निर्मल का होना

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 23-12-2025
To be pure
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dमलिक असगर हाशमी की कलम से

“निर्मल यह करेगा?”
“निर्मल को बुलाओ, उसकी राय सही होती है।”
“सब घर से चले जाएंगे, तो निर्मल मेरे साथ रात में रहेगा।”
“निर्मल, कल बाइक ले आना,तुम्हारे साथ ऑफिस चलेंगे।”
 
ये वाक्य साधारण नहीं हैं। ये किसी बातचीत के टुकड़े नहीं, बल्कि समय की हथेली पर लिखे गए भरोसे के दस्तावेज़ हैं। इनमें वर्षों की संगत, अनकही जिम्मेदारियाँ और वह अपनापन है, जो खून के रिश्तों से परे जाकर भी उनसे कहीं अधिक सघन हो जाता है। ये वाक्य हमारे अब्बा और निर्मल के रिश्ते की तर्जुमानी करते हैं,ऐसे रिश्ते की, जो न नाम का मोहताज है, न पहचान का; जो बिना घोषणा के भी स्वीकार है।

निर्मल सिंह अब बिहार बिजली बोर्ड के क्लर्क पद से रिटायर हो चुके हैं। बच्चे दिल्ली और विदेशों में अपनी-अपनी दुनिया रच चुके हैं, मगर निर्मल आज भी गया शहर में अपने पुश्तैनी मकान में रहते हैं,जैसे जड़ों से जुड़ा कोई पुराना पेड़, जो बदलती हवाओं के बावजूद अपनी मिट्टी नहीं छोड़ता।
 
उनके घर से विष्णुपद मंदिर की दूरी महज़ एक किलोमीटर है। आसपास का इलाका घना हिंदू-बहुल है। घंटियों की ध्वनि, आरतियों की लौ और श्रद्धा की गंध हवा में घुली रहती है। पास ही नादरगंज मोहल्ला है, जहां एक प्रसिद्ध दरगाह है,जहां शाम होते ही दुआओं की सरगोशियाँ उठती हैं। गया जी रेलवे स्टेशन से विष्णुपद मंदिर या बोध गया जाना हो, तो निर्मल के घर या नादरगंज के करीब से होकर ही रास्ता निकलता है,जैसे यह इलाका खुद दो आस्थाओं के बीच से गुजरने की आदत सिखाता हो।
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कभी-कभी इस इलाके में तनाव की खबरें ज़रूर सुनाई देती हैं। मगर ऐसा कभी नहीं हुआ कि लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे बन जाएँ। जैसे परिवारों में कहासुनी हो जाती है, वैसे ही मोहल्लों में भी,पर रिश्तों की बुनियाद सलामत रहती है। निर्मल इसी माहौल में पले-बढ़े हैं, जहां मतभेद के बीच भी मेल की जगह बची रहती है।
 
हम लोग यानी हमारे अब्बा का परिवार गया रेलवे स्टेशन के पास मुरारपुर मोहल्ले के हैं। यह इलाका मिश्रित आबादी का है,जहां हिंदू, मुसलमान, सिख साथ रहते हैं, साथ चलते हैं, साथ ठहरते हैं। हमारे पुश्तैनी मकान तक पहुंचने के लिए स्टेशन से गुरुद्वारा रोड से होकर जाना पड़ता है। इस मोहल्ले की यारी में एक खास किस्म की बेफ़िक्री है,बिना दस्तक, बिना औपचारिकता। मेरे घर के पास एक चौराहे पर मंदिर है, दूसरे पर मस्जिद। एक किलोमीटर दूर दुखहरनी माई का मंदिर है और महज़ पचास मीटर पर शहर की सबसे बड़ी जामा मस्जिद। हमने आंख खोली तो यही दुनिया देखी,जहां अज़ान और आरती एक-दूसरे की प्रतिध्वनि बनकर जीती थीं, और धर्म दीवार नहीं, पुल हुआ करता था।
 
 
हम आठ भाई-बहन हैं। इस बड़े परिवार में निर्मल और उसका परिवार अलग जगह रखते हैं,कागज़ पर नहीं, दिल में। निर्मल मुझसे छोटा है, मगर हमारी तीनों छोटी बहनें उसे “भैया” कहती हैं। उसकी मां हम सबकी “चाची” हैं,जैसे रिश्ते की परिभाषा खुद-ब-खुद तय हो गई हो।
 
निर्मल के छोटे भाई भी हमारे अपने हैं,अलग पहचान की ज़रूरत के बिना। नई पीढ़ी भले उतनी निकट न रही हो, मगर जब मिलती है तो सम्मान और अपनत्व के साथ। नया दामाद हो या नई नवेली दुल्हन,सबसे पहले निर्मल के घर परिचय कराया जाता है, जैसे यह बताना ज़रूरी हो कि यह रिश्ता हमारे घर की रगों में दौड़ता है।
 
यह “पारिवारिक” रिश्ता आज का नहीं। इसकी जड़ें हमारे अब्बा और निर्मल के पिता,जिन्हें हम “चाचा जी” कहते थे,की नौकरी के दिनों में हैं। दोनों बिहार बिजली बोर्ड में साथ थे। यूनियन की बैठकों, संघर्षों और आंदोलनों में उनकी दोस्ती परवान चढ़ी। फिर एक दिन चाचा जी का आकस्मिक निधन हो गया। लगा, जैसे यह कहानी यहीं थम जाएगी। मगर हुआ इसके उलट,वक्त ने इस रिश्ते को और गहरा कर दिया।
 
निर्मल को नौकरी दिलाने में अब्बा की भूमिका निर्णायक रही। चाचा जी की जगह बेटे को नौकरी दिलाना आसान नहीं था। इसके लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। निर्मल खुद गर्व से बताते हैं कि एक बार इस कोशिश में अब्बा की अपनी नौकरी तक दांव पर लग गई थी। शायद इसी साहस और निस्वार्थता का असर है कि निर्मल आज भी अब्बा को “अब्बा” ही कहता है,बिना झिझक, बिना औपचारिकता। यह संबोधन सिर्फ़ शब्द नहीं, एक रिश्ते की मुहर है।
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अब्बा के खाली समय के दो ही सहारे हैं,किताबें और निर्मल। हाल में जब मैं गुरुग्राम से घर गया, तो अब्बा ने बड़े चाव से बताया कि कैसे एक कार्यक्रम में जाने के लिए निर्मल अपनी बाइक लेकर आया था। जाते-जाते यह ताकीद भी कर गया,“आपको कहीं भी जाना हो, बस मुझे फोन कर दीजिए।” इससे कुछ दिन पहले भांजी की शादी में घर के सारे लोग समारोह में चले गए थे। अब्बा घर में अकेले रह गए। उस अकेलेपन को महसूस करने के लिए किसी को बुलाना नहीं पड़ा,निर्मल खुद आ गया। रात वहीं रुका, जैसे यह उसका भी घर हो, जैसे इस घर की चुप्पी उसकी ज़िम्मेदारी हो।
 
आज के समय में, जब धर्म और संप्रदाय के नाम पर अविश्वास की दीवारें ऊँची होती जा रही हैं, हमारे रिश्तों में उलटा असर हुआ है और मजबूती आई है। हम एक-दूसरे के राज़ तक साझा कर लेते हैं। यह रिश्ता न किसी सौदे पर टिका है, न किसी स्वार्थ पर। यह भरोसे, साझा स्मृतियों और साथ निभाने की ज़िद पर खड़ा है।

निर्मल का होना,सिर्फ़ एक व्यक्ति का होना नहीं। यह उस सोच का होना है, जिसमें इंसानियत धर्म से बड़ी है, और रिश्ता पहचान से। शायद इसी को कहते हैं,साझी ज़िंदगी, साझा दिल। 

(लेखक आवाज द वाॅयस हिंदी के संपादक हैं)

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