गलवान घाटी का नाम क्यों और किस जांबाज पसमांदा के नाम पर रखा गया?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 06-11-2023
Rasul Galwan and Galwan Valley
Rasul Galwan and Galwan Valley

 

फैयाज अहमद फैजी

भारत-चीन सीमा विवाद के बीच एक नया पसमांदा चेहरा केंद्रीय भूमिका में सामने आया है. चर्चित गलवान घाटी का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है. कहानी इस प्रकार है. एक बार एक खोजकर्ता लेह क्षेत्र में फंस गया था और उसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. ऐसी स्थिति में चौदह वर्षीय लड़के ने खोजकर्ता को नदी के माध्यम से बाहर निकालने में मदद की. वह खोजकर्ता बच्चे द्वारा दिखाई गई बहादुरी की भावना से आश्चर्यचकित और प्रभावित हुआ. उन्होंने नदी का नाम उस बच्चे रसूल गलवान के नाम पर रखा और फिर आसपास की घाटी 'गलवान घाटी' के नाम से प्रसिद्ध हो गई. बचपन से ही रसूल गलवान इंग्लैंड, इटली, आयरलैंड और अमेरिका के प्रसिद्ध खोजकर्ताओं के साथ खोज का मार्गदर्शन करता रहा था.

पसमांदा आदिवासी समाज के एक टट्टू लड़के से ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर के मुख्य सहायक बनने की कहानी रोमांच से भरी है. उनका नाम रसूल गलवान था. एक सूफी संत की सलाह पर उन्होंने अपने नाम के आगे गुलाम जोड़ लिया. गलवान एक परिवार का नाम है, जिसका अर्थ है घोड़ों को पालने वाले. उनके पूर्वज घोड़ों और टट्टुओं की देखभाल करते थे. इसलिए उनके परिवार का नाम गलवान रखा गया. वाल्टर लॉरेंस ने अपनी पुस्तक ‘द वैली ऑफ कश्मीर’ में पृष्ठ संख्या 311-312 पर गलवान को जनजातियों के रूप में वर्णित किया गया है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर वारिसुल अनवर ने एक कश्मीरी न्यूज पोर्टल पर लिखा कि रसूल के पूर्वज मशहूर जनजाति गलवान से संबंधित थे.

पारिवारिक पृष्ठभूमि

उनके परदादा कारा गलवान प्रसिद्ध डाकू थे, क्योंकि उन्होंने अमीरों को लूटा और गरीबों के साथ साझा किया. गरीब लोग उन्हें अपना संरक्षक मानते थे और अमीर लोग उन्हें लगातार खतरे के रूप में देखते थे. उनके दादा महमूद गलवान कश्मीर से बाल्टिस्तान गए और बाद में लेह चले गए और वहीं बस गए.

व्यक्तित्व

रसूल का जन्म 1878 के आसपास लद्दाख की राजधानी लेह में हुआ था. वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने बचपन से ही अपार प्रतिभा दिखाई, वह दीवारों पर सुंदर चित्रकारी करते थे, जिसे देखकर लोग उनकी मां से कहा करते थे कि एक दिन वह बहुत सफल होंगे. वह बचपन से ही रचनात्मक मानसिकता के थे और अपनी उम्र के बच्चों के खेल-कूद से दूर रहते थे. उन्हें बचपन से ही पढ़ाई में रुचि थी. लेकिन उस समय लेह में कोई स्कूल नहीं था और अमीर लोग अपने बच्चों के लिए निजी शिक्षक रखते थे. वह हमेशा अपनी मां से पढ़ाई के लिए जिद करते थे. एक बार उनकी मां ने उनसे कहा, ‘‘हम गरीब लोग हैं, मेरे पास आपके शिक्षक का खर्च उठाने के लिए पैसे नहीं हैं, पढ़ना-लिखना अमीर लोगों का काम है, हमारा नहीं, दूसरी बात हमारे पिता पढ़े-लिखे नहीं थे, वे मेहनती लोग थे, आपको ऐसा ही करना चाहिए, आपके लिए अच्छा रहेगा.

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उन्होंने अपनी मां से कहा, ‘‘हाँ, हमारे पूर्वजों ने अपनी आजीविका के लिए बहुत मेहनत की थी, लेकिन मैं पढ़ना चाहता हूँ.’’ उन्होंने कहा कि शायद अगर मेरी किस्मत अच्छी रही, तो मैं कुछ अच्छी चीजें सीखूंगा, जो भविष्य के लिए अच्छी होंगी, मैं निश्चित रूप से पढ़ना चाहता हूं, अगर आपको लगता है कि यह अच्छा है, तो मुझे शिक्षक के पास जाने दो. मैंने सुना है कि महंगी होने के बावजूद पढ़ाई सबसे अच्छी है और हम भविष्य में इससे कमाई भी कर सकते हैं.

लेकिन उनकी माँ ने कहा ‘‘तुम एक दर्जी की दुकान में काम करोगे, यह तुम्हारे भविष्य के लिए बेहतर होगा और यह महंगा भी नहीं होगा.’’

साहबों का नौकर

उनकी मां ने उन्हें एक दर्जी के पास भेजा, लेकिन उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह उदास रहता था और हमेशा सोचता था कि अगर मैं अमीर होता, तो पढ़ सकता था. दुकानदार उसे बहुत पीटता था और एक महीने के अंदर ही वह तंग आकर वहां से भाग गया.

बहुत छोटी उम्र में, जब वे डॉ. ट्रैल के साथ अन्वेषण यात्रा पर गए, तो उनकी मां ने उनके कुर्ते में तीन रुपये सिल दिए और कहा कि इन पैसों का उपयोग तभी करना, जब साहबों द्वारा दिया गया पैसा खर्च हो जाए, लेकिन पहले अपने साहब को बता देना कि कितने पैसे आपके पास है और कहां रखे हैं. नहीं तो जब साहब लुट जायेंगे और तुम्हारे पास रुपये देखेंगे, तो शायद तुम्हें चोर समझेंगे.

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यात्रा पर निकलने से पहले उनकी मां ने उसे गले लगाया और बहुत रोई और वह भी उसके साथ रोया, अंत में उसने अपनी माँ को सलाम कियाऔर अपने पड़ोसियों को सलाम किया. उसके बाद वह अपनी बहन के घर गया और सलाम किया. (पेज 25, नौकर साहबों का)

कुछ समय बाद एक मिशनरी पादरी ने लेह में स्कूल खोला, गलवान का पढ़ने का जुनून फिर से बढ़ने होने लगा, लेकिन वह अपनी मां की राय को जानता था. इसलिए अपनी बहन से सिफारिश करवाने के बाद उसने स्कूल में दाखिला लिया, वहां वह तेजी से आगे बढ़ गया और बाकी लड़कों को पीछे छोड़ दिया. इस पर शिक्षक बहुत खुश हुए. उन्होंने गलवान की भूरि-भूरि प्रशंसा की, जिससे गलवान का पढ़ाई के प्रति विश्वास और भी मजबूत हो गया.

साहबों के साथ अन्वेषण और अध्ययन का क्रम चलता रहा. लंबे समय तक चलने वाले सफर के दौरान गलवान जो सीख चुके थे, उसे दोहराते रहे, ताकि जो सीखा था, उसे भूल न जाएं. उन्हें लद्दाखी, तुर्की, उर्दू, कश्मीरी, तिब्बती और अंग्रेजी भाषाएं आती थीं.

 

  • अपनी पत्नी कैथरीन को लिखे एक पत्र में, अमेरिकी यात्री रॉबर्ट बैरेट लिखते हैं, ‘‘रसूल गलवान के शिष्टाचार उत्तम हैं, सबसे अधिक निगरानी वाला सज्जन उनकी बराबरी से अधिक कुछ नहीं कर सकता.
  • रसूल गलवान एक बहुत अच्छा व्यक्ति है और अपने लोगों के लिए एक संरक्षक है.
  • रसूल गलवान एक बहुत काला और बहुत सुंदर आदमी है, अपनी सभी गतिविधियों में सुंदर, उसकी मुस्कान सबसे आकर्षक है.
  • रसूल गलवान की आवाज सबसे मधुर है, जो मैंने कभी सुनी है.
  • कोई महिला ऐसी न होगी, जिसे रसूल गलवान से पहली नजर में प्यार न हो जाए, लेकिन उसकी नैतिकता का स्तर बहुत अच्छा-ऊँचा है.
  • स्त्रियाँ रसूल गलवान से एक संत की तरह डरती हैं.

 

लेफ्टिनेंट कर्नल सर फ्रांसिस यंगहसबैंड के अनुसार, उनकी ईश्वर में गहरी आस्था थी. यह सभी कठिनाइयों, राहों और निराशाओं में उनका साथ देने वाला था. और श्रद्धा की यह आदत निस्संदेह ही थी, जिसने उन्हें सज्जन व्यक्ति बनाया. वह अत्यंत गरीब तबके से आया था. उन्होंने एक साधारण ग्रामीण लड़के के रूप में शुरुआत की. लेकिन हर परिस्थिति में उन्होंने एक सज्जन व्यक्ति की तरह व्यवहार किया. वह एक जन्मजात कहानीकार थे, स्पष्ट रूप से एक लोकप्रिय गायक थे और उन्हें बैंजो-वादन का भी बहुत शौक था.

चीनी सैनिकों से झड़प

पसमांदा इस धरती पर सदियों से निवास करते आ रहे हैं. इसलिए इस धरती से उनका स्वाभाविक लगाव है और जाहिर सी बात है कि हर कोई अपने देश को अपनी मां की तरह प्यार करता है. यह एक बड़ा कारण रहा है कि पसमांदा भारत के लिए अपनी जान कुर्बान करने में हमेशा आगे रहे हैं. पसमांदाओं ने कभी यह नहीं देखा कि देश की सत्ता जिनके हाथों में है, उनकी प्राथमिकता हमेशा अपना देश रहा है, जिसकी रक्षा के लिए, वे संसाधनों के अभाव में भी कुर्बानियां देते रहे हैं. और क्यों न करें, वे अशरफ मुसलमानों की तरह बाहरी आक्रमणकारी नहीं हैं, जो भारत को एक जीता हुआ देश मानते हैं.

एक बार, जब वह शाम को कैंप में लौटे तो देखा कि कुछ चीनी सैनिकों ने मेजर साहब और हेड-मैन पर हमला कर दिया है. रसूल गलवान बहुत गुस्से में आ गए, उन्होंने अपने दोस्तों कलाम और रमजान के साथ चीनी सैनिकों को पीट डाला, बाद में चीनी आये और मेजर साहब से माफी मांगी.

दूसरे दिन कलाम ने अचानक आकर बताया कि चीनी हमारे लोगों को बाजार में मार-पीटरहे हैं, रसूल गलवान तुरंत वहां पहुंचे, देखा कि पूरा बाजार चीनी सैनिकों से भरा हुआ है और वे लोगों को मार रहे हैं, वह तुरंत लड़ाई में कूद पड़े, चीनी सैनिकों ने उनकी लाठी तोड़ दी और उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया. वह जमीन पर गिर गए, फिर भी वे लड़ते रहे और चीनी सैनिक उसे मरा हुआ समझकर भाग गये.

कुछ देर बाद मेजर साहब मुखिया के साथ आये, उन्होंने अधमरी हालत में पड़े गुलाम रसूल से कहा, ‘‘रसूल तुम्हें उदास होने की जरूरत नहीं है, इधर तुम अकेले पड़ गये हो और उधर सात चीनी सैनिक और एक उनके सैन्य अधिकारी घिर गए थे.’’ यह सुनकर उनके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान तैर गई. इस घटना में उसका दोस्त रमजान भी बुरी तरह घायल हो गया. (पेज 76, 77, 78, साहबों के नौकर)

इस तथ्य की परवाह किए बिना कि अंग्रेज स्वयं विदेशी हैं और भारत पर कब्जा कर रहे हैं, रसूल ने सोचा कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि चीनी सैनिकों का मनोबल तोड़ा जाए, ताकि वे हमारी सीमाओं पर कभी नजर न डाल सकें. और इसके लिए उन्होंने अपनी और अपने साथियों की जान खतरे में डाल दी. आत्मकथा के प्रकाशन के एक वर्ष बाद 1925 में 47 वर्ष की आयु में उनका इस दुनिया से निधन हो गया.

आज एक बार फिर रसूल गलवान मरणोपरांत भारत की सीमा की रक्षा में अहम भूमिका निभा रहे हैं. एक भारतीय द्वारा घाटी की खोज और नामकरण भारत के दावे को और मजबूत कर रहा है.

 

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