अफ़साना—निगार इस्मत चुग़ताई और उनका अदब

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 2 Years ago
उर्दू साहित्यकार इस्मत चुग़ताई
उर्दू साहित्यकार इस्मत चुग़ताई

 

आवाज विशेष । इस्मत चुग़ताई    

ज़ाहिद ख़ान

हिंदी, उर्दू अदब की दुनिया में ‘इस्मत आपा’ के नाम से मशहूर इस्मत चुग़ताई की पैदाइश उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर में 21 अगस्त, 1915 को हुई. उनका बचपन और जवानी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कई शहरों में गुज़रा. बाद में वे बंबई पहुंची, तो वहीं की होकर रह गईं. इस्मत चुग़ताई की ज़िंदगानी पर शुरुआत से यदि ग़ौर करें, तो उन्हें बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक़ था. हिजाब इम्तियाज़ अली, मौलवी नज़ीर अहमद, अल्लामा राशिदुल-ख़ैरी, हार्डी, ब्रांटी सिस्टर्ज से शुरू करके वे जार्ज बर्नार्ड शा तक पहुंचीं. चार्ल्स डिकेंस को पढ़ा, डेविड कॉपरफील्ड, ओलिवर ट्विस्ट, टोनो बंगे आदि सभी पढ़ डाले. मगर उन्हें सबसे ज्यादा मुतासिर रूसी अदीबों ने किया.

अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने दुनिया भर के प्रसिद्ध लेखक गोर्की, एमिली जोला, गोगोल, टॉलस्ताय, दास्तायेव्स्की, मोपासां, बाल्जक, माम, हेमिंग्वे वगैरह की रचनाएं खोज-खोजकर पढ़ीं. खास तौर पर वे चेख़व से काफी प्रभावित थीं. जब वे किसी कहानी पर अटक जातीं, या वह कहानी जैसा वह चाह रहीं हैं, नहीं बन पा रही होती, तो वे कहानी को छोड़कर चेख़व की कहानियां पढ़ने लगतीं. ज़ाहिर है इसके बाद उनकी कहानी अपनी राह पर आ जाती.

लिखने में वे हमेशा पढ़ने का लुत्फ़ महसूस करती थीं. यही वजह है कि उनकी कहानियों में पाठकों को भी लुत्फ़ आता है. एक बार जो कोई उनकी कहानी उठाता है, तो मजाल है कि वह अधूरी छूट जाए. जहां तक इस्मत चुग़ताई की कहानियों की भाषा का सवाल है, तो वे अपनी कहानियों में अरबी, फारसी के कठिन अल्फाज़ों के इस्तेमाल से बचती थीं. घरों में बोले जाने वाली ज़बान, उनकी कहानियों की भाषा है. जिसमें उर्दू ज़बान भी है और हिंदी भी. उनके सारे अदब को उठाकर देख लीजिए, उसमें ठेठ मुहावरेदार और गंगा-जमुनी ज़बान ही मिलेगी. उनकी भाषा को हिन्दी-उर्दू की हदों में क़ैद नहीं किया जा सकता. उनका भाषा प्रवाह शानदार है. फिर वह किरदारों की ज़बान हो या फिर नेरेशन की भाषा. अपनी रचनाओं में वे कई जगह व्यंग्य करने और चुटकी लेने से भी बाज नहीं आतीं. व्यंग्य करने और चुटकी लेने का उनका अंदाज़ कुछ-कुछ मंटों की तरह है.

बयान में अल्फ़ाज़ को बक़द्रे किफ़ायत इस्तेमाल करना इस्मत चुग़ताई की नुमायां ख़ासियत रही है. उनके किसी भी अफ़साने को उठाकर देख लीजिए, वे जिन अल्फ़ाज़ों को इस्तेमाल करती हैं, पूरी तरह से सोच-समझकर करती हैं.

इस्मत चुग़ताई किस तरह से अपना लेखन करती थीं, इसके बारे में मंटो लिखते हैं,‘‘इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं. न लिखें तो महीनों गुज़र जाते हैं, पर जब दौरा पडे़ तो सैंकड़ों सफ्हे उसके कलम के नीचे से निकल जाते हैं. खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता. बस हर वक्त चारपाई पर कोहनियों के बल पर औंधी अपने टेड़े-मेढ़े आराब और इमला से बेनियाज़ ख़त में कागज़ों पर अपने ख़्यालात मुंतकिल करती रहती हैं. ‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तूल-तवील नाविल, मेरा ख़याल है, इस्मत ने सात-आठ निशस्तों में ख़त्म किया था.’’ (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 5, पेज 65)

इस्मत चुग़ताई के एक और समकालीन कृश्न चंदर, इस्मत के बयान की रफ़्तार के मुताल्लिक लिखते हैं,‘‘अफ़सानों के मुतालों से एक और बात जो ज़हन में आती है, वह है घुड़दौड़. यानि रफ़्तार, हरकत, सुबुक ख़रामी और तेज गामी. न सिर्फ अफ़साना दौड़ता हुआ मालूम होता है, बल्कि फ़िक्रे, किनाए और इशारे और आवाज़ें और किरदार और जज़्बात और अहसासात, एक तूफ़ान की सी बलाखेजी के साथ चलते और आगे बढ़ते नजर आते हैं.’’ लेकिन इन सब बातों से इतर इस्मत चुग़ताई ख़ुद अपनी लेखन कला के बारे में कहती थीं, ‘‘लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है, जैसे पढ़ने वाले मेरे सामने बैठे हैं, उनसे बातें कर रही हूं और वो सुन रहे हैं. कुछ मेरे हमख़्याल हैं, कुछ मोतरिज हैं, कुछ मुस्करा रहे हैं, कुछ गुस्सा हो रहे हैं. कुछ का वाकई जी जल रहा है. अब भी मैं लिखती हूं तो यही एहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूं.’’

इस्मत चुग़ताई हद दर्जे की बातूनी थीं. सच बात तो यह है कि कहानी कहने का हुनर उन्होंने लोगों की बातों से ही सीखा था. वे हर शख़्स से बात कर सकती थीं और महज़ पांच मिनिट में उसकी ज़िंदगी का बहुत कुछ जान लेती थीं.

वे जब अलीगढ़ में थीं, तो उनके घर एक धोबी आता था, वे उससे घंटों गप्पे मारा करतीं. उस धोबी से उन्होंने न सिर्फ बहुत सारे किस्से-कहानी सुने, बल्कि निम्न वर्ग का तबका किस तरह की ज़बान बोलता है, वह भी सीखी. ज़ाहिर है कि ज़िंदगी के यही तजुर्बात बाद में उनकी बहुत सी कहानियों में काम आए. इस्मत चुग़ताई की कहानी, उपन्यासों के ज़्यादातर किरदार, उन्होंने अपने आस-पास से ही उठाए हैं. कहानी ‘बच्छू फूफी’ की अहम किरदार बच्छू फूफी और ‘लिहाफ़’ कहानी की बेगमजान और रब्बो को वे अच्छी तरह से जानती थीं. यही वजह है कि ये किरदार इतने प्रभावी और जानदार बन पड़े हैं. कहानी ‘दोजखी’ भी उनके बड़े भाई अजीम चुग़ताई के ऊपर है.

परंपरावादियों ने इस कहानी की बड़ी आलोचना की, लेकिन यह कहानी अपने प्यारे भाई को याद करने का उनका अपना एक अलग तरीका था. इस्मत की कहानियों में एक अजीबो-गरीब जिद या इंकार आम बात है. ये जिद इसलिए भी दिखाई देती है, क्योंकि उनके मिज़ाज में भी बला की जिद थी. वे जो बात ठान लेतीं, उसे पूरा करके ही दम लेतीं थीं.

इस्मत चुग़ताई, तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़ी रही एक और बड़ी अफ़साना—निगार रशीदजहां से बचपन से ही बहुत ज्यादा प्रभावित थीं. अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में वे ख़ुद इस बात को तस्लीम करती हैं, ‘‘रशीदजहां ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतासिर किया था. मैंने उनसे साफ़गोई और ख़ुद्दारी सीखने की कोशिश की.’’ इस्मत चुग़ताई के बड़े भाई अजीम चुग़ताई भी एक अच्छे अफ़साना—निगार थे, उन्होंने कहानी बयां करने का हुनर उनसे बहुत कुछ सीखा. अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में वे इसके मुतआल्लिक लिखती हैं, ‘‘उनसे मैंने सीखा कि अगर कुछ कहना है तो कहानियों, किस्सों में लपेटकर कहो, कम गालियां मिलेंगी. ज़्यादा लोग पढ़ेंगे और मुतासिर होंगे. कहानियां लिखने से पहले मैंने कई मजामीन लिखे जो छपे भी, मगर किसी ने तवज्जोह न दी. दो-चार कहानियां लिखी थीं कि ले-दे शुरू हो गई. जैसे टेलीफोन पर आप जो चाहे कह दीजिए, कोई थप्पड़ नहीं मार सकता. वैसे ही कहानियां में कुछ भी लिख मारिए, कोई हाथ आपके गले तक नहीं पहुंचेगा.’’ (इस्मत चुग़ताई-कागजी है पैरहन, पेज-17) 

कहानियों को मिली तारीफ़ के बाद इस्मत चुग़ताई ने आलेख लिखना छोड़ दिया और पूरी तरह से  कहानी के मैदान में आ गईं. उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘बचपन’ शीर्षक से लिखी और उसे पत्रिका ‘तहज़ीबे-निस्बां’ में छपने के लिए भेज दिया. कुछ दिन के बाद कहानी वापस आ गई और साथ ही ‘तहज़ीबे-निस्बां’ के एडीटर मुमताज़ अली का डांट-फटकार भरा ख़त भी. जिसमें उन्होंने इस कहानी में किरअत के मजाक उड़ाने पर चुग़ताई की निंदा की थी और उनकी इस हरकत को अधार्मिकता एवं गुनाह बतलाया था. बहरहाल बाद में जब इस्मत चुग़ताई की कहानियां सब जगह छपने और तारीफ़ बटोरने लगीं, तो यह कहानी पत्रिका ‘साकी’ में छपी और पाठकों द्वारा बेहद पसंद की गई.

कहानी ‘लिहाफ़’ के अलावा इस्मत चुग़ताई ने और भी कई अच्छी कहानियां लिखीं. जिनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी की ‘लिहाफ़’ की. कहानी ‘चौथी का जोड़ा’ और ‘मुगल बच्चा’ उनकी बेमिसाल कहानियां हैं. इन कहानियां को पढ़कर लगता है कि इस्मत चुग़ताई क्यों अज़ीम अफ़साना—निगार हैं. इस्मत चुग़ताई इंसान-इंसान के बीच समानता की घोर पक्षधर थीं. औरत और मर्द के बीच में भी असमानता देखकर, वह हमलावर हो जाती थीं.‘‘मसावात (समानता) का फ़ुकदान (अभाव) अमीर-गरीब के मामले में ही नहीं, औरत और मर्द के मुकाबले में तो और भी ज़्यादा है. मेरे वालिद तो रोशनख़्याल थे. उसूलन भी लड़कों से लड़कियों के हुक़ूक़ का ज़्यादा ख़याल रखते थे, मगर वही बात थी जैसे हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई. लड़का-लड़की बराबर. चंद नारे थे जिनकी लेप-पोत निहायत ज़रूरी समझी जाती थी.’’ (इस्मत चुग़ताई-'कागजी है पैरहन', पेज-13)

‘कागजी है पैरहन’ कहने को इस्मत चुग़ताई की आत्मकथा है, लेकिन एक लिहाज़ से देखा जाए, तो इस किताब में जगह-जगह स्त्री विमर्श के नुक़ते बिखरे पड़े हैं. अपनी बातों और विचारों से वे कई जगह पितृसत्तात्मक मुस्लिम समाज की बखिया उधेड़ती हैं. इस्मत चुग़ताई के कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए. जिसमें प्रमुख हैं, ‘चोटें’, ‘छुईमुई’, ‘एक बात’, ‘कलियां', ‘एक रात’, ‘दो हाथ’, ‘दोजखी’, ‘शैतान’ आदि. वहीं साल 1941 में प्रकाशित ‘जिद्दी’ उनका पहला उपन्यास था. ‘टेढी लकीर’, ‘एक कतरा ए खून’, ‘दिल की दुनिया’, ‘मासूमा’, ‘बहरूप नगर’, ‘सैदाई’, ‘जंगली कबूतर’, ‘अजीब आदमी’, ‘बांदी’ उनके दीगर उपन्यास हैं.

इस्मत चुग़ताई के पति शाहिद लतीफ़ अपने ज़माने के मशहूर फिल्म लेखक और निर्देशक थे. इस्मत भी फिल्मों से जुड़ी रहीं. उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनीं. इसके अलावा उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा भी लिखी. फिल्म ‘जुगनू’ में अभिनय किया. निर्देशक एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’, इस्मत चुग़ताई की कहानी पर ही बनी थी. जिसके लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड मिला. इस्मत चुगताई को कई सम्मानों से नवाज़ा गया. उन्हें मिले प्रमुख सम्मान हैं, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘गालिब अवार्ड’, ‘इक़बाल सम्मान’, ‘मख़दूम अवार्ड’ आदि. 24 अक्टूबर, 1991 को इस्मत चुग़ताई इस जहान—ए—फ़ानी से हमेशा के लिए रुख़सत हो गईं.