आला उर्दू अदीब अहमद नदीम कासमी की कहानी से निकला है ‘मौला जट्ट’

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 04-02-2023
 ‘मौला जट्ट’
‘मौला जट्ट’

 

अमरीक सिंह 

आजकल दो पाकिस्तानी पंजाबी फिल्मों के दुनिया भर में चर्चे हैं. एक है पुरानी ‘मौला जट्ट’ और दूसरी हाल ही में आई ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’.  पहली मौला जट्ट पंजाबी तथा उर्दू में बनी थी और दूसरी द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट उर्दू-पंजाबी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी डब हुई है.

प्रसिद्ध भारतीय सिनेमाकार अनुराग कश्यप ने भी नई ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ का स्वागत करते हुए इसे देखने की ख्वाहिश सार्वजनिक रूप से जाहिर की है. किन्हीं कारणों से यह फिल्म हिंदुस्तान में रिलीज नहीं हो रही, लेकिन दुनिया भर में इसने कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. 

अहम सवाल है कि ‘मौला जट्ट’ आखिर कौन था. इतिहास या मिथ्हास का कोई पात्र या 1947 के बंटवारे के बाद का कोई जिंदा शख्स? हिंदुस्तान और हिंदुस्तान से बाहर शिद्दत से इस सवाल का जवाब तलाशा जा रहा है. इसलिए भी कि 1978 में आई ‘मौला जट्ट’ ने भी कामयाबी के खूब झंडे गाड़े थे. तब भी अवाम का एक बड़ा तबका जानना चाहता था कि आखिर ‘मौला जट्ट’ कौन था या है या पाकिस्तान के आधुनिक इतिहास के साथ उसका कोई रिश्ता है?

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यह सवाल इसलिए भी सदा मौजूं रहा कि मौला जट्ट (और अब द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट) किसी वास्तविक पात्र अथवा नायक होने का स्वाभाविक भ्रम पैदा करता है. भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब में वास्तविक पात्रों और नायकों पर खूब फिल्में बनीं हैं.

असली जिंदगी में डकैत या रोबिन हुड जैसी छवि अथवा अंदाज रखने वाले खलनायकों पर बेशुमार कमर्शियल फिल्में निर्मित हुईं हैं. पाकिस्तान की ऐसी फिल्मों को हिंदुस्तान में खूब देखा गया और हिंदुस्तान में बनीं फिल्मों को पाकिस्तान में. हिंदी-उर्दू में भी मुगल-ए-आजम सरीखी कालजयी फिल्में बनीं, तो उन्होंने क्षेत्रीय सिनेमा को भी यह आइडिया सुझाया. यह कहना सही होगा कि स्वप्रेरित किया. (हालांकि दोनों पहलुओं में दूर-दूर तक कोई समानता नहीं).

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पंजाब में पंजाबी भाषा में शहीद भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, दूल्हा भट्टी, सोहनी महिवाल, सस्सी पन्नू और हीर रांझा की किंवदंती भरी कथाओं पर लंबी फिल्म श्रृंखला बनी हैं. इन फिल्मों के निर्माण का मकसद निहायत व्यवसायिक था, लेकिन इनके पात्र, दर्शकों को जाने-पहचाने नाम थे, क्योंकि ये स्थानीय लोक कथाओं व गाथाओं में रचे-बसे हैं.

1947 से भी कई सदियों पहले. वक्त बदलता रहा, लेकिन इनकी प्रासंगिकता अपनी जगह रही. आज भी यही आलम है.     

हिंदुस्तानी पंजाब के लिए मौला जट्ट नया नाम जरूर था, लेकिन वह किसी किवदंती, इतिहास, मिथ्हास तथा लोक कथा से वाबस्ता लगता था. मौला जट्ट एक बार फिर लोगों के दिमाग में हलचल सी मचाने लगा, जब हिंदुस्तान के अलावा सुदूर देशों तक द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट रिलीज हुई. हिंदुस्तान में सिर्फ उसका ट्रेलर देखा गया और अचानक उसका प्रदर्शन रोक लिया गया.                                              

उर्दू अदीब की जानी-मानी एक हस्ती हैं अहमद नदीम कासमी! वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त कहानीकार, उपन्यासकार, शायर और पत्रकार हैं. दुनिया की लगभग हर भाषा में उनके साहित्य का अनुवाद हुआ है. कासमी साहब के अनुदित साहित्य को बेहद ऐहतराम से पढ़ा जाता है, खासतौर से हिंदुस्तान में.

 

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अहमद नदीम कासमी

हिंदुस्तान में भी कई भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद हुए हैं. गजलों को बड़े-बड़े गायकों ने गाया है. कासमी साहब की कई कहानियों के नाट्य रूपांतरण भी अनेक भाषाओं में हुए हैं. उन्हीं अहमद नदीम कासमी की एक सुप्रसिद्ध कहानी है, ‘गंडासा’. (गंडासा को हिंदी में भाला भी कहा जाता है). इस कहानी को दुनिया भर में खूब पढ़ा गया.

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वस्तुतः यह एक काल्पनिक कहानी है, जिसमें पात्र मौला गांव का एक साधारण नौजवान है और निजी रंजिश के चलते उसके पिता का कत्ल हो जाता है. अहमद नदीम कासमी पाकिस्तान के सरगोधा जिले से संबंधित हैं. मौला के किरदार को उन्होंने कहानी में रिवायती ग्रामीण और अणखी (स्वाभिमानी) जट्ट के तौर पर प्रस्तुत किया. उसका कथा चित्रण स्थानीय लोकाचार के मुताबिक किया गया है.

गंडासा कहानी में नौजवान मौला दरअसल पहलवान बनना चाहता है, लेकिन वालिद के कत्ल के बाद उसकी जिंदगी सिरे से बदल जाती है. अपने गंडासे के साथ वह अपने पिता के कातिलों के परिवार के एक-एक सदस्य का खून धरती को पिलाना चाहता है. वह बदले की भावना के साथ बेचौनी भरी अस्त-व्यस्त जिंदगी व्यतीत करता है.

प्रतिशोध के जज्बे के साथ वह हर वक्त, दिन-रात अपना गंडासा लिए घूमता फिरता रहता है. इन्हीं हालात में कई साल बीत जाते हैं और गांव वाले उसे ‘मौला गंडासे वाला’ नाम से पुकारने लगते हैं. इसी नाम से वह मशहूर हो जाता है.

 

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गंडासा


 

पूरी कहानी में मौला की जात का कोई जिक्र नहीं है और न वैसे संवाद, जैसे गंडासा कहानी पर आधारित फिल्मों में सुनने को मिलते हैं. कासमी साहब की कहानी गंडासा पर पहले-पहल ‘वहशी जट्ट’ नाम से पाकिस्तानी फिल्म स्क्रिप्ट राइटर नासिर अदीब ने पटकथा लिखी थी.

 

इस पर फिल्म बनी और मुख्य किरदार के तौर पर सुल्तान राही नाम के एक अनजान तथा नए अभिनेता को लिया गया. इस फिल्म को अच्छा रिस्पांस मिला और सुल्तान राही रातों-रात पाकिस्तान के बड़े स्टार बन गए. जबकि इससे पहले वह दीवारों पर फिल्मों के पोस्टर लगाने का काम करते थे. साथ ही उन्हें विभिन्न फिल्मों में छोटी-मोटी मेहमान भूमिकाएं मिलने लगीं. लेकिन ‘वहशी जट्ट’ की कामयाबी ने उन्हें बतौर नायक स्थापित कर दिया.                  

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व्यावसायिक रूप से कामयाब फिल्म ‘वहशी जट्ट’ और फिर इसी श्रृंखला में अगली फिल्म वजूद में आई ‘मौला जट्ट’ और अब द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट उसी श्रृंखला का विस्तार है. बेशक तीनों घोर मसाला, हिंसा से लबरेज और कमर्शियल फिल्में हैं, लेकिन अहमद नदीम कासमी की एक कहानी गंडासा ने इनकी बुनियाद रखी थी, जो बाद में पुख्ता होती गई.

कहना होगा कि जो सुलूक भारतीय फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में उच्च स्तरीय साहित्यिक रचनाओं का होता है, वही अहमद नदीम कासमी की कहानी का हुआ.                    

गंडासा उर्दू की बेमिसाल मशहूर व बेहतरीन कहानी है. फिल्म में परिवर्तित होते होते वह कहां से कहां चली गई, यह अलहदा (चिंता का) विषय है, लेकिन एक बार बीबीसी रेडियो को दिए इंटरव्यू में महान अहमद नदीम कासमी ने फरमाया था कि अपनी इस कहानी से उन्हें बेहद लगाव है. आलोचकों ने भी गंडासा को उनकी प्रतिनिधि और यथार्थवादी सार्थक कहानियों में शुमार किया है. 

 बहरहाल, अब यह धुंधलका दूर गया हो गया होगा कि ‘मौला जट्ट’ आखिर कौन था? यकीनन वह अहमद नदीम कासमी की कहानी गंडासा का मुख्य पात्र है!