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झारखंड में राजधानी रांची की गलियों और मोहल्लों समेत दूसरे इलाकों में भी, अगर किसी नाम को उम्मीद, शिक्षा और इंसानियत से जोड़ा जाता है, तो वह है—इबरार अहमद का. पढ़िए आवाज द वॉयस के थे चेंज मेकर्स सीरीज के तहत झारखंड से हमारे सहयोगी जेब अख्तर की इबरार अहमद पर यह विस्तृत रिपोर्ट.
कभी बैंक की नौकरी करने वाले और सांस्कृतिक संस्था इप्टा से गहराई से जुड़े रहने वाले इबरार ने अपनी ज़िंदगी के तीन दशक से ज़्यादा समय समाज की बेहतरी के लिए समर्पित कर दिए. उनकी पहचान उस इंसान के तौर पर है जो वहां पहुंचता है, जहां कोई बच्चा फीस न होने से स्कूल छोड़ देता है, जहां बीमार गरीब इलाज के लिए भटक रहे होते हैं, या जहां सांप्रदायिक तनाव से समाज टूटने की कगार पर खड़ा होता है.
इबरार अहमद ने केवल निजी तौर पर ही नहीं, बल्कि संस्थागत मोर्चों पर भी अपनी सक्रियता दर्ज कराई है. वे मौलाना आज़ाद ह्यूमन इनिशिएटिव (माही), साझा मंच झारखंड (समझ) और मजलिस जैसे संगठनों के संयोजक रहे. “अंजुम इबरार फाउंडेशन” के डायरेक्टर के तौर पर उन्होंने व्यक्तिगत संसाधनों से भी लोगों की मदद की. अगस्त 2013 से अगस्त 2022 तक वे अंजुमन इस्लामिया रांची और उसके अस्पताल के अध्यक्ष रहे. इसके अलावा वे रेड क्रॉस सोसायटी, YMCA, झारखंड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री और कंट्री क्रिकेट क्लब जैसे संस्थानों से बतौर लाइफ-मेंबर जुड़े रहे हैं.
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शिक्षा: मोहल्लों से लेकर लाइब्रेरी तक
इबरार अहमद का मानना है कि “शिक्षा ही वह चाबी है जो समाज की बंद तिजोरी खोल सकती है.” यही सोच उन्हें बार-बार बच्चों और युवाओं तक ले जाती रही. अंजुमन इस्लामिया रांची के सदर रहते हुए उन्होंने गरीब बच्चों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था करवाई, टैलेंट शो और क्विज प्रतियोगिताएं शुरू कीं, ताकि पढ़ाई केवल किताबों तक सीमित न रहे, बल्कि आत्मविश्वास और हुनर दोनों बच्चों तक पहुंचे.
कोविड-19 महामारी के समय जब स्कूल बंद हो गए और ऑनलाइन पढ़ाई केवल उन बच्चों तक सीमित रह गई जिनके पास स्मार्टफोन या लैपटॉप था, तब हजारों बच्चे पढ़ाई से कट गए. ऐसे वक्त में इबरार ने “मोहल्ला शिक्षा केंद्र” की शुरुआत की. हिंदपीढ़ी, आज़ाद बस्ती, अलीनगर जैसे अति पिछड़े इलाकों में छोटे-छोटे क्लासरूम बने, जहां कॉलेज स्टूडेंट्स और वॉलंटियर टीचर्स बच्चों को पढ़ाते थे. किताबें और कॉपियां मुफ्त दी जातीं और कोविड प्रोटोकॉल का पालन भी किया जाता.
शिक्षा को नए आयाम देने के लिए उन्होंने 2020 में कांके प्रखंड के पिरुटोला गांव में मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी और स्टडी सेंटर की स्थापना की. जिस गांव में किताबें दूर का सपना थीं, वहां यह लाइब्रेरी बच्चों और युवाओं की नई दुनिया बन गई. इसी तरह, हर साल मौलाना आज़ाद की जयंती पर आयोजित शिक्षा और सांस्कृतिक मेले में सैकड़ों बच्चे अपनी प्रतिभा दिखाते हैं—कहीं नृत्य, कहीं भाषण, कहीं क्विज़.
इबरार ने माही (मौलाना आज़ाद ह्यूमन इनिशिएटिव) संस्था के बैनर तले “क्विक मैथ्स” और “वैदिक गणित” जैसे वर्कशॉप भी करवाए, जिनमें बड़ी संख्या में लड़कियों ने भाग लिया. उनका मानना है कि शिक्षा केवल डिग्री नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और समाज बदलने का सबसे बड़ा औज़ार है.
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हेल्थ: गरीबों के लिए राहतगाह
अगर शिक्षा बच्चों के सपनों को पंख देती है, तो स्वास्थ्य गरीबों की सांसों को बचाता है. इबरार अहमद ने अपने साथियों के साथ इस मोर्चे पर भी अपनी छाप छोड़ी. अंजुमन इस्लामिया हॉस्पिटल, रांची में उनके कार्यकाल के दौरान कई सुधार किए गए. इलाज को सस्ता और सहज बनाया गया, ताकि गरीब भी बिना चिंता के वहां जा सकें. गरीब मरीजों को मुफ्त दवाइयां और टेस्ट की सुविधा मिली. अस्पताल अब केवल एक इमारत नहीं, बल्कि जरूरतमंदों की राहतगाह बन चुका है.
इबरार की संस्था माही ने लगातार मुफ्त मेडिकल कैंप लगाए. हिंदपीढ़ी और आसपास के इलाकों में डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसे रोगों की जांच और इलाज मुफ्त किया गया. एक कैंप में 90 से अधिक मरीजों को बिना किसी खर्च के इलाज मिला. सर्दियों में कंबल वितरण कर उन्होंने यह भी दिखाया कि सामाजिक सेवा केवल इलाज तक सीमित नहीं, बल्कि इंसान की गरिमा से भी जुड़ी है. इबरार का कहना है—“इलाज गरीब का हक है, दया नहीं.” यही सोच उन्हें बार-बार इस मोर्चे पर सक्रिय रखती है.
संस्कृति और सामाजिक एकता: इप्टा से जोहार झारखंड तक
इबरार की जड़ें संस्कृति से भी गहराई से जुड़ी हैं. इप्टा के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिए सांप्रदायिक सद्भाव की मुहिम चलाई. लोक कलाकारों के साथ मिलकर उन्होंने “जोहार झारखंड” नाम से 51 एपिसोड की डॉक्यूमेंट्री श्रृंखला तैयार की, जिसे दूरदर्शन ने प्रसारित किया.
2014 में रांची के सिलगाई-चान्हो इलाके में जब दंगा भड़का, तो वे केवल तमाशबीन नहीं बने रहे. उन्होंने पद्म भूषण सम्मानित कलाकार मुकुंद नायक और मधु मंसूरी जैसे नामों के साथ शांति-डेलिगेशन का नेतृत्व किया. दोनों समुदायों से संवाद, सांस्कृतिक प्रस्तुतियां और भरोसा बहाल करने की कोशिशों से हालात काबू में आए.
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पत्रकारिता और कलम की ताकत
इबरार अहमद ने समाज को केवल कामों से ही नहीं, अपनी कलम से भी दिशा दी. वे छोटा नागपुर मेल और आलम-ए-झारखंड के संपादक रहे. इसके अलावा उन्होंने “सबरंग” नाम से एक समाचार चैनल भी शुरू किया. उनकी पत्रकारिता का मकसद केवल खबर देना नहीं, बल्कि हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ बनना था.
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अधूरी मगर जीवंत कहानी
इबरार अहमद की कहानी किसी निष्कर्ष पर नहीं रुकती. यह लगातार आगे बढ़ती हुई इबारत है. कभी मोहल्ला शिक्षा केंद्र में पढ़ते बच्चे, कभी अस्पताल में चैन की सांस लेता गरीब मरीज, कभी दंगे के बाद गले मिलते दो समुदाय—इन सबमें उनका काम झलकता है. उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ी, कारोबार संभाला, लेकिन असली पहचान समाज के बीच बनाई.
उनकी संस्थागत भूमिकाएं—माही, साझा मंच, मजलिस, अंजुमन इस्लामिया, अंजुम इबरार फाउंडेशन और कई अन्य संगठनों में उनकी मौजूदगी—इस बात का सबूत हैं कि उन्होंने अपने दायरे को केवल एक मोहल्ले या इलाके तक सीमित नहीं रखा. रांची और झारखंड की ज़मीन आज गवाही देती है कि इबरार अहमद ने अपनी जिंदगी इंसानियत को जिंदा रखने के लिए रख छोड़ी है.
