मंजीत ठाकुर
वैश्विक महामारी कोविड-19 के समय बहुत सारी दिक्कतों के साथ एक बड़ी दिक्कत बच्चों की शिक्षा में आई बाधा थी.असम के पिछड़े जिले गोआलपाड़ा के हाथीशिला के मीर आलम के सामने भी ऐसी ही दिक्कत आई थी.
महामारी के दौरान जब स्कूल की कक्षाएं ऑनलाइन हो गईं तो मीर के परिवारवाले उन्हें मोबाइल फोन दिलाने में असमर्थ थे. बेहद गरीब घर के मीर के परिवार को दो जून की रोटी की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था. आमदनी का जरिया बंद हो गया तो मजबूरी में उनके पिता ने उन्हें गांव की चाय की दुकान में काम पर लगा दिया.
लेकिन, तब गांव में ऐसे मजबूर बच्चों के लिए उम्मीद की किरण बनकर आए एएसआइ एजुकेशन फैसिलिटेटर सरीफुल इस्लाम. सरीफुल ने मीर के पिता से बात करके उसको 15 दिनों के एक प्रेरक शिविर में भेजने के लिए राजी कर लिया. यह शिविर टाटा ट्रस्ट की मदद से आयोजित किया गया था.
इसके बाद मीर को चौथी कक्षा में हाथीशिला बीएन एमवी स्कूल में भर्ती कराया गया, जहां वह अब नियमित रूप से कक्षाओं में जाते हैं और उनकी तालीम की गाड़ी पटरी पर आ गई है.
मीर ऐसे अकेले नहीं हैं. असम के बक्सा जिले के तामुलपुर सबडिवीजन के चारण जंगल गांव की 13 साल की रंजली बोरो को भी स्कूल बीच में छोड़ना पड़ा क्योंकि सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई के बाद उनको अपने छोटे भाई को स्कूल भेजने की जिम्मेदारी उठानी थी. वहीं, उसी जिले के महेंद्रनगर गांव के 10 साल के सुजीत बर्मन ने स्कूल छोड़ दिया क्योंकि उसको पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था.
ये तीन बच्चे सिर्फ एक मिसाल हैं कि किस तरह असम में बच्चों को बुनियादी शिक्षा पूरी करने में समस्याओं का सामना करना होता है.
हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि असम में स्कूल छोड़ने की दर प्राथमिक और माध्यमिक दोनों स्तरों पर राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है. असम में माध्यमिक स्तर पर 2020-21 में 30.3 और 2021-22 में 20.3 था. इस बीच, प्राथमिक स्तर पर, असम में ड्रॉपआउट दर 10.1 है, जो देश में सबसे अधिक है.
असम में स्कूल से ड्रॉप आउट दर के अधिक होने के कई सारे कारण हैं. कई छात्रों को अपने परिवार की माली मदद करन के लिए या महज घरेलू काम में हाथ बंटाने के वास्ते अपनी पढ़ाई छोड़नी होती है.
इसके अलावा, उनके साथ एक असरदार बातचीत वाली प्रणाली—ताकि उनसे समझा जाए कि आखिर वह क्यों बीच में पढ़ाई छोड़ रहे हैं—की कमी की वजह से कई बच्चों को मूलभूत अवधारणाओं की समझ विकसित करने और अपने साथियों के साथ बने रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. एक अन्य प्रमुख चुनौती स्कूल जाने के महत्व के बारे में समुदाय के भीतर जागरूकता की कमी है.
इसी मसले को समझने के लिए टाटा ट्रस्ट ने असम स्टेट इनीशिएटिव (एएसआइ) शुरू किया. यह योजना 2019 में शुरू की गई थी. इस कार्यक्रम को टाटा के संस्थान सेंटर फॉर माइक्रोफाइनेंस ऐंड लाइवलीहुड (सीएमएल) ने लागू किया था और इसमें स्कूल छोड़ चुके बच्चों को वापस तालीम के रास्ते पर लाने के लिए प्रेरक शिविर लगाए जाते थे.
इस कार्यक्रम के तहत बच्चों को सीखने में आ रही समस्याओं से उबरने के गुर भी बताए जाते हैं.
माता-पिता को अपने बच्चों को दोबारा स्कूल भेजने के लिए राजी करना और उनकी शिक्षा को प्राथमिकता देने के लिए प्रोत्साहित करना एएसआई टीम द्वारा किए गए सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है. हालांकि, अधिकांश माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, लेकिन उनकी सामाजिक और माली हालत इसकी छूट नहीं देती.
बच्चों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने परिवार की मदद के लिए काम करें और घरेलू जिम्मेदारियां उठाएं, जिससे उनके पास अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए बहुत कम समय और ऊर्जा बचती है.
रंजली बर्मन के मामले में एएसआई फैसिलिटेटर ने पहले उनकी मां—जो सौतेल हैं—से बात की और उन्हें तालीम की अहमियत के बारे में बताया.
लेकिन चुनौतियां यहीं खत्म नहीं हुई थी. रंजली को कैंप के बाद घर लौटने के बाद भी अपने भाई की देखभाल करनी होती थी. ऐसे में एएसआई की टीम ने उनके घर के पास के स्कूल के हेडमास्टर की मदद ली. आखिरकार, रंजली का एडमिशन मार्च, 2021 में नागरीजुली के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में हो गया.
ऐसे कई बच्चों का जीवन शिक्षा के जरिए बदला जा रहा है. एसएआई क कार्यक्रम असम के चार जिलों बक्सा, बोंगाईगांव, गोआलपाड़ा और नलबाड़ी में चल रहा है. उनके कार्यक्रम के दायरे में 90 स्कूल शामिल हैं. पिछले तीन साल के भीतर इस कार्यक्रम की मदद से 1,237 स्कूल छोड़ चुके बच्चों को वापस स्कूल भेजने में कामयाबी मिली है और इसमें एजुकेशन फैसिलिटेटर्स ने 5,850 बच्चों को पढ़ाई की बुनियादी दिक्कतों से निबटने में मदद की है.