मलिक असगर हाशमी /नई दिल्ली
मणिपुर पिछले कई महीनों से अस्थिरता और हिंसा के दौर से गुजर रहा है. ऐसे कठिन हालातों के बीच जब पूरी दुनिया से दूर एक छोटा सा राज्य संघर्ष कर रहा था, तभी उसी मणिपुर से निकले एक युवक ने अपने हौसले और हिम्मत से देश का नाम दुनिया भर में रोशन कर दिया. जॉन खाम्मुनलाल ग्विटे — एक ऐसा नाम, जो अब भारत की खेल गाथा में प्रेरणा की तरह दर्ज हो गया है.
जॉन ने दुनिया की सबसे कठिन मानी जाने वाली साइक्लिंग रेसों में से एक — ‘रेस अराउंड पोलैंड’ को महज 237 घंटों में पूरा कर दिखाया. यह दूरी थी 3,600 किलोमीटर, जिसमें शामिल थी 31,000 मीटर से ज़्यादा की चढ़ाई.
ये किसी आम साइकिल राइडर के बस की बात नहीं थी. और जॉन ने इसे न केवल अकेले, बल्कि बिना किसी सपोर्ट टीम, बिना मेडिकल सुविधा, बिना किसी विशेष उपकरण या आरामदायक व्यवस्था के पूरा किया.
पोलैंड में भारतीय परचम
इस रेस को वर्ष 2025 की ‘वर्ल्ड अल्ट्रा साइक्लिंग चैंपियनशिप’ का हिस्सा भी बनाया गया था. इसमें दुनिया भर से 60 से अधिक अनुभवी और श्रेष्ठ साइक्लिस्ट्स ने भाग लिया. लेकिन जॉन अकेले थे.
उनके साथ न कोई मैकेनिकल क्रू था, न कोई फिजियोथेरेपिस्ट, न कोई पोषण विशेषज्ञ. जहाँ बाकी राइडर्स महंगी तकनीक और सपोर्ट स्टाफ से लैस थे, वहीं जॉन ने अपने शरीर, आत्मा और विश्वास के दम पर पूरी रेस को नापा.
रेस के दौरान जॉन को कई बार भीषण ठंड से जूझना पड़ा. एक रात की घटना याद करते हुए उन्होंने बताया कि उनके पास गर्म कपड़े नहीं थे. उन्होंने लोकल दुकानों से पॉलीथीन इकट्ठा की. उसी से जैकेट और नी वॉर्मर बनाए.
जॉन कहते हैं, "इसी पॉलीथीन जैकेट ने मेरी रेस बचाई." यह जज़्बा केवल एक खिलाड़ी का नहीं, एक योद्धा का था — जो न रुकता है, न झुकता है.
मणिपुर से वैश्विक मंच तक
37 वर्षीय जॉन ग्विटे मणिपुर के चुराचांदपुर जिले से ताल्लुक रखते हैं. पाइते जनजाति से हैं. भारत जैसे देश में, जहाँ क्रिकेट हर खेल को पीछे छोड़ देता है, वहाँ अल्ट्रा-साइक्लिंग एक लगभग अज्ञात और उपेक्षित क्षेत्र है.
लेकिन ग्विटे जैसे खिलाड़ी उसी उपेक्षा को अपनी ताकत बनाकर निकलते हैं. न टीवी कवरेज, न स्पॉन्सरशिप, न स्टेडियम की तालियाँ — केवल थकावट और गति.जॉन कहते हैं, "जब लोग भारत के बारे में सोचते हैं तो साइक्लिंग उनके दिमाग में नहीं आता, लेकिन हम इसे बदल रहे हैं — एक-एक राइड के ज़रिए."
जॉन ग्विटे ने इससे पहले भी कई कठिन राइड्स पूरी की हैं. उन्होंने पेरिस-ब्रेस्ट-पेरिस रेस को 59 घंटे में पूरा किया — जिसे साइक्लिंग का ओलंपिक भी कहा जाता है. इस रेस में 9,000 से अधिक राइडर्स ने भाग लिया था. जॉन ने 248वां स्थान प्राप्त किया. इसके बाद उन्होंने 2022 में लंदन-एडिनबर्ग-लंदन रेस को भी 110 घंटे में पूरा किया, जिसकी दूरी थी 1,535 किलोमीटर.
भारत में भी बनाए रिकॉर्ड
भारत में भी जॉन ने कई अल्ट्रा राइड्स को अंजाम दिया है. वाघा बॉर्डर से कन्याकुमारी और जोग फॉल्स से देवप्रयाग तक की यात्राएँ, कोस्ट टू क्रेस्ट जैसी चुनौतीपूर्ण राइड को 35 घंटों में पूरा करना और ट्रांस-हिमालयन 1200 जैसी ऊँचाई और ऑक्सीजन की कमी वाली राइड को 62 घंटों में नाप देना — ये सब जॉन के जीवन की साधना बन चुकी हैं.
उन्होंने अब तक 19 सुपर रैंडोनूर खिताब जीते हैं — जो अल्ट्रा-साइक्लिंग में एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. भारत में रैंडोनूर समुदाय भले ही छोटा है, लेकिन जॉन ने इसे वैश्विक स्तर पर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
रेस अराउंड पोलैंड: धीरज, दर्द और दृढ़ता
'रेस अराउंड पोलैंड' को साइक्लिंग की सबसे कठिन और सबसे अकेली रेसों में से एक माना जाता है. इसमें न रुकने की अनुमति होती है, न ही किसी बाहरी मदद की. राइडर को वही खाना होता है जो रास्ते में मिलता है. जहाँ नींद आए, वहीं सड़क या घास पर सो जाना होता है.
रेस के दौरान कई प्रतियोगी चोट, थकावट या मैकेनिकल फेल्योर के कारण रेस छोड़ देते हैं. लेकिन जॉन ने न केवल पूरी रेस पूरी की, बल्कि 10 दिनों से भी कम समय में इसे नाप कर पहले भारतीय बनने का गौरव भी हासिल किया.
अमेरिका की ओर अगला कदम
अब जॉन की निगाहें हैं रेस अक्रॉस अमेरिका (RAAM) पर — जिसे अल्ट्रा-साइक्लिंग की सबसे बड़ी चुनौती माना जाता है. इस रेस में प्रतिभागियों को 3,000 मील (लगभग 4,800 किलोमीटर) की दूरी 12 दिनों के भीतर पूरी करनी होती है. यह रेस पश्चिमी तट से शुरू होकर पूर्वी तट तक जाती है और इसमें केवल सबसे मजबूत ही टिक पाते हैं.
पोलैंड की रेस ने जॉन को इस प्रतिष्ठित रेस के लिए क्वालिफाई करा दिया है. अब वे भारत की ओर से अमेरिका की सबसे कठिन साइक्लिंग रेस में हिस्सा लेने जा रहे हैं..
जॉन ग्विटे की यह यात्रा सिर्फ व्यक्तिगत विजय नहीं है, यह भारत के उस हिस्से की कहानी है जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है . यह कहानी है एक ऐसे युवक की, जिसने स्पॉन्सर नहीं, लेकिन सपने देखे. जिसने ट्रैक नहीं, लेकिन ट्रायल्स को अपनाया. जिसने ध्यान आकर्षित करने के लिए नहीं, बल्कि खुद को हराने के लिए साइकिल चलाई.
रेस के हर मोड़, हर चढ़ाई, हर थकावट के बीच जॉन ने एक साधक की तरह साइकिल चलाई. यह यात्रा केवल एक साइक्लिंग रेस नहीं थी — यह एक तीर्थ थी, जिसमें हर पैडल भारत को नई पहचान दिला रहा था.
जॉन ग्विटे अब सिर्फ एक नाम नहीं, एक प्रेरणा हैं — उन सबके लिए जो सीमाओं को चुनौती देना चाहते हैं. जो अकेले हैं, लेकिन हार मानना नहीं जानते। क्योंकि जब जुनून सवार हो, तो न टीम की ज़रूरत होती है, न सपोर्ट की. सिर्फ एक साइकिल, एक सपना और वह पागलपन जो इतिहास रच देता है.