एक साल बेमिसालः हिंदुस्तान की कुछ ऐसी मिसालें, जिनकी आवाज बने हम

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 23-01-2022
हिंदुस्तान की कुछ ऐसी मिसालें, जिनकी आवाज बने हम
हिंदुस्तान की कुछ ऐसी मिसालें, जिनकी आवाज बने हम

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

आवाज- द वॉयस ने अपना सफर जब शुरू किया था तो संकल्प यही था कि हम खबरों की दुनिया के शोर-शराबे से दूर, खबरों के असली मुहावरे पर टिके रहेंगे. यह कोई आसान काम नहीं था. एक तरफ क्लिक बेट, यूनिक व्यूज और व्यूज का लुभावना तिलिस्म था, दूसरी तरफ अपना संकल्प. एक तरफ जल्दी से लोकप्रिय होने का लालच था, दूसरी तरफ अपने सिद्धांतों पर टिके रहकर चुनौतियों से दो-चार होने की प्रतिबद्धता.

बेशक, चढ़ाइयों पर चढ़ने की चुनौतियों से निपटने का आनंद कुछ और ही होता है. हमने अपने सिद्धांतो पर टिके रहकर एक साल का सफर तय किया है. हमने समावेशी हिंदुस्तान को लोगों के सामने लाने के अपने उसूल से कभी समझौता नहीं किया.

बेशक, हमारा कोई दावा, चप्पे-चप्पे पर रिपोर्टरों के मौजूद होने का नहीं है. हमारी टीम छोटी है, पर कुशल है. हमारे संसाधन कम हैं, पर खबर आप तक पहुंचाने के लिहाज से पर्याप्त हैं.

इस सफर में हमने आप तक कुछ ऐसी खबरें पहुंचाई, जिसकी तारीफ हर तरफ हुई है. क्योंकि वह खबरें बिना किसी नून-मिरचाई लगाए खालिस अंदाज में आप तक पहुंचाई गई हैं.

दसेक हजार खबरों से बेशक कुछ ऐसी खबरें हैं जिन पर हर हिंदुस्तानी को फख्र होगा. इन खबरो में कुछ ऐसी शख्सियतें शामिल रही हैं, जो खुद हिंदुस्तानियत की पहचान बन गए हैं और जिनसे देशभर के हजारों लोगों को प्रेरणा मिली होगी.

ऐसी ही एक शख्सियत हैं  25 हजार लावारिस लाशों की अंतिम क्रिया कर चुके हैं फैजाबाद के शरीफ चाचा. इनकी खबर अनु रॉय ने लिखी थी.

जब हम अपने किसी अजीज को खो देते हैं तो कई बार जिंदगी से भरोसा उठ जाता है. हम कई बार कड़वाहटों से भर जाते हैं तो कई बार उदासी से. लेकिन फिर कुछ लोग ‘मोहम्मद शरीफ़’ हो जाते हैं.

एक ऐसा शख्स जिनकी इंसानियत उन्हें और बेहतर इंसान बल्कि फरिश्ते में बदलने लगती है. ऊपर लगी तस्वीर देखकर आप सोच रहे होंगे, यह तो एक आम पंक्चर बनानेवाला है. क्या ख़ास है इसमें!

पद्म-श्री से सम्मानित हो चुके हैं फैजाबाद के शरीफ चाचा

आम दिखने वाले मोहम्मद शरीफ़ वाकई खास हैं. मोहम्मद शरीफ ऐसे शख़्स हैं जिन्होंने बकौल मीडिया रिपोर्ट्स, अभी तक 25,000 से ज़्यादा लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार किया है.

वैसे, गिनती कम-ज्यादा हो सकती है क्योंकि खुद मोहम्मद शरीफ़ (और मुहल्ले के लिए शरीफ चाचा) को याद भी नहीं कि असल में यह संख्या कितनी है. वह तो बस मानते हैं कि इस दुनिया में आए हर शख़्स की विदाई इज़्ज़त से भरी हुई हो. अगर मरने वाला इंसान मुसलमान है तो आख़िरी दुआ पढ़कर सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जाए और हिंदू है तो श्मशान में मुखाग्नि देकर उसके शरीर को पंचतत्त्व में विलीन किया जाए.

शुरुआत में घर के लोग और नाते-रिश्तेदार सब इसके ख़िलाफ़ थे. कुछ लोग तो उन्हें पागल आदमी भी कहने लगे. लेकिन वह रुके नहीं, थके नहीं. उनका वह जुनून शायद मुहब्बत है अपने मरहूम बेटे के लिए.

अपने रोजगार के लिए आज भी शरीफ़ चाचा अपनी पंक्चर की दुकान चलाते हैं और फ़ैज़ाबाद में रहकर अपना और अपनी बेग़म का पेट भरते हैं. हाँ, उनका यह काम सरकार की निगाह में भी आया और फिर उन्हें उन्हें पद्म-श्री से सम्मानित किया गया.

मोहम्मद शरीफ़ जैसे लोगों का होना दुनिया को दुनिया बने रहने की बेहद दुर्लभ वजहों में से एक है.  

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25 हजार लावारिस लाशों की अंतिम क्रिया कर चुके हैं फैजाबाद के शरीफ चाचा

हिंदुस्तानियत की ऐसी ही दूसरी मिसाल हैदराबाद के अनिल चौहान हैं जो राष्ट्रीय एकता का एक जीवंत उदाहरण हैं. उनकी रिपोर्ट वाजिदुल्लाह खान ने लिखी थी.

‘मैं अर्श और फर्श की आवाज पर कहां रुकता हूं? मुझे बहुत ऊंची उड़ान भरनी है.’ ये शब्द प्रबुद्धजन अनिल कुमार चौहान पर फिट बैठते हैं. अग्रणी व्यक्तित्व और प्रसिद्ध कलाकार अनिल कुमार चौहान हैदराबाद का एक जाना-माना नाम है. उन्होंने 100 से अधिक मस्जिदों में कुरान की आयतें लिखी हैं. वे कहते हैं, “कलाकार का कोई धर्म नहीं होता है.

सीमाएं उसके काम से परे हैं. भाषाएं कलाकारों के लिए होती हैं और किसी भी कलाकार के लिए भाषा सीखना कोई मुश्किल काम नहीं है. बस, थोड़ा से शोध और मेहनत की जरूरत होती है. यह मेरी सच्ची इच्छा और आकांक्षा है कि मैं दुनिया के कोने-कोने तक अपनी कला को ले जाऊं और अपनी सही जगह हासिल कर सकूं.”

अनिल ने उर्दू साइन बोर्ड पढ़कर सीखी है

अनिल ने जब यह काम शुरू किया, तो कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा कि एक गैर-मुस्लिम मस्जिदों में कुरान की आयतें कैसे लिख सकता है, लेकिन इस काम में उनकी रुचि और आकर्षण उन्हें हैदराबाद के एक प्रमुख धार्मिक मदरसा जामिया निजामिया में ले गया, जहां उन्होंने इस आपत्ति पर एक फतवा प्राप्त किया.

फतवे का अर्थ था कि एक गैर-मुस्लिम कलाकार मस्जिदों में कुरान की आयतें, कलमा और खलीफाओं के नाम लिख सकता है. उसके बाद, मस्जिदों में आयतें लिखने का काम आसान हो गया और यह प्रक्रिया शुरू हुई, जो अब भी जारी है.

अनिल चौहान ने कई मुशायरों में दूसरों द्वारा लिखे गए नातिया कलाम का भी पाठ किया है, जिसकी प्रशंसा की जाती है. उन्होंने जामिया निजामिया की लाइब्रेरी में सूरा यासीन भी लिखी.

वह हैदराबादी गंगा-जमुनी सभ्यता के प्रचार के स्रोत हैं और वे इसे अपने काम से साबित करना चाहते हैं. मजे की बात यह है कि अनिल ने उर्दू साइन बोर्ड पढ़-पढ़कर सीखी है.

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एतराज के बाद भी मस्जिदों में कुरान की आयतें लिखता रहा यह हिंदू कलाकार

हैदराबाद से ही ऐसी एक अन्य शख्सियत के बारे में रिपोर्ट मोहम्मद अकरम ने लिखी. इस शख्सियत का काम और भी बड़ा है. आखिर, दुनिया में सबसे अच्छा काम किसी भूखे को खाना खिलाकर उसकी भूख को मिटाना है, सभी धर्मों ने अपने अनुयायियों को यहीं पाठ पढ़ाया है लेकिन भारत में कितने लोगों को खाना नहीं मिलता है और भूख से उसकी मौत हो जाती हैं? इसका जवाब हैरान करने वाला है, अक्टूबर 2020 के तीसरे हफ्ते मे जारी किए गए रिपोर्ट ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों के मुताबिक भारत मे 19 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोते हैं, जो चिंताजनक है.

अपने काम के लिए कोई अवॉर्ड नहीं लेते मोहम्मज आसिफ हुसैन

हैदराबाद मे एक शख्स पांच सालों से प्रतिदिन साल के बारह महीने सैकड़ों लोगों की भूख को मिटाने का काम कर रहे हैं, जब वह देश के कई इलाकों मे अपनी नजरों से भूखों को तडपते देखा तो उस समय उन्होंने लोगों को खाना खिलाने का फैसला किया, टीम मे सौ से ज्यादा नौजवा है जो हमेशा सेवा के जज्बे से काम करते हैं,  यही नहीं कोरोना काल मे सरकारी बाबुओं ने उनके यहां से खाना लेकर लोगों मे वितरण किया है, इसके जिम्मेदार किसी तरह अवॉर्ड लेने से खुद को दूर रखते हैं.

शहर के टोली चौकी के रहने वाले मोहम्मद आसिफ हुसैन अपने घर के पास हर रोज दोपहर दो बजे से तीन बजे के बीच बेसहारा लोगों, बाहर से आकर काम करने वालों को फ्री मे खाना खिलाते हैं, उन्होंने घर के बाहर खिदमत ए खल्क नाम से लोगों की सेवा कर रहे हैं. बोर्ड पर लिखा है ''आप हजरात से गुजारिश की जाती है कि हमारे साथ रोजाना साल के बारह महीने दोपहर का खाना तनावल फरमा कर खिदमत का मौका दें'' आगे लिखा है ''हमारे यहां किसी तरह के दान कबूल नहीं किए जाते हैं''.

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मोहम्मद आसिफ हुसैनः जीवन का उद्देश्य है भूखे को खाना खिलाना

बेशक, देश में ऐसी प्रेरणाओं की जरूरत है जो अपनी तंगहाली से या मुश्किल दौर से बाहर निकल कर दूसरों को भी प्रेरित करें. ऐसी सकारात्मक खबरों की जरूरत वैसे तो पूरे देश से है, लेकिन बुरे दौर से गुजर रहे कश्मीर में, खासतौर पर महिलाओं के लिए ऐसी मिसाल की कहानियों का बाहर आना जरूरी था.

और तब आवाज- द वॉयस के लिए रिजवान शफी वानी ने नीलोफर जान के बारे में विस्तार से खबर लिखी. नीलोफर न केवल दूसरों के लिए रोजगार के अवसर पर पैदा कर रही हैं. खुद भी आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश कर रही हैं. उन्होंने मशरूम का व्यवसाय शुरू किया और आत्मनिर्भर बन गईं.

नीलोफर जान कश्मीर के दक्षिणी जिले पुलवामा के गंगू इलाके में रहती हैं. उन्होंने दो साल पहले अपना छोटा सा प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसमें उन्हें निरंतर सफलता मिल रही है.

उन्होंने कृषि विभाग की मदद से मशरूम का व्यवसाय शुरू किया है. अपने इलाके में वह काफी लोकप्रिय हो गई हैं. एक समय था जब नीलोफर के पास कॉलेज फीस के पैसे तक नहीं होते थे. आज वह मशरूम की खेती से न केवल अपनी ट्यूशन फीस निकाल रही हैं. अपने घर का सहारा भी बनी हुई हैं.

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नीलोफर आत्मनिर्भर बनीं तो महिलाएं चल पड़ी उनकी राह

कहा ही जाता है कि अपने लिए जिए तो क्या जिए, जो दूसरों के लिए जीकर दिखाए असली मानवता उसी में होती है.

ऐसी ही शख्सियत की स्टोरी लिखी आवाज- द वॉयस के डिप्टी एडिटर मंजीत ठाकुर ने. यह कहानी महाराष्ट्र में ठाणे के पास बदलापुर के रहने वाले साकिब गोरे की थी.

साकिब गोरे को देखकर आपको यकीन नहीं होगा कि महाराष्ट्र के बदलापुर का रहने वाला और मजबूत डोले-शोले वाला यह ‘बंदा’ इतने नरम दिल का है और जिसने अब तक तेरह लाख लोगों को आंखों की रोशनी वापस पाने में मदद की है. ठाणे और आसपास के जिलों में गोरे को दृष्टि मित्र कहा जाता है. अपनी ठेठ मुंबइया भाषा में अपने काम के लिए वह एक ही बात कहते हैं, “अपुन के सामने कोई आदमी की आख की रोशनी चलवी जाएंगी तो अपुन ऊपरवाले को क्या मूं दिखाएंगा.”

गोरे सिर्फ ऐसा कहते ही नहीं हैं, वह करते भी हैं. वह मुंबई के पास के तीन जिलों में लाखों लोगों के लिए दृष्टि-दूत हैं और उनके मुफ्त मोतियाबिंद का इलाज करवा चुके हैं. गोरे कहते हैं, “हर साल पूरे भारत में मोतियाबिंद के 20 लाख से अधिक मामले आते हैं. और हर साल पूरे देश में जितने लोगों की आंख की रोशनी जाती है उनमें से 63 फीसद मामले के लिए मोतियाबिंद जैसी साधारण बीमारी ही जिम्मेदार है. यही नहीं दृष्टिदोष के 80 फीसद से अधिक मामले भी मोतियाबिंद की वजह से होते हैं.”

साकिब गोरे यह काम कोई पांच या दस साल से नहीं कर रहे. ठाणे समेत महाराष्ट्र के तीन जिलों में उन्हें मोतियाबिंद से लड़ते हुए 28 साल हो चुके हैं. उनका दावा है कि उन्होंने अब तक कोई 13 लाख लोगों के आंखों का इलाज करवाया है. इनमें 48,000 से अधिक लोगों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाना भी शामिल है.

गोरे कहते हैं, “मोतियाबिंद से आखिरकार अंधापन हो जाता है, तो लोग फिर ऑपरेशन करवाते क्यों नहीं? या हम उनके पास जाते हैं तो उन्हें इसकी जानकारी नहीं होती. इसलिए जनजागृति जरूरी है.”

बेशक इस दृष्टिदूत ने लाखो लोगों को आंखों की रोशनी दी है और उनकी मिसाल से हजारो-लाखों और भी लोगों को जिंदगी जीने के मकसद की रोशनी मिली होगी.

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बदलापुर का दृष्टिमित्र साकिब गोरे

लेकिन आंखों की रोशनी होते हुए भी जब तक तालीम की रोशनी न मिले, अंधेरा कायम ही रहता है और यह बात समझ ली थी असम के हैलाकांडी के रिक्शा चलाकर पेट पालने वाले अहमद अली ने. अहमद अली ने स्कूल-कॉलेज खोलने के लिए अपनी सारी जमा-पूंजी दान कर दी और उनकी रिपोर्ट हैलाकांडी, असम से लिखी थी सतानंद भट्टाचार्य ने.

अहमद अली बेशक गरीबी की वजह से अपनी पढ़ाई नहीं कर पाए लेकिन उन्हें पूरा भरोसा है कि वह अपने लोगों को 'निरक्षरता' नामक पाप से मुक्ति दिला सकते हैं. दक्षिणी असम के करीमगंज जिले के पाथेरकंडी सर्कल के खिलोरबोंड-मधुरबोंड के 85 साल अहमद अली आजीविका के लिए रिक्शा चलाते हैं, लेकिन उनकी दृढ़ता देखते ही बनती है.

अली ने स्कूल खोलने के लिए कर दिया सर्वस्व दान

अली ने नौ स्कूलों की स्थापना के लिए अपना सब कुछ दान कर दिया है. इस दान में उनकी रिक्शा चलाकर होने वाली आमदनी और 32 बीघे की पैतृक भूमि भी शामिल है. इन नौ स्कूलों में अब लगभग 500 लड़कियां और 100 लड़के पढ़ाई कर रहे हैं.

अली ने पहली बार 1978 में ग्रामीणों से एक छोटी सी रकम जुटाकर और जमीन का एक टुकड़ा बेचकर एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की थी. उसके बाद से बच्चों को तालीम दिलवाना उनकी मुहिम बन गई है.

खिलोरबोंड-मधुरबोंड और उसके आसपास के इलाकों में उन्होंने नौ स्कूलों की स्थापना की, जिनमें से तीन लोअर प्राइमरी, पांच माध्यमिक अंग्रेजी स्कूल और एक हाइस्कूल है. इनमें से पांच स्कूलों को अब प्रांतीय कर दिया गया है. यानी इन पांच स्कूलों के कर्मचारियों को सरकार से वेतन मिलता है. बाकी स्कलों में शिक्षक स्वैच्छिक काम करते हैं.

कई पुरस्कारों और सम्मानों से अलंकृत अली अभी भी खुद को 'रिक्शा-चालक' कहलाना ही पसंद करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि हर पेशे की अपनी गरिमा होती है. यहां तक कि मार्च, 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साप्ताहिक रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' में भी उनका उल्लेख किया गया था. अली कहते हैं,"पीएम की आवाज में अपना नाम सुनकर मैं अवाक रह गया." प्रधानमंत्री मोदी ने उनका नाम लिया था और उनके पहल की प्रशंसा की और कहा कि उनके परोपकार को मान्यता दी जानी चाहिए.

समाज ऐसे ही बेमिसाल शख्सियतों से बनता है, जिनके लिए ‘अपनों’का दायरा परिवार से बढ़कर बेहद बड़ा और व्यापक होता है.

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स्कूल खोलने के लिए असम के रिक्शाचालक ने कर दिया सर्वस्व दान