बदलापुर का दृष्टिमित्र साकिब गोरे

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 2 Years ago
साकिब गोरे
साकिब गोरे

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

साकिब गोरे को देखकर आपको यकीन नहीं होगा कि महाराष्ट्र के बदलापुर का रहने वाला और मजबूत डोले-शोले वाला यह ‘बंदा’ इतने नरम दिल का है और जिसने अब तक तेरह लाख लोगों को आंखों की रोशनी वापस पाने में मदद की है. ठाणे और आसपास के जिलों में गोरे को दृष्टि मित्र कहा जाता है. अपनी ठेठ मुंबइया भाषा में अपने काम के लिए वह एक ही बात कहते हैं, “अपुन के सामने कोई आदमी की आख की रोशनी चलवी जाएंगी तो अपुन ऊपरवाले को क्या मूं दिखाएंगा.”

गोरे सिर्फ ऐसा कहते ही नहीं हैं, वह करते भी हैं. वह मुंबई के पास के तीन जिलों में लाखों लोगों के लिए दृष्टि-दूत हैं और उनके मुफ्त मोतियाबिंद का इलाज करवा चुके हैं. गोरे कहते हैं, “हर साल पूरे भारत में मोतियाबिंद के 20 लाख से अधिक मामले आते हैं. और हर साल पूरे देश में जितने लोगों की आंख की रोशनी जाती है उनमें से 63 फीसद मामले के लिए मोतियाबिंद जैसी साधारण बीमारी ही जिम्मेदार है. यही नहीं दृष्टिदोष के 80 फीसद से अधिक मामले भी मोतियाबिंद की वजह से होते हैं.”

साकिब गोरे यह काम कोई पांच या दस साल से नहीं कर रहे. ठाणे समेत महाराष्ट्र के तीन जिलों में उन्हें मोतियाबिंद से लड़ते हुए 28 साल हो चुके हैं. उनका दावा है कि उन्होंने अब तक कोई 13 लाख लोगों के आंखों का इलाज करवाया है. इनमें 48,000 से अधिक लोगों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाना भी शामिल है.


गोरे कहते हैं, “मोतियाबिंद से आखिरकार अंधापन हो जाता है, तो लोग फिर ऑपरेशन करवाते क्यों नहीं? या हम उनके पास जाते हैं तो उन्हें इसकी जानकारी नहीं होती. इसलिए जनजागृति जरूरी है.”

वह कहते हैं, “मोतियाबिंद की बीमारी साधारण है, क्योंकि इसमें मौत का भय नहीं इसलिए हर कोई इसको सह लेता है. परिवारवाले भी नजरअंदाज करते हैं.”

दृष्टिमित्रः साकिब गोरे ने 48,000 लोगों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया है


नजरअंदाज करने वाली यही बात उन्हें बहुत पहले चुभ गई थी और यहीं से उनकी यात्रा भी शुरू हुई थी. असल में, पारिवारिक समस्याओं की वजह से कभी बेहद खाता-पीता खानदान  रहा गोरे परिवार आर्थिक संकट में फंस गया. अस्सी के दशक की शुरुआत में गोरे ने पढ़ाई-लिखाई छोड़कर परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए ट्रक में क्लीनर का काम शुरू किया था. तब उन्हें 12 रुपए दिहाड़ी मिलती थी. गोरे नम आंखों से बताते हैं, “पैसे पूरे नहीं पड़ते थे न, तो मइने साथ में ‘हम्माली’भी शुरू की. इससे मेरे कूं पहिले रोज 32 रुपए मिले थे.”

गोरे ने ‘हम्माली’ यानी बोझा उठाने के काम से भले ही शुरुआत की, लेकिन उसके बाद उन्होंने कारोबार की दुनिया में कदम रख दिया और फिर समृद्धि उनके कदम चूमने लगी थी. उन्हीं दिनों उनकी एक बुजुर्ग रिश्तेदार का निधन हो गया. गोरे कहते हैं, “मौत के वक्त जाहिरा बेगम के चेहरे पर कोई बेचैनी नहीं थी. मेरी मां ने बताया कि वह एक अंधेरी दुनिया से दूसरी अंधेरी दुनिया में जा रही थी.”गोरे बताते हैं कि उनकी वह रिश्तेदार तीस साल से अंधत्व का शिकार थीं.

उस दिन उन्होंने संकल्प किया कि वह इस मोतियाबिंद से लोगों की लड़ाई में मदद करेंगे. और 1992 में उन्होंने अपना पहला शिविर लगाया. तब से लेकर उनका सफर आजतक जारी है.

वह ठाणे और आसपास के जिलों में जनजागृति फैलाते हैं. वह और उनके कुछ साथी लोगों से बात करते हैं. लेकिन यह इतना आसान नहीं होता. गोरे कहते हैं, “गांव के लोग, खासतौर पर कम पढ़े-लिखे लोग हमें इंटरटेन नहीं करते. हमें देखते ही दरवाजा बंद कर लेते हैं. लेकिन हमारा काम उनको समझाना-बुझाना होता है.”


उनकी आंखों की जांच करते हैं और जिनको मोतियाबिंद के इलाज की जरूरत होती है उनके ऑपरेशन का बंदोबस्त करते हैं. इस बंदोबस्त में मरीज का तीन दिनों तक अस्पताल में रोकना, उनके ऑपरेशन का खर्च, और फिर चश्मा दिलाना भी शामिल होता है. गोरे का कोई अपना गैर-सरकारी संगठन नहीं है और वह दावा करते हैं कि वह इसके लिए किसी से फंड भी नहीं लेते. जो भी खर्च होता है वह उनका अपना होता है.

साकिब गोरे ने 9 लाख लोगों में चश्मे भी बांटे हैं


वह कहते हैं, “पिछले तीन दशकों से मैंने 13 लाख लोगों को मुफ्त आंखों का इलाज मुहैया करवाया है. 48,000 लोगों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया और करीब 9 लाख लोगों को अच्छी क्वॉलिटी के चश्मे मुहैया कराए.”तो इस परोपकार के पीछे सहज भावना क्या हो सकती है? क्या वह नामदार (विधायक) बनना चाहते हैं. गोरे मुस्कुराते हुए इस सवाल को खारिज करते हैं, “नको. मेरा कोय एनजीओ नय. इलेक्शन भी लड़ने का नय.”

हाल ही जारी किए एक रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दृष्टि दोषों और अंधत्व से लड़ने के लिए भारत सरकार की कोशिशों की तारीफ की है. बेशक, इस दिशा में जो कामयाबियां भारत को मिल रही हैं उनमें साकिब गोरे जैसे लोगों का योगदान भी है. पर गोरे अपने मुंबइया लहजे में ध्यान दिलाते हैं, “जन-जाग्रूति (जागृति) के मामले में हम लोग अब्भी भी पीछे हैं. उदर ध्यान देना ही होइंगा.”