तनाव कम करने और 'नो वॉर' की पुकार: पाखंड और आतंकवाद का परोक्ष समर्थन

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 10-05-2025
Calls for de-escalation and 'no war': hypocrisy and veiled support for terrorism
Calls for de-escalation and 'no war': hypocrisy and veiled support for terrorism

 

साक़िब सलीम

“जंग तो खुद ही एक मसला है, जंग क्या मसलों का हल देगी” – साहिर लुधियानवी की इस मशहूर लाइन को कई सोशल मीडिया पोस्टों में भारतीय सेना से युद्ध विराम की अपील के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. अधिकतर ऐसा कहने वाले वामपंथी झुकाव रखने वाले लोग हैं जो भारतीय सेना को अहिंसा का पाठ पढ़ाकर नैतिक ऊंचाई का दावा करते हैं, लेकिन क्या ये लोग सच में पूर्णतः युद्ध-विरोधी हैं?
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सबसे पहले, ये लोग साहिर लुधियानवी की कविता को संदर्भ से काटकर पेश कर रहे हैं. यह कविता उस समय लिखी गई थी जब भारत युद्ध के बाद पाकिस्तान को युद्धविराम की शर्तें तय कर रहा था.

उस समय साहिर भारत सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए यह कह रहे थे कि भारत युद्ध नहीं चाहता, वह तो शांति प्रिय राष्ट्र है जिसे लड़ाई में घसीटा गया.साहिर की अन्य कविताएं यह साफ करती हैं कि वह न्यायोचित युद्ध के खिलाफ नहीं थे। जब रूस की सेना ने द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की ताकतों को हराया, तब साहिर ने लिखा:

"यह सल्तनत न अपने हथियारों पे घमंड करे, ज़ंजीरें अब भी झनकार करेंगी, जम्हूरी फौजों के कदमों के आगे, नस्ल और सरहद की दीवारें न टिकेंगी."

आज़ाद हिंद फौज और नौसैनिक विद्रोहियों को समर्पित अपनी कविता "ये किसका लहू है?" में साहिर लिखते हैं:"हम ठान चुके हैं अब जी में, हर ज़ालिम से टकराएंगे, तुम समझौते की आस रखो, हम आगे बढ़ते जाएंगे."
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यहां साहिर उन लोगों को खारिज कर रहे हैं जो अत्याचारियों से समझौते की बात करते हैं। उनके अनुसार अत्याचारी के खिलाफ संघर्ष रुकना नहीं चाहिए.समस्या उन ‘विद्वानों’ और ‘अकादमिकों’ से शुरू होती है जो “शब्दजाल” का इस्तेमाल करके आम लोगों को देशहित के विरुद्ध बातों में उलझाते हैं.

जैसे—वामपंथी विचारक विजय प्रसाद, जिन्होंने ट्वीट किया:"There is no good war..."लेकिन इसके कुछ ही समय बाद उन्होंने रूसी सेना की तारीफ में अपनी तस्वीर पोस्ट की.

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क्या यह दोहरा रवैया नहीं है?

इसी तरह सीपीआई (एमएल) लिबरेशन, जिसका बिहार में अच्छा आधार है और जिसका छात्र संगठन AISA दिल्ली में सक्रिय है, युद्ध-विरोध की अपील करता है.

वे युवाओं को यह विश्वास दिलाते हैं कि यह पार्टी हर प्रकार की हिंसा के खिलाफ है. लेकिन जब बात नक्सल आंदोलन या लाल सेना की आती है तो वही लोग उसे ‘क्रांतिकारी संघर्ष’ बताते हैं.

फिर भारतीय सेना आतंकियों और उनके संरक्षक शासन के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर सकती?
क्या भारत हमलावर है? या फिर भारत पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दशकों से शिकार रहा है?
क्या ISI द्वारा पाले गए आतंकी केवल भारतीयों को मारते हैं? नहीं, वे पाकिस्तानियों को भी मारते हैं.

यदि लाल सेना का संघर्ष न्यायपूर्ण था तो भारत को भी उतना ही अधिकार है कि वह ISI प्रायोजित आतंकी ताकतों से नागरिकों की रक्षा करे.एक पुराना हथकंडा गांधीजी को उद्धृत करना भी है. लोग उनके केवल उन विचारों को चुनते हैं जो उन्हें सूट करें.लेकिन क्या महात्मा गांधी हर युद्ध के विरोध में थे?

1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया, तब 29 अक्टूबर को गांधी ने कहा:“सेना का काम है दुश्मन का सामना करना और अंत तक लड़ते हुए प्राण देना. वे पीछे नहीं हटते। अगर सभी सैनिक श्रीनगर की रक्षा करते हुए मर जाएं, तो उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया होगा.”

यहां गांधी ने ‘नो वॉर’ का नहीं, बल्कि शत्रु से लड़ते हुए मरने का आह्वान किया.उन्होंने आगे कहा:“अगर कश्मीर को बचाने में शेख अब्दुल्ला को बलिदान देना पड़े, उसकी बेगम और बेटी मारी जाएं, सारी औरतें मारी जाएं—तो भी मैं एक आंसू नहीं बहाऊंगा.”
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यह दृष्टिकोण युद्ध की भयावहता को नकारता नहीं, बल्कि यह कहता है कि त्याग आवश्यक है जब राष्ट्र की सुरक्षा दांव पर हो.

अत्याचारी के खिलाफ हिंसा को वैध मानना हर सभ्यता में स्वीकृत है:पांडवों ने कुरुक्षेत्र में युद्ध किया, पैग़म्बर मोहम्मद ने बद्र की लड़ाई लड़ी, स्टालिन ने हिटलर से लड़ा, नेताजी ने अंग्रेजों से जंग की—इन सभी संघर्षों को न्यायसंगत माना गया.कोई भी विचारधारा अत्याचार के खिलाफ पूरी तरह से अहिंसक नहीं रही है.

भारत दशकों से आतंकवाद झेल रहा है. इन आतंकियों ने न केवल भारतीयों को मारा, बल्कि पाकिस्तान के निर्दोष नागरिकों में भी भय फैलाया है.भारत अब एक ऐसे देश से लड़ रहा है जो अपने नेताओं को जेल में डालता है, अपने लोगों की हत्या करता है और पड़ोसी देशों में आतंक फैलाता है.

‘नो वॉर’ एक अच्छा नारा लगता है, लेकिन क्या कोई गारंटी दे सकता है कि अब और आतंकी हमले नहीं होंगे?भारत ने लंबे समय तक इंतजार किया है. अब और इंतजार नहीं किया जा सकता.