Param Vir Chakra winner Abdul Hameed: He was fond of shooting since childhood, foiled the failed intentions of Pakistan
अर्सला खान
Param Veer Chakra Abdul Hamid: परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद ने साल 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965 Indo-Pak War) में अपना पराक्रम दिखाया था. 'असल उत्तर की लड़ाई' (Battle Of Asal Uttar) में हमीद ने अकेले ही एक झटके में पाकिस्तान के आठ पैटन टैंक बर्बाद कर दिए थे.
पाकिस्तान के तरण तारण जिले में एक गांव हैं, आसल उत्ताड़, जिसे अब 'असल उत्तर' के नाम से जाना जाता हैं. उसकी वजह है साल 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार अब्दुल हमीद और उनके साथियों की वीरता.
दरअसल, वीर अब्दुल हमीद की कहानी और 'असल उत्तर' एक-दूसरे से काफी मेल खाती है. यही वो गांव है, जहां ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट ने पाकिस्तान के पैटन टैंकों की कब्रगाह बना दी थी. अब्दुल हमीद इसी रेजिमेंट की चौथी बटालियन का हिस्सा थे.
वो साल था 1965..., यही युद्ध के शुरुआती दिन थे. पाकिस्तानी सेना की 1 आर्मर्ड डिविजन ने जीटी रोड पर राया और बेअस कस्बे पर कब्जा करने की नीयत से हमला बोल दिया.
मकसद था बेअस नदी पर बने पुल पर कब्जा करना. इसके पीछे का मंसूबा पंजाब का बड़ा हिस्सा भारत से अलग करना. शुरुआत में पाकिस्तानी फौज को कामयाबी भी मिली, मगर फिर भारतीय सेना ने ऐसा मुंह तोड़ जवाब दिया कि दुश्मन के पैटन टैंकों को छिपने की जगह भी नहीं मिली.
'टैंक डिस्ट्रॉयर' की वफादारी
अब्दुल हमीद का नाम लिए बिना सालृ 1965 युद्ध में टैंकों की लड़ाई की दास्तान नहीं लिखी जा सकेगी. ये बात है करीब 59 साल पहले की, दिन 10 सितंबर साल 1965.., यही वो दिन था जो अब्दुल हमीद ने देश पर न्योछावर कर दिया.
मरणोपरांत परमवीर चक्र (भारत का सबसे बड़ा वीरता पदक) से सम्मानित अब्दुल हमीद को 'टैंक डिस्ट्रॉयर' के नाम से आज भी जाना जाता है. पांच साल ऐंटी-टैंक सेक्शन में गुजारने के बाद अब्दुल हमीद को प्रमोट कर कंपनी का क्वार्टरमास्टर बना दिया गया था.
पूरी बटालियन में 106mm रिकॉइललेस राइफल पर हमीद से बेहतर निशाना किसी का नहीं था, इसलिए उन्हें रिकॉइललेस राइफल प्लाटून की कमान भी दे दी गई.
कितने दिन चली 'असल उत्तर' की लड़ाई?
6-7 सितंबर के बीच, पाकिस्तानी सेना के तेज एक्शन ने भारत की चौथी माउंटेन डिविजन को संभलने का मौका नहीं दिया. बॉर्डर से 5 किलोमीटर के अंदर, खेम करन पर पाकिस्तान का कब्जा हो चुका था. यह जगह आसल उत्ताड़ से 7 किलोमीटर दूर थी.
भारत को नए डिफेंस प्लान की जरूरत थी. साथ ही 4 ग्रेनेडियर्स के अलावा डिविजन की तीन और बटालियंस एक साथ आईं और आसल उत्ताड़ और चीमा गांव के बीच डिफेंस लाइन तैयार कर ली. असल उत्तर की लड़ाई 8 से 10 सितंबर 1965 के बीच चली, जिसके हीरों और कोई नहीं अब्दुल हमीद बने.
अब्दुल हमीद ने दुश्मनों को कैसे दिया चकमा?
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फिर क्या था पाकिस्तानी सेना ने अपने नाकाम इरादों के साथ पैटन टैंकों (M48) के साथ खेर करन में हमला बोल दिया.
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दुश्मनों की ओर से काफी ज्यादा शेलिंग और टैंक से फायरिंग हो रही थी. ऐसे में हमीद रिकॉइललेस गन (RCL) लगी जीप लेकर पीछे चले गए.
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इसके बाद आर्टिलरी से भयंकर बमबारी शुरू हुई. पाकिस्तानी सेना भारत की फारवर्ड कंपनी पोजिशंस भेजने में कामयाब हो गई.
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इसी बीच हमीद ने हथियारों की गूंज सुनी और दुश्मनों के कुछ टैंकों को अपनी बटालियन की ओर आते देखा.
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इस दौरान दुश्मन चौकन्ना न हो जाए, इसलिए ग्रेनेडियर्स ने फायर रोके गए. गन्ने के खेत में कवर लेते हुए हमीद ने अपनी बंदूक का मुंह दुश्मन के टैंकों की तरफ कर दिया.
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टैंक रेंज के भीतर आते ही हमीद ने अपने लोडर से गन लोड करके फायर करने को कहा. फिर एक-एक करके दुश्मनों के सारे नाकाम इरादों को छल्ली कर दिया.
एक के बाद एक चलाई गोलियां
शेलिंग और टैंकों के हमले जारी थे, मगर हमीद का हौसला कभी कम नहीं हुआ. मौका लगते ही अब्दुल हमीद ने कतार में आगे चल रहे दुश्मन के एक टैंक को उड़ा दिया.
पलभर में वह दूसरे टैंक पास थे और उसे भी तबाह कर दिया. अपनी रिकॉइललेस गन से दुश्मन के टैंकों पर दनादन फायरिंग कर रहे हमीद को उधर से आ रही गोलियों से जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था.
एक के बाद एक टैंक हमीद का शिकार बना. अब्दुल हमीद के साथी बताते हैं कि उन्होंने एक बार में 4 पैटन टैंक उड़ा दिए थे. दुश्मन के टैंक ऑपरेटर्स को अबतक समझ आ गया था कि उनपर हमला कहां से हो रहा है, जिसके बाद दुश्मन ने हमीद की जीप पर मशीन गन और भारी विस्फोटक दागने शुरू कर दिए.
लेकिन 'भारत के शेर' को अलग ही धुन में थे. बिना किसी डर के वो लगातार फायरिंग करते रहे थे. पॉइंट-ब्लैंक रेंज से हमीद ने पाकिस्तान के चार पैटन टैंकों को तबाह कर दिया और एक को किसी लायक नहीं छोड़ा. एक पाकिस्तानी टैंक की फायरिंग लाइन में आकर वह वीरगति को प्राप्त हुए.
पाकिस्तान पर भारी पड़ा भारत का ये वीर
अब्दुल हमीद की वीरता देखकर उनके साथी दोगुने जोश से दुश्मन पर टूट पड़े. इतिहास के सबसे बड़े टैंक युद्धों में से एक में पाकिस्तानी सेना ने एक बार फिर मुंह की खाई.
उसके 97 टैंक तबाह कर दिए गए. एक पूरी की पूरी कैवलरी रेजिमेंट को बंदी बना लिया गया. कई टैंक भी भारत के कब्जे में आ गए. युद्ध खत्म होने के बाद असल उत्तर से करीब 10 किलोमीटर दूर पत्तन टैंकों को प्रदर्शन के लिए रखा गया. वो जगह कुछ वक्त के लिए 'पत्तन नगर' के नाम से जानी गई. आज भी लोग वो टैंकर प्रदर्शनी देखने जाते हैं.
बचपन से ही निशानेबाजी का शौक
आपको बता दें वीर अब्दुल हमीद का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के धामूपुर गांव में 1 जुलाई, 1933 में हुआ था. बचपन में ही उन्होंने भारतीय सेना का हिस्सा बनने का सपना देखना शुरू कर दिया था.
इनके पिता पेशे से दर्जी थे, तो आर्मी का हिस्सा बनने से पहले वो अपने पिता की मदद करते थे. हालांकि, इसमें उन्हें खास दिलचस्पी नहीं थी, उनकी दिलचस्पी लाठी चलाने, कुश्ती करने और निशानेबाजी में थी.
अब्दुल हमीद को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. साल 1954 में सेना में भर्ती हुए अब्दुल हमीद ने 1962 में चीन के खिलाफ भी युद्ध लड़ा. उनकी याद में 4 ग्रेनेडियर्स ने असल उत्तर में एक मेमोरियल बनवाया गाया था. मेमोरियल को ऐसे डिजाइन किया गया था, जैसे गेट पर एक पाकिस्तानी पैटन टैंक खड़ा है, उन वीरों के सम्मान में जिन्होंने असल उत्तर की लड़ाई में हिस्सा लिया और सर्वस्व बलिदान किया.
अब्दुल हमीद की बीवी ने सुनाया किस्सा
20 साल की उम्र में अब्दुल हमीद ने वाराणसी में भारतीय सेना की वर्दी पहनी. ट्रेनिंग के बाद उन्हें साल 1955 में 4 ग्रेनेडियर्स में पोस्टिंग मिली. साल 1962 की लड़ाई के दौरान उनको 7 माउंटेन ब्रिगेड, 4 माउंटेन डिवीजन की ओर से युद्ध के मैदान में भेजा गया.
उनकी पत्नी रसूलन बीबी ने बताया कि शादी के बाद यह उनका पहला युद्ध था, जिस दौरान वह जंगल में भटक गए थे और कई दिनों बाद घर लौटे थे. इतना ही नहीं रसूलन बीबी ने यह भी बताया कि उस दौरान हामिद ने पत्ते खाकर खुद को जिंदा रखा था.
8 सितंबर, 1965 को अब्दुल हमीद पंजाब के तरनतारन जिले के केमकपण सेक्टर में तैनात थे. युद्ध के 10 दिन पहले ही वो छुट्टी पर अपने घर गए थे. इसी बीच, पाक की ओर से तनाव बढ़ने लगा, जिसके बाद सभी जवानों को ड्यूटी पर वापस बुलाया गया और कहा जाता है कि वापसी की तैयारियों के दौरान उनके साथ कई अपशगुन हुए थे, जिसके कारण उनका परिवार उन्हें जाने से मना कर रहा था, लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी.