इन नौ रावणों का भी अंत होना चाहिए

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  onikamaheshwari | Date 02-10-2025
These nine Ravanas should also be destroyed
These nine Ravanas should also be destroyed

 

 

प्रमोद जोशी

रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों के लेखन का उद्देश्य वेद के गूढ़ ज्ञान को सरल करना था. कोशिश यह थी कि आम लोगों को ये बातें कहानियों के रूप में सरल भाषा में समझाई जाएँ, ताकि उन्हें उनके कर्तव्यों की शिक्षा दी जा सके. भारतीय संस्कृति के प्राचीन सूत्रधारों ने ज्ञान को कहानियों, अलंकारों और प्रतीकों की भाषा में लिखा. ऐसी घटनाएँ और ऐसे पात्र हर युग में होते हैं. उनके नाम और रूप बदल जाते हैं, इसलिए इनके गूढ़ार्थ को आधुनिक संदर्भों में भी देखने की ज़रूरत है.

तुलसी के रामचरित मानस और वाल्मीकि की रामायण में रावण को दुष्ट व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है, जिसका वध राम ने किया. यह कहानी प्रतीक रूप में है, जिसके पीछे व्यक्ति और समाज के दोषों से लड़ने का आह्वान है. हमारे पौराणिक ग्रंथों में वर्णित रावण के दस सिरों की अनेक व्याख्याएँ हैं. मोटे तौर पर वे दस नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं. ये प्रवृत्तियाँ हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय. इन प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति रावण है.

रावण के पुतले का दहन इन बुराइयों को दूर करने और अच्छाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है. एक परिभाषा से ‘नौ प्रकार के रावण’नौ प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें रावण के दस सिरों से समझा जा सकता है. ऐसा भी माना जाता है कि रावण का एक सिर सकारात्मक ज्ञान का प्रतीक है, और शेष नौ नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि.  

सैकड़ों साल से रावण के हम पुतलों का दहन करते आए हैं, क्या उसी रावण को हम आज भी मारना चाहते हैं? क्या उन्हीं प्रवृत्तियों से हम लड़ते रहेंगे? क्या हमें उन नई प्रवृत्तियों के विरुद्ध लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए, जो आज के संदर्भ में प्रासंगिक हैं.

रामायण बताती है कि रावण विद्वान व्यक्ति था और नीति का विशेषज्ञ, पर उसके अवगुण उसे दुष्ट व्यक्ति बनाते थे. उसके दस सिरों में केवल एक सकारात्मक ज्ञान का प्रतीक था, शेष नौ अवगुणों के. प्रश्न है आज की परिस्थितियों में हम कौन से अवगुणों से युक्त नौ रावणों को मारना चाहेंगे? ऐसे नौ रावण, जिनका मरना देश और मानवता के हित में जरूरी है?

1.सांप्रदायिकता

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है सांप्रदायिकता के रावण को मारने की. इसका दोष किसी एक संप्रदाय को देने के बजाय उस सद्भाव और भाई-चारे को स्थापित करने की जरूरत है, जिसके तमाम उदाहरण हमारे बीच में हैं.

भारत के सामाजिक इतिहास में आप दो तरह की प्रवृत्तियों को पाएँगे. एक विभाजनकारी और दूसरी समन्वयकारी. दूसरों की बातों पर यकीन करने के बजाय आप खुद लोगों के बीच जाएँ और उनसे बात करें, तो पाएँगे कि लोगों की दिलचस्पी आपसी प्रेम से रहने में है, फिर भी हमें लगता है कि सांप्रदायिकता बड़ी समस्या है.

इसकी वजह पिछले दो सौ वर्षों के राजनीतिक-सामाजिक विकास में खोजी जा सकती हैं. जैसे-जैसे सामंतवाद के स्थान पर लोकतांत्रिक संस्थाओं ने भारत में जड़ें जमाईं, लोगों के मन में उनकी पहचान के आधार पर भय बैठाने की कोशिशें भी शुरू हुईं.

2.जातिवाद:

दूसरा बड़ा रावण. यह भी सामाजिक-राजनीतिक बदलावों की देन है. भारत की सामाजिक संरचना में जाति बहुत पुरानी अवधारणा है, जो जो श्रम के विभाजन पर आधारित थी, लेकिन अब यह समाज में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक असमानताओं के रूप में प्रकट होती है. इसके मूल में सामुदायिक समाज की संरचना और जातीय भावनाओं को भड़काने वाली राजनीति है.

स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी राजनीति ने जागरूकता फैलाने और सामाजिक-न्याय के लिए बहुत काम किया, पर दूसरा सच यह भी है राजनीतिक कारणों से जातिवादी प्रवृत्तियों को भी बल मिला. हमें इस रावण का भी दहन करना चाहिए. शिक्षा और आधुनिक पीढ़ी द्वारा सामाजिक न्याय के मूल्यों को अपनाने से यह काम हो सकता है.

3.अहंकार:

यह वह हजारों साल पुराना रावण है, जिसका दहन हम हर साल करते रहे हैं, पर वह हमारे बीच बना हुआ है. अहंकार किस बात का? धन का, रसूख का, पद का, ज्ञान का, शक्ति का. या ऐसी किसी बात का.

अहंकार की प्रवृत्ति स्वयं के महत्व की गलत धारणा है, जहाँ व्यक्ति खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है, जिससे पीछे उसकी आत्म-मुग्धता, दूसरों की भावनाओं की उपेक्षा और स्वार्थ की भावना होती है. इस प्रवृत्ति से बचने के लिए विनम्रता, आत्म-चिंतन और दूसरों की राय का सम्मान करने की प्रवृत्तियों को बढ़ाने की ज़रूरत है.

4.क्षेत्रवाद:

अपने आकार और जनसंख्या की दृष्टि से भारत खुद में एक दुनिया है, जो उसकी ताकत है. विविधता में एकता हमारी पहचान है, पर कई बार यही विविधता क्षेत्रवाद के रावण के रूप में हमें परेशान करती है.

फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिंद पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/काफ़िले बसते गए हिंदोस्ताँ बनता गया.’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है, पर कई बार सुदूर पूर्वोत्तर या उत्तर में या दक्षिण में क्षेत्रीयता से जुड़ी संकीर्ण भावनाएँ सर उठाती हैं.

स्वतंत्रता के बाद से देश ने कई तरह के अलगाववादी आंदोलनों का सामना किया और सफलतापूर्वक उन्हें परास्त भी किया. ‘एक भारत-एक आवाज़’का तीर ही क्षेत्रीय अलगाव के रावण का बध कर सकता है.

5.भाई- भतीजावाद:

एक तीर ‘भाई-भतीजावाद’के रावण को भी मारना चाहिए. हालमें नेपाल में हुए जेन-ज़ी आंदोलन के पीछे सारा रोष ‘भाई-भतीजावाद’को लेकर था. भाई-भतीजावाद, दोस्त-यारवाद, वंशवाद, परिवारवाद वगैरह का मतलब होता है मेरिट यानी काबिलीयत की उपेक्षा. जो होना चाहिए, उसका न होना.

हम मानें या न मानें देश में जुगाड़ का पूरा तंत्र है, जिसे ‘नेटवर्किंग’ कहते हैं. जब हमारा काम नहीं बनता तब हमें शिकायत होती है कि किसी दूसरे का काम ‘भाई-भतीजावाद’ की वजह से हो गया. तब हमारा मन उदास होता है. काबिलीयत के प्रमाणपत्र लेकर हम घर वापस लौट आते हैं.

यह अंतिम सत्य नहीं है. अंतिम सत्य है काबिलीयत. ज्यादा महत्वपूर्ण वह व्यवस्था है, जो काबिलीयत की कद्र करे. पर दुनिया की अच्छी से अच्छी व्यवस्था में भी खानदान का दबदबा है. ‘पेडिग्री’ सिर्फ पालतू जानवरों की नहीं होती.

6.महिला उत्पीड़न:

दुनिया का सबसे बड़ा मिशन है, भेदभाव की समाप्ति. यह भेदभाव किसी भी रूप में हो सकता है, पर सबसे बड़ा काम है स्त्रियों और पुरुषों में फर्क को मिटाना. बेशक दोनों की शारीरिक संरचनाएँ अलग है, पर स्त्रियों की क्षमता का हमारा समाज पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाता.

सवाल केवल भेदभाव दूर करने का नहीं है, बल्कि उत्पीड़न को रोकने का है.  हाल के वर्षों में स्त्री-चेतना की सबसे बड़ी परिघटना थी, दिसंबर 2012 में दिल्ली-रेपकांड के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन. इस आंदोलन के कारण भले ही कोई क्रांतिकारी बदलाव न हुआ हो, पर सामाजिक-व्यवस्था को लेकर स्त्रियों के मन में बैठी भावनाएँ निकल कर बाहर आईं.

ऐसे वक्त में जब लड़कियाँ घरेलू बंदिशों से बाहर निकल कर आ रहीं हैं, उनके साथ होने वाला दुर्व्यवहार बड़े खतरे की शक्ल में मुँह बाए खड़ा है. समय क्या शक्ल लेगा हम नहीं कह सकते, पर बदलाव को देख सकते हैं. एक तीर इस उत्पीड़क रावण की नाभि में लगना चाहिए.

7.कर्मचारियों का शोषण

इसके कई रूप हैं. आमतौर पर यह मालिकों और कर्मचारियों का टकराव है, पर यहाँ हमारा आशय उससे कुछ हटकर दफ्तरों में चलने वाले बॉसिज्म से है. फिजूल की दादागीरी.

यह समस्या भी भाई-भतीजावाद से मिलती-जुलती है. इसमें अपने पसंदीदा लोगों पर वरद हस्त और जिनसे नाराज़ हैं, उन्हें परेशान करने की भावना है. आधुनिक दुनिया के साथ सामंती प्रवृत्ति मेल नहीं खाती. यह रावण मैरिट की अनदेखी करता है. इस रावण का अंत भी होना चाहिए.

8.सोशल-मीडिया का दुरुपयोग:

यह नए किस्म का रावण है, क्योंकि इसका जन्म हाल में हुआ है. अतीत में भी यह होता था, पर गलियों के नुक्कड़ों पर कुछ लोगों की फुसफुसाहट के रूप में था, सबको सुनाई नहीं पड़ता था. अब हर हाथ में है और एक क्लिक से वार करता है.

सोशल मीडिया का दुरुपयोग लत, साइबरबुलिंग, गोपनीयता का उल्लंघन, गलत सूचना का प्रसार, और पहचान की चोरी जैसे व्यवहारों से इसका वास्ता है. इसके मानसिक प्रभावों में चिंता और अवसाद भा शामिल हैं, जबकि समाज पर इसका नकारात्मक प्रभाव लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और सार्वजनिक संवाद को कमजोर करता है.

फर्जी खबरें और झूठे प्रोफाइल भी सोशल मीडिया के दुरुपयोग के रूप हैं. इस रावण को कैसे मारेंगे इसके बारे में आप भी सोचें.

9. प्रकृति से छेड़छाड़:

अक्तूबर का महीना आ गया, पर बरसात नहीं गई. कभी यहाँ से और कभी वहाँ से बादल फटने की खबर आ रही है और पहाड़ों में बहने वाली छोड़ी-छोटी नदियाँ, समुद्र जैसी भयावह लगने लगी हैं.

बाढ़, भूस्खलन, अति वर्षा या सूखा. यह सब प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की देन है. यह किसी एक देश की समस्या नहीं है. हमसे हजारों किलो मीटर दूर हुए बदलाव भी हम पर भारी पड़ सकते हैं. इस रावण के खतरे पर ध्यान दीजिए.  

खतरे अनेक हैं और रावण भी सिर्फ नौ ही नहीं है. यहाँ नौ गिनाए हैं, आप इनका वध कीजिए. दूसरे रावण घबराकर खुद मुँह छिपाने लगेंगे. इनका अंत करने के लिए सबसे अच्छा हथियार है आपकी जागरूकता.

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)