहिल की हवा/रात दिन रोलती है/यूँ भी होता कि आँधी के मुक़ाबिल चिड़िया/अपने पर तौलती है/इक भड़कते हुए शोले पे टपक जाए अगर/बूँद भी बोलती है.’’
 
अविभाजित भारत में पंजाब प्रांत के अंगह तहसील, जिला खोशाब में 20नवम्बर, 1916को एक सूफी परिवार में पैदा हुए अहमद नदीम क़ासमी ने छोटी उम्र से ही शे’र कहना शुरू कर दिया था. मौलाना मुहम्मद अली जौहर के इंतिकाल पर पर उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल लिखी, जो दैनिक अखबार ‘सियासत’ में शाया हुई. अल्लामा इक़बाल, अल्लामा शिबली, मौलाना ज़फ़र अली खान, जोश मलीहाबादी के अदबी कारनामों ने उन्हें काफी मुतासिर किया. अहमद नदीम क़ासमी ने आगे चलकर ग़ज़लें, नज़्में लिखना शुरू कर दीं. उनकी ये रचनाएं मुख़्तलिफ रिसालों में शाया होने लगीं. ग़ज़ल-नज़्म लिखते-लिखते उनकी दिलचस्पी अफ़साने में भी पैदा हुई. उनका पहला अफ़साना ‘बुत तराश’ साल 1934में उस ज़माने के मशहूर रिसाले ‘हुमायूं’ में शाया हुआ. ये अफ़साना काफी पसंद किया गया. सआदत हसन मंटो भी इस अफ़साने की तारीफ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए. एक-दूसरे के अदब के जानिब यह एहतिराम और तारीफ का जज़्बा आगे चलकर दोस्ती में तब्दील हो गया. यह दोस्ती, मंटो की मौत तक बरकरार रही. अफ़साना निगारी में मिली इस कामयाबी के बाद अहमद नदीम क़ासमी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. थोड़े से ही अरसे में अहमद नदीम क़ासमी की पहचान तरक़्क़ीपसंद अफ़साना निगार के तौर पर बन गई. वे सआदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी और कृश्न चंदर की सफ़ में खड़े हो गए. उनकी शुरुआती अफ़सानों में रूमानियत दिखलाई देती है. एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म है. लेकिन तरक़्क़ीपसंद तहरीक के जेरे असर उनमें हक़ीकत निगारी की तरफ रुझान बढ़ा.
 
अपने बगावती तेवर और समझौताविहीन राजनीति के चलते अहमद नदीम क़ासमी को कई मर्तबा जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने इंक़लाबी तेवर नहीं बदले. मुल्क के बंटवारे के बाद अहमद नदीम क़ासमी पाकिस्तान में ही रहे. साल 1948में लाहौर से उन्होंने ‘नुकूश’ निकाला, जो आगे चलकर तरक़्क़ीपसंद अदीबों का चहेता उर्दू रिसाला बन गया. आज़ाद मुल्क में भी अहमद नदीम क़ासमी की मुश्किलें खत्म नहीं हुईं. वामपंथी ख्याल के चलते साल 1951में पाकिस्तानी हुक़ूमत ने उन्हें पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत नज़रबंद कर दिया. लेकिन हुक़ूमत का जोर-ओ-जु़ल्म और टेढ़ी निग़ाह भी उनकी कलम को रोक नहीं पाई. कभी अदब तो कभी सहाफ़त के जरिए वे अपना काम, उसी मुस्तैदी से करते रहे. सहाफ़त में अहमद नदीम क़ासमी की शुरूआत कॉलम निगारी से हुई थी, कुछ अरसे के बाद ही उन्हें ‘इमरोज’ की इदारत मिल गई. उन्होंने छह साल तक इस अख़बार का कामयाबी से संपादन किया. अपने अख़बार में वे पाकिस्तानी हुकूमत की बेख़ौफ होकर सख़्त तंक़ीद किया करते थे. बाद में वे दीगर अख़बारों से भी कॉलम निगार की हैसियत से जुड़े रहे. अहमद नदीम क़ासमी ने बच्चों के अखबार ‘फूल’ और महिलाओं के हफ्तावार अख़बार ‘तहज़ीब-ए-निसवां’ का संपादन भी किया. इसके अलावा अदबी रिसाले ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘सबेरा’, ‘नुकूश’ और ‘फनून’ की एडीटिंग की. अपने इन अख़बारों और पत्रिकाओं से उन्होंने अदब को कई बेहतरीन अदीब दिए. उनकी रहनुमाई की. उर्दू अदब में अहमद नदीम क़ासमी का यह एक बड़ा कारनामा है, जिसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता.
 
अहमद नदीम क़ासमी के अफ़सानों का पहला मजमुआ साल 1939में, तो ग़ज़लों-नज़्मों का पहला मजमुआ साल 1942में प्रकाशित हुआ. उनके ज्यादातर अफ़साने देहात के मौज़ू और किरदारों पर मब्नी हैं. प्रेमचंद ने जहां अपने अदब में उत्तर प्रदेश के ग्राम्य जीवन, किसानों के दुःख-दर्द, आशा-निराशा, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न को विषय बनाया, तो अहमद नदीम क़ासमी भी पंजाब के किसानों के दुःख-दर्द को अपनी आवाज देते रहे. अंग्रेजी साम्राज्यवाद और सामंतवादी निजाम में किसानों का किस तरह से शोषण हो रहा है ?, उन्होंने इसे अपने अफ़सानों के जरिए बतलाया. भारत-पाक बंटवारे का खूनी मंजर और दूसरी आलमी जंग में फौजियों के परिवारों की दुर्दशा अहमद नदीम क़ासमी ने अपनी आंखों से देखी थी. लिहाजा इन मसलों को जब उन्होंने अपनी कहानियों का मौज़ू बनाया, तो एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज अफ़साने सामने निकलकर आए. यही नहीं हिंदुस्तान से अलग हुए नये मुल्क पाकिस्तान में मुहाजिरों के साथ किस तरह का बर्ताव हुआ, इसे मौजू़ बनाकर भी उन्होंने कई बेहतरीन कहानियां लिखीं. ‘अलहम्द-लिल्लाह’, ‘गंडासा’, ‘परमेश्वर सिंह’, ‘हिरोशिमा के पहले और बाद’ उनकी बेमिसाल कहानियां हैं. अफ़साना ‘हिरोशिमा के पहले और बाद’ जंग के खिलाफ लिखा उनका एक अजीमतरीन दस्तावेज है. अफ़साने के बैकग्राउंड में दूसरी आलमी जंग के हालात हैं.‘‘भूख भी तो जंग होती है, गुलामी की भी जंग होती है, इंतिज़ार की भी एक जंग होती है, जंग हर जगह हो रही है, रंगून में भी हो रही है, हमारे गांव में भी हो रही है, यह नित्य और अनादिकालीन जंग.’’
 
 अहमद नदीम क़ासमी की शायरी हो या अफसाने, उनकी अहम ख़ुसूसियत यथार्थवाद है. अवाम की बदहाली की वे एक ही वजह मानते हैं, और वह है हमारा समाजी सिस्टम. जब तक इस सिस्टम में आर्थिक बदलाव नहीं आयेगा, तब तक समाज नहीं बदलेगा. समाजी-मआशी बदलाव की यही कोशिश उनके अदब में बार-बार दिखलाई देती है. अहमद नदीम क़ासमी के अफसानों के मंटो भी बड़े मद्दाह थे. जब ‘रोमान’ अखबार में अहमद नदीम क़ासमी का अफसाना ‘बेगुनाह’ शाया हुआ, तो वे इससे काफी मुतासिर हुए. मंटो उनसे मिलने के लिए बेकरार हो गए और बाकायदा अख्तर शीरानी से उनका पता हासिल किया. मंटो उस वक्त वीकली अखबार ‘मुसव्विर’ के एडीटर थे. उन्होंने क़ासमी को इस कहानी से मुताल्लिक तारीफ़ भरा खत लिखा, ‘‘सच तो ये है कि इस किस्म के जज़्बात में डूबे हुए अफ़साने उर्दू में बहुत कम शाये हुए हैं. आपके हाथ प्लास्टिक के हैं और मालूम होता है कि अफ़साने के मौज़ू को आपने न सिर्फ महसूस किया है, बल्कि उसको छूकर भी देखा है. ये खुसूसियत हमारे मुल्क के अफ़साना निगारों को नसीब नहीं. मैं आपको मुबारकबाद देना चाहता हूं कि आपमें ये खुसूसियत बदर्जा-ए-अतम मौजूद है.’’ (किताब-मंटो के खत, संपादन-असलम परवेज, पेज-18)
 
सआदत हसन मंटो, अहमद नदीम क़ासमी के अफ़सानों को गोर्की और चेखव के अफ़सानों के दर्जे में रखते थे. उनके अफ़सानों के मजमुए ‘पतझड़’ का उन्वान मंटो ने ही रखा था. अहमद नदीम क़ासमी की सभी रचनाएं ग़ज़ल, नज़्म, अफ़साने और ड्रामे वे बराबर अपने अख़बार में छापते थे. आलम यह था कि ‘मुसव्विर’ में अहमद नदीम क़ासमी की नज़्म अखबार के पहले सफे पर छपती थी. मंटो का उनसे रिश्ता भी अजब था. जहां वे उनकी तहरीरों को पसंद करते थे, तो वहीं मौक़ा मिलने पर सख्त तंकीद करने से भी बाज नहीं आते थे. अपने ऐसे ही एक ख़त में उन्होंने अहमद नदीम क़ासमी को लिखा था,‘‘आपका अफ़साना मैंने पढ़ा....मेरी बेलौस राय है कि अब बकद्रे किफायत जब्त को काम में नहीं लाते. आपका दिमाग असराफ का ज्यादा कायल है. एक छोटे से अफ़साने में आपने सैकड़ों चीजें कह डाली हैं, हालांकि वह किसी दूसरी जगह काम आ सकती थीं. आपका ये अफ़साना पढ़कर मुझे आप उस बच्चे के मानिंद नजर आये हैं, जो सिनेमा हाल में फिल्म देखते-देखते बीच में कई बार बोल उठता है.’’ (किताब-मंटो के ख़त, संपादन-असलम परवेज, पेज-38)
 
अहमद नदीम क़ासमी को ज़िंदगी का अच्छा खासा तजुर्बा था. उनके जो ज़ाती तजुर्बे थे, उन्हीं को उन्होंने अपने अफसानों का मौज़ू बनाया. उनके अफसानों में बारीक डिटेलिंग और ग़ज़ब का नेरेशन होता था. अहमद नदीम क़ासमी ने बंटवारे, इकि़्तसादी मसाइल पर भी बहुत अच्छी कहानियां लिखीं. बंटवारे पर ‘परमेशर सिंह’ उनका बेहतरीन अफसाना है. बंटवारे के पसमंजर में जब सीमा के इस तरफ और उस तरफ लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं. ऐसे माहौल में भी परमेशर सिंह इंसानियत का दामन नहीं छोड़ता. अपनी जान की परवाह किए बिना, वह उस बच्चे को पाकिस्तान की सीमा में छोड़ने जाता है, जो बंटवारे की भगदड़ में अपने परिवार से बिछड़ कर, हिंदुस्तान जा पहुंचता है. परमेशर सिंह को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. दूसरी आलमी जंग का दुनिया के कई हिस्सों में असर पड़ा. खास तौर पर भारत पर. हजारों हिंदुस्तानी इस जंग में मारे गए और उनके परिवार तबाह हो गए. अहमद नदीम क़ासमी उर्दू अदब में अकेले ऐसे अफ़साना निगार हैं, जिन्होंने इस मौज़ू पर अनेक संवेदनशील कहानियां लिखीं. ‘सिपाही बेटा’, ‘बाबा नूर’, ‘आतिशे गुल’ और ‘ममता’ वगैरह जंग के बाद इंसान की जिं़दगी में आई अनेक तरह की जंग के बेजोड़ अफ़साने हैं. ‘कपास का फूल’, ‘गंडासा’, ‘अलहम्दु लिल्लाह’, ‘कफन-दफन’ और ‘फांसी का फंदा’ आदि उनकी कहानियों का भी कोई ज़वाब नहीं. इन कहानियों के अहम किरदारों के चरित्र चित्रण से लेकर, माहौल की अक्कासी में अहमद नदीम क़ासमी ने कमाल कर दिखाया है. उन्होंने अपनी कहानियों में हमेशा हक़ीकत निगारी पर जोर दिया. अहमद नदीम क़ासमी के अफ़सानों के अहम किरदारों में एक अलग तरह की अना, दयानतदारी दिखलाई देती है. विपरीत हालात में भी ये किरदार गैरतमंदी से दामन नहीं छुड़ाते. ‘कपास का फूल’ कहानी की मुख्य किरदार माई ताजो और ‘वहशी’ की बूढ़ी औरत को सब कुछ मंजूर है, लेकिन जैसे ही उनकी गैरत पर चोट पड़ती है, वे मुखर हो जाती हैं.
 
अहमद नदीम क़ासमी जितने आला अफसाना निगार थे, उतने ही बेहतरीन शायर भी थे. शायरी में भी उनका कोई ज़वाब नहीं. सैयद एहतिशाम हुसैन के मुताबिक ‘‘उनकी बेहतरीन शायरी इंसानी मोहब्बत का जज़्बा जगाती है और मुस्तक़बिल के सुनहरे ख़्वाबों की अक्कासी करती है.’’ अहमद नदीम क़ासमी इंसान दोस्त शायर थे. उनकी शायरी में इंसानियत और भाईचारे का पैगाम है.‘‘दावरे-हश्र ! मुझे तेरी कसम/उम्र भर मैंने इबादत की है/तू मेरा नामा-ए-आमाल तो देख/मैंने इंसां से मुहब्बत की है.’’ वहीं नज्म ‘रज्अत परस्ती का नारा’ की शुरूआती लाइनें अहमद नदीम क़ासमी की शायरी के अंदाज, उनके शालीन लहजे और सोच की बेहतरीन मिसाल है, ‘‘अंधियारे में रहने वालो, अंधियारे के राज न खोलो/कांच से सपने टूट न जाएं, आहिस्ता-आहिस्ता बोलो/जहर न बन जाए यह जीना, इस अमरत में नींदें घोलो/और ख़्वाबों के मोती रोलो....’’ अहमद नदीम क़ासमी गुलाम मुल्क में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अवाम को बराबर बेदार करते रहे. शायरी में कभी मुखर होकर, तो कभी इशारों में उन्होंने अपनी बात कही.‘‘हुक्मरानों ने उकावों का भरा है बहु रूप/भोली चिड़ियों को जगाना भी तो फ़नकारी है/खेत आबाद हैं, देहात हैं उजड़े-उजड़े/इस तफाबुत को मिटाना भी तो फनकारी है/धान की फस्ल की तस्वीर है मअराजे-कमाल/धान की फस्ल उठाना भी तो फनकारी है.’’
 
मुल्क का बंटवारा एक बड़ी टै्रजेडी थी. जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए. फिरकावाराना दंगों में हजारों लोग मारे गए. इंसानियत और सदियों का भाईचारा शर्मसार हुआ. पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में जब फिरकावाराना दंगे फैले, तो अहमद नदीम क़ासमी तमाशाई नहीं बने रहे. उन्होंने अपनी नज़्मों में इंसानियत मुखालिफ इन वहशी हरकतों की सख़्त मज़म्मत की. नज़्म ‘आज़ादी के बाद’ में उनका दर्द कुछ इस तरह से ज़बान पर आया, ‘‘रोटियां बोटियों से तुलती हैं इस्मतों से सजी दुकानों पर/पेट भरने के बाद नाचता है खून का जायका ज़बानों पर.’’ इस नज़्म में वे यहीं नहीं रुक जाते, बल्कि आगे कहते हैं,‘‘एक आफाकगीर सन्नाटा जिं़दगी ज़िंदगी ! पुकारता है/सटपटाता है अपने होठों से खून की पपड़ियां उतारता है/जिं़दगी को सम्हालने की मुहिम कब मुकद्दर के इंतिज़ार में है/ये जमीं, ये खला की रक्कासा, आदम-ए-नो के इंतिज़ार में.’’ यानी इस शिकस्ता माहौल में भी वे उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते. उन्हें यकीन है कि जिंदगी फिर सामान्य होगी और खुशहाली, भाईचारे के नग़्मे पहले की तरह से गाये जाएंगे.
 
अहमद नदीम क़ासमी ने ग़ज़ल और नज़्म दोनों ही अधिकार के साथ लिखीं. उनकी ग़ज़लें अपने ज़माने में तो मशहूर हुईं, आज भी ये ग़ज़ल उसी तरह पसंद की जाती हैं. अहमद नदीम कासमी की ग़ज़ल की मकबूलियत के पीछे सादा अंदाज था. बिना किसी भारी भरकम अल्फाज का इस्तेमाल किए बिना, वे ऐसी बातें कह जाते थे, जो सीधे दिल में उतर जाती हैं. ‘‘कौन कहता है, मौत आएगी तो मर जाऊंगा/मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा.’’ अहमद नदीम कासमी की ग़ज़लों के कुछ और खूबसूरत अशआर हैं, ‘‘दैरोहरम का इम्तियाज क्या हो मेरी निगाह में/वह भी तेरी पनाह में, यह भी तेरी पनाह में.’’, ‘‘मलजगे पर्दों में छुप कर चांद क्या सोचा किया/तारे किसकी फिक्र में आंखों को झपकते रहे/एक मेरे दिल ही में था, तेरा तसव्वुर मेरे दोस्त/या जमाने भर को तेरे ख्याल आते रहे.’’ अहमद नदीम क़ासमी ने बेशुमार लिखा. न्ज़म, ग़ज़ल, रुबाई, कतआ, अफ़साने, ड्रामें, मजाहिया कॉलम और सैकड़ों मज़ामीन. उनकी किताबों की तादाद तकरीबन पचास के आस-पास होगी. ‘चौपाल’, ‘बगोले’, ‘तुलू व गुरुब’, ‘सैलाब’, ‘गरदाब’, ‘आंचल’, ‘आसपास’, ‘कपास के फूल’, ‘दरो-दीवारी’, ‘सन्नाटा’, ‘बाजारे हयात’, ‘बर्गे हिना’, ‘घर से घर तक’, ‘नीला पत्थर’, ‘कोहे पैमा’, ‘पतझड़’ समेत उनके अफसानों की सतरह किताबें और ग़ज़लों-नज़्मों की ‘रिमझिम’, ‘धड़कनें’ ‘जलाल-ओ-जमाल’, ‘शोला-ए-गुल’, ‘दश्ते वफा’, ‘अर्ज-ओ-समा’, ‘लौह खाक’ समेत आठ किताबें शाया हुई हैं.
 
अहमद नदीम क़ासमी की कहानियों और शायरी के तजुर्मे देशी ज़बानों हिंदी, पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजराती, सिंधी के अलावा दुनिया भर की ज़बानों अंग्रेजी, रूसी, चीनी, जापानी वगैरह में भी हुए हैं. पाकिस्तान के शिखर सम्मान ‘इम्तियाजे पाकिस्तान’ के अलावा उन्हें तमाम अदबी सम्मानों से नवाजा गया. पाकिस्तान के रोजाना अखबार ‘इमरोज’ से वे बरसों तक जुड़े रहे. उर्दू अदब की खिदमत के वास्ते अहमद नदीम क़ासमी ने साल 1963 में एक और रिसाला ‘फनून’ निकाला, जिसके 100 से ज्यादा नंबर निकले. इस रिसाले को उन्होंने अपने आखिरी दम तक निकाला. 10 जुलाई, साल 2006को लाहौर में नब्बे साल की उम्र में अहमद नदीम क़ासमी ने यह कहकर, इस जहान-ए-फ़ानी से अपनी आखिरी रुखसती ली,‘‘ज़िंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूँ ‘नदीम’/बुझ तो जाऊँगा मगर सुबह तो कर जाऊँगा.’’