जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंदी फिल्मों के जरिए विभाजन पर विमर्श

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 22-08-2025
Discussion on Partition through Hindi films in Jamia Millia Islamia
Discussion on Partition through Hindi films in Jamia Millia Islamia

 

आवाज द वाॅयस/ नई दिल्ली

जामिया मिल्लिया इस्लामिया का जवाहरलाल नेहरू अध्ययन केंद्र (सीजेएनएस) 20 अगस्त को एक ऐसे व्याख्यान का गवाह बना जिसने इतिहास, सिनेमा और स्मृतियों की गहराइयों को एक साथ उजागर कर दिया. विषय था – “जीवित विभाजन और स्थायी विभाजन: हिंदी फिल्मों का परिप्रेक्ष्य”. यह महज़ एक शैक्षणिक आयोजन नहीं था, बल्कि भारतीय समाज की चेतना में अब भी धड़कते विभाजन के ज़ख्मों को महसूस कराने वाला एक सजीव अनुभव बन गया.

कार्यक्रम की शुरुआत सीजेएनएस के शोधार्थी कपिल यादव के गर्मजोशी भरे स्वागत भाषण से हुई. जामिया के माननीय कुलपति प्रो. मज़हर आसिफ और रजिस्ट्रार प्रो. मोहम्मद महताब आलम रिज़वी की गरिमामयी मौजूदगी ने कार्यक्रम को और महत्वपूर्ण बना दिया.

अध्यक्षता सीजेएनएस की मानद निदेशक प्रो. भारती शर्मा ने की, जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज के प्रख्यात इतिहासकार प्रो. निर्मल कुमार इस अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे. संयोजन और संचालन का दायित्व सीजेएनएस की सहायक प्रोफेसर डॉ. इती बहादुर ने संभाला.

जैसे ही प्रो. निर्मल कुमार ने बोलना शुरू किया, श्रोताओं को यह एहसास होने लगा कि यह व्याख्यान उन्हें केवल जानकारी नहीं, बल्कि संवेदना और आत्ममंथन का भी अवसर देने वाला है. उन्होंने विभाजन को “सांस्कृतिक स्मृति” की अवधारणा से जोड़ा और कहा कि यह केवल इतिहास की तारीख़ों या किताबों तक सीमित नहीं है, बल्कि आज भी भारतीय समाज की नस-नस में दर्ज है.

उन्होंने हिंदी सिनेमा की भूमिका पर विस्तार से बात की और बताया कि फिल्मों ने विभाजन को कभी विस्मरण, कभी स्मरण और कभी पुनर्व्याख्या के रूप में प्रस्तुत किया है.

“ट्रेन टू पाकिस्तान” और “गर्म हवा” जैसी फिल्मों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि पहली फिल्म ने विभाजन की त्रासदी को तीखेपन से दिखाया, तो दूसरी ने मुसलमानों की पीड़ा, विस्थापन और असुरक्षा की भावना को गहराई से चित्रित किया. इन फिल्मों ने इतिहास को केवल दर्ज नहीं किया, बल्कि उसे संवेदनाओं के साथ जीवित भी रखा.

प्रो. कुमार ने यह भी रेखांकित किया कि सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह समाज का आईना है—एक ऐसा दस्तावेज़, जो पीढ़ी दर पीढ़ी विभाजन की गूँज को आगे बढ़ाता है. विभाजन अब भी राजनीति, सामुदायिक रिश्तों और सांस्कृतिक पहचान की बहसों को आकार देता है। यही कारण है कि यह “जीवित” भी है और “स्थायी” भी.

चर्चा के दौरान कई विचारोत्तेजक प्रश्न सामने आए। शोधार्थियों और शिक्षकों ने जानना चाहा कि सिनेमा किस हद तक इतिहास को संरक्षित करता है और किस हद तक वह अपनी दृष्टि से उसे गढ़ता है.

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प्रो. भारती शर्मा ने भी इस बहस को आगे बढ़ाते हुए अपने विचार साझा किए. इस संवाद ने यह साफ़ कर दिया कि हिंदी फिल्में हमारे लिए सिर्फ़ कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि वे सामूहिक स्मृति और अनुभव का हिस्सा हैं.

डॉ. इती बहादुर ने व्याख्यान के प्रमुख बिंदुओं का सार प्रस्तुत करते हुए कहा कि विभाजन की स्मृतियाँ केवल इतिहासकारों की चिंताओं में नहीं सिमटीं, बल्कि सिनेमा ने उन्हें जनता के दिलो-दिमाग़ तक पहुँचाया है. उन्होंने प्रो. निर्मल कुमार का धन्यवाद किया कि उन्होंने अपने अनुभव और शोध से श्रोताओं को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया.

अंत में शोधार्थी सौम्या त्रिपाठी ने औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया और कुलपति प्रो. मज़हर आसिफ तथा रजिस्ट्रार प्रो. महताब आलम रिज़वी को विशेष रूप से आभार जताया.

यह व्याख्यान अपने आप में एक अनुभव था—इतिहास को समझने का, कला को परखने का और सिनेमा की संवेदनाओं के साथ विभाजन की त्रासदी को महसूस करने का. इसने श्रोताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि विभाजन की स्मृतियाँ क्यों अब भी हमारे सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा बनी हुई हैं.

जामिया का यह आयोजन केवल एक शैक्षणिक प्रयास नहीं था, बल्कि इसने यह भी साबित कर दिया कि सिनेमा में इतिहास को जीवित रखने की असाधारण शक्ति है. विभाजन भले ही अतीत का हिस्सा हो, लेकिन हिंदी फिल्मों की संवेदनशील अभिव्यक्ति ने इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा स्मरणीय बना दिया है.