- शहर-ए-अकबराबाद ने नजीर अकबराबादी को बना दिया बेगाना
- नजीर अकबराबादी का 16फरवरी को है जन्मदिन
- उनकी मजार का कोई पुरसाहाल नहीं
- मजार के आस-पास के क्षेत्र पर किया जा चुका है अतिक्रमण
फैजान खान / आगरा
कहते हैं जिसको ताजमहल आगरे का है.
यह संगेमरमर का सितम आगरे का है..
शाहेजहां के दिल का चमन आगरे का है.
मुमताज के ख्वाबों का चमन आगरे का है..
आशिक कहो असीर कहो आगरे का है.
मुल्ला कहो दबीर कहो आगरे का है..
मुफलिस कहो, फकीर कहो आगरे का है.
शायर कहो नजीर कहो आगरे का है..
ये चंद लाइनें नजीर अकबराबादी की आगरा से मोहब्बत को बया करतीं हैं. नजीर पैदा तो दिल्ली में हुए, लेकिन आगरा आकर उन्होंने इस सरजमी को अपनी दिला-ओ-दिगाम में बसा लिया. वे आगरा से बेपनाह मोहब्बत करते थे. तभी तो उनकी हर शायरी और रचना में आगरा की ही बात होती थी. उन्होंने ब्रज की संस्कृति को आगरा के गली-मोहल्ले पर जमकर लिखा, लेकिन आगरा वालों ने अब उन्हें बेगाना बना दिया. इतने बड़े शायर को आज आगरा में याद करने वाला कोई नहीं. यहां के बाशिंदे उन्हें भुलाने पर तुले हैं.
उनकी ताजगंज क्षेत्र में बनी एकमात्र निशानी उनकी मजार है, उसमें भी टूट-फूट हो गई है. मजार की मरम्मत करने वाला भी कोई नहीं. मजार वाले इलाके में लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है. मजार पर बकरी और कुत्ते घूमते हैं.
आगरा की सरजमीं को मीर तकी मीर और मिर्जा गालिब और नजीर अकबराबादी जैसे शायरों ने देश ही नहीं दुनिया भर में पहनचान दिलाई. इसमें एक नाम नजीर अकबराबादी का भी है, जिन्होेंने आम बोलचाल की भाषा में रचनाओं को लिखा. कहते हैं कि हर फनकार की मरने के बाद कद्र होती है. मजार पर आज कोई दो फूल चढ़ाने वाला तक नहीं.
नजीर की पैदाइश तो दिल्ली में 2247 हिजरी यानी सन् 1735 ईस्वी में हुई थी. नजीर का नाम वली मोहम्मद था. नजीर उनका लकव था. इसलिए नजीर अकबराबादी के नाम से ज्यादा मशहूर हुए.
उनके वालिद का नाम फारुख था. नजीर की मां आगरा के किलेदार नवाब सुल्तान खां की बेटी थीं. नजीर अपने मां-बाप की 13वीं संतान थे.
फारुख के 12 बच्चे किसी न किसी बीमारी की वजह मर चुके थे.
नजीर तो अल्लाह के करम और सूफी-दरवेशों की दुआ से बचे थे. समग्र आगरा किताब में एक जगह जिक्र आता है कि एक दरवेश ने नजीर के वालिद को दुआ दी थी कि जाओ तुम्हारा ये लड़का जिंदा बचेगा और तुम्हारा नाम रोशन करेगा.
बताया जाता है कि बुरी नजर से बचाने के लिए नजीर के मां-बाप ने उन्हें लड़कियों जैसा बना दिया था.
नजीर चार साल के थे कि सन 1739 ईस्वी में नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया. मराठों ने भी कई बार दिल्ली पर चढ़ाई की. बार-बार फैल रही बदअमनी से परेशान होकर 22-23 साल की उम्र में मां के साथ नजीर अपनी नानी के घर आगरा चले आए. आगरा में नूरी दरवाजे में मिठाई पुल के पास मीर साहब के मकान में किराए पर रहे.
आगरा में नजीर की शादी अहदी अब्दुल रहमान खां की नवासी और मोहम्मद रहमान खां की बेटी तहबरुन्निसा बेगम से हुई.
तहबरुन्निसा ताजमहल के पास मलको गली में रहती थीं. तहबरुन्निसा से दो बच्चे पैदा हुए. बेटे का नाम गुलजार अली असीर और बेटी का नाम इमामी बेगम था.
नजीर अकबराबादी ने अरबी, फारसी में तालीम हासिल की. वे संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू, पंजाबी, मारवाड़ी, पूर्वी और हिंदी जानते थे.
शादी के बाद नजीर आगरा के ताजगंज मुहल्ले में रहने लगे. जीवन-यापन करने के लिए नजीर ने कुछ दिन मथुरा में रहकर लड़के पढ़ाने की नौकरी की, वहां मन नहीं लगा, तो आगरा में भाऊ किलेदार के उस्ताद बन गए. इसके बाद कुछ दिन नवाब मुहम्मद अली खां के बच्चों को पढ़ाया.
यहां भी ज्यादा दिन नहीं पढ़ाया. इसके बाद माईथान मुहल्ले में राजा विलास राय के बच्चों को 17रुपये महीने में तालीम दी. वे घर से माईथान तक घोड़े से आते-जाते थे.
जब नजीर ने रचनाएं लिखना शुरू किया था. उस समय मीर तकी मीर अपने उरूज पर थे.
नजीर ने भी मीर तकी मीर की तर्ज पर गजल कहीं. इस गजल की खबर मीर तकी मीर तक जा पहुंची.
एक मुशायरे में नजीर ने इस गजल को पढ़ा. इसमें मीर तकी मीर भी मौजूद रहे.
इतने बड़े शायर के सामने नजीर शेर पढ़ने में घबरा रहे थे, लेकिन मीर तकी मीर ने उनकी हिम्मत बढ़ाई.
तब उन्होंने इस गजल को पढ़ा...
नजर पड़ा इस बुते परीवश, निराली सज-धज नई अदा का.
जो उम्र देखो, तो इस बरस की, तो कहरो-आफत गजब खुदा का.
जो शक्ल देखो, तो भोली-भाली, जो बातें सुनिये, तो मीठी-मीठी.
पे दिल वो पत्थर, कि सर उड़ो, जो नाम लीजो कभी वफा का.
जो घर से निकले, तो ये कयामत कि चलते-चलते कदम-कदम पर.
किसी को ठोकर, किसी को टक्कर, किसी को गाली निपट लड़ाका.
ये राह चलने में चुलबुलाहट कि दिल कहीं है, नजर कहीं हैं.
कहां का ऊंचा, कहां का नीचा, खयाल किसको कदम की जा का.
नजर जो नीची करे वो गोया, खिला सरापा चमन से पलक न मारे.
ये चंचलाहट, ये चुलबुलाहट, खबर, न सर की न तन की सुध-बुध.
जो चीरा बिखरा बला से बिखरा, न बंद बांधा कभूकवा का.
बज्म-ए-नजीर की ओर से वसंत पंचमी पर दो साल पहले तक तो छोटे-मोटे प्रोग्राम होते थे, लेकिन बज्म के सरपरस्त पीरजदा उमर तैमूरी के इंतकाल के बाद ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं होता है. एक-दो जगह रस्म अदायगी के लिए महफिल करके खानापूर्ति कर ली जाती है.
भारतीय मुस्लिम विकास परिषद के समी आगाई कहते हैं कि इतने बड़े शायर की आगरा ने कद्र नहीं की. नजीर के नाम से आगरा में कोई भी ऐसा लैंडमार्क नहीं, जिसे कहा जा सके कि ये नजीर की निशानी है. मजार बचा हुआ है, तो उसकी भी कोई कद्र नहीं. मजार टूट रही है. आस-पास के लोगों ने बेशकीमती जमीन को हथियाने का प्रयास किया है.
पहले आर्मी इलाके में नजीर के नाम से एक पार्क बनाया गया था, तो उसे भी अब हटा दिया. नगर निगम ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया. शहर की तंजीम भी इस ओर ध्यान नहीं देती हैं.
बज्म-ए-नजीर के अध्यक्ष आरिफ तैमूरी ने कहा कि बार-बार लिखित में शिकायत करने के बाद भी नगर निगम ने कोई सुनवाई नहीं.
उन्होंने बताया कि मजार का टीनशेड पूरी तरह से टूट गया है. रंगाई-पुताई तक नहीं हो पाई है. आस-पास के लोग यहां पर शादियां तक करते हैं. बजट के अभाव में हम भी कुछ नहीं कर पाते. वसंत पंचमी के दिन मजार के मंच पर मुशायरा और गोष्ठी का आयोजन किया जाएगा.
कुछ मशहूर रचनाएं
झगड़ा न करे मिल्लत-ओ-मजहब का कोई यां.
जिस राह में जो आन पड़े खुश रहे हैं आं.
जुन्नार गले या कि बगल बीच हो कुरबां.
आशिक तो कलंदर है हिंदू न मुसलमां.
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हरेक मकां में जला फिर दिया दिवाली का.
हरेक दिल को मजा खुश लगा दिवाली का.
अजब बहार का दिन बना दिवाली का.