जयनारायण प्रसाद / कोलकाता
साठ की उम्र से कोई तीन साल पीछे खड़े कोलकाता के प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम से मिलना, किसी विशाल बरगद की शीतल छांव में होने जैसा है. पहली मुलाकात में महसूस हुआ, जैसे थके हुए किसी व्यक्ति को कल-कल बहती शांत नदी के किनारे पनाह मिल गई हो. ऐसी है प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम की शख्सियत!
प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम जितने श्रीमद्भागवत गीता के मर्मज्ञ हैं, वैसे ही कुरान और बाइबिल के भी. पुरी (ओडिशा) के जगन्नाथ भगवान प्रोफेसर साहेब के रोम-रोम में बसते हैं. सूफी तो वे जन्मजात हैं. सूफी पिता शेख़ साजाद अली और मां हाजरा खातून की संतान प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम ने कभी सोचा भी नहीं था कि बड़ा होकर एक दिन वे अनगिनत किताबों की रचना करेंगे.
कई जुबानों के जानकार
प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम की मादरी जुबान हैं बांग्ला. लेकिन हिंदी, हिंदुस्तानी, बांग्ला, ओड़िया, असमिया और अंग्रेजी भाषा उन्हें अच्छी तरह आती है. वे कहते हैं, ‘‘जब ढ़ाई साल का था, तो गांव में सूफी संतों से मुलाकात हुई. पिता शेख़ साजाद अली खुद सूफी थे, तो घर पर सूफी संत और विद्वानों का आना-जाना लगा रहता था.’’
प्रोफेसर शेख़ आगे बताते हैं, ‘‘गांव में सूफी तो थे ही, वैष्णव लोग भी काफी तादाद में थे. तो जब साढ़े चार साल का हुआ, तो मेरे ऊपर धीरे-धीरे सबका प्रभाव होने लगा. इसी उम्र में पुरी (ओडिशा) के श्री जगन्नाथ भगवान के बारे में भी जाना.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘जैसे-जैसे बड़ा होता गया, मेरा दिमाग और खुलता गया. सभी धर्म और संस्कृति के बारे में थोड़ा-थोड़ा जानने लगा.’’
‘‘लगा जैसे ‘माया से मुक्ति’ की राह मुझे मिल रही है’’, प्रोफेसर साहेब अपनी बात को थोड़ा विराम देते हैं.
बंगाल के बागनान में जन्म
महानगर कोलकाता से कोई ढ़ाई घंटे की दूरी पर स्थित हावड़ा जिले के बागनान कस्बे के ‘सबसीट’ ग्राम में प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम की पैदाइश हुई है. बड़े हुए, तो अब्बू का हाथ पकड़कर शहर (कलकत्ता) आ गए. प्रोफेसर शेख़ अपनी दास्तां आगे बढ़ाते हैं, ‘‘मैं हावड़ा जिले के बागनान कस्बे के सबसिट गांव में एक जून, 1967 को पैदा हुआ.
वर्ष 1985 से लगातार हावड़ा स्टेशन के करीब रह रहा हूं. इस बीच, मेरी सारी पढ़ाई-लिखाई कलकत्ता शहर में हुई.’’
पैंसठ किताबें लिखीं
सूर, तुलसी और मीराबाई को अपने जिगर में समेटे प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम ने अभी तक 65 किताबें लिखी हैं. इन किताबों में ‘गीता-कुरान तुलनात्मक अध्ययन’, लोक संस्कृति की तत्व चिंता तथा शोध विषयक ‘लोक संगीत विज्ञान’ आदि किताबें काफी पढ़ी गई ं हैं.
प्रोफेसर शेख़ ने ओडिशा की उत्कल यूनिवर्सिटी से वर्ष 2015 में ‘भारत-ओड़िया सांस्कृतिक संबंध’ पर डीलिट् किया, फिर ‘बांग्ला-ओड़िया लोक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ पर पीएचडी की. प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी में ‘सीनियर रिसर्च फेलो’ भी रहे हैं.
यह अपने देश में प्राच्य विद्या का सबसे बड़ा केंद्र है. उसके बाद वर्ष 1997 से कलकत्ता के सबसे पुराने सेंट पाल्स कैथड्रल मिशन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इस कॉलेज में वे बांग्ला भाषा और साहित्य पढ़ाते हैं. यह कॉलेज वर्ष 1865 में स्थापित हुआ था.
लेखक के साथ मकबूल इस्लाम
धर्म को ठीक से समझने की जरूरत
प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम का मानना है कि धर्म को लेकर यह जो झगड़ा है, वह बेमतलब है. संस्कार का न होना इसका मुख्य कारण है. प्रोफेसर साहेब बताते हैं, ‘‘भाईचारा बनाने के लिए संस्कार का होना बेहद जरूरी है. उसे ठीक से समझना होगा, वरना हम लड़ते-झगड़ते रहेंगे.’’
अनेक पुरस्कारों से नवाजे गए
फिलीपींस, थाइलैंड, मलेशिया, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल घूम आए प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम को अनेकों बार विभिन्न पुरस्कार से नवाजा गया है. भगवान जगन्नाथ पर गवेषणात्मक कार्य के लिए वर्ष 2015 में ओडिशा के सर्वोच्च सम्मान ‘नवकलेवर पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया.
प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम को यह पुरस्कार पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती के हाथों दिया गया. प्रोफेसर साहेब बताते हैं, ‘‘ भगवान जगन्नाथ विषयक उनकी कुल 14 किताबें हैं.’’ इन पुस्तकों में ‘श्री जगन्नाथ: बंगाली मानस व लोकायत जीवन’’ सबसे ज्यादा चर्चित है. रामकृष्ण परमहंस और श्री चौतन्य पर भी प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम ने शोधात्मक काम किया है.
वैष्णव धर्म के प्रसार पर नए सिरे से रिसर्च
जगन्नाथ, श्री चौतन्य, तुलसीदास और गुरुग्रंथ साहिब को अपना आराध्य मानने वाले प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम इन दिनों एक नए विषय पर अनुसंधान कर रहे हैं. वह है ‘दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में श्री जगन्नाथ और हमारा वैष्णव धर्म कैसे पहुंचा.’
इन देशों में फिलीपींस, कंबोडिया, थाइलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, सिंगापुर और जापान है. वे बताते हैं, ‘‘इन देशों में से कुछ में हो आया हूं. कुछ अभी बाकी है. बहुत दिनों से रिसर्च में लगा हूं.’’ प्रोफेसर साहेब आगे जोड़ते हैं, ‘‘उम्मीद है यह काम भी जल्दी हो जाएगा.’’
पूरी तरह शाकाहारी प्रोफेसर शेख़ मकबूल इस्लाम से बात होते-होते रात हो गई थी. बेशुमार किताबों से भरे उनके घर से विदा होते वक्त इकबाल साजिद की चंद लाइनें याद आ रही थीं -
सूरज हूं जिंदगी की रमक छोड़ जाऊंगा।
मैं डूब भी गया तो शफक छोड़ जाऊंगा।।