वो पाँच युवा चेहरे जिन्होंने 60 के दशक के भारत को दिशा दी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 06-08-2025
Those five young faces who gave direction to India in the 60s
Those five young faces who gave direction to India in the 60s

 

साकिब सलीम

1960 का दशक भारतीय इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था. यह वह समय था जब भारत न केवल राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा था, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी अपने आत्म-संवेदन को ढूंढ रहा था. इसी दशक में भारत ने पंडित नेहरू जैसे दूरदर्शी नेता को खोया, चीन और पाकिस्तान से युद्ध झेला, गोवा को स्वतंत्र किया, सिक्किम का भारत में विलय देखा और इंदिरा गांधी जैसे नेता का उदय हुआ. लेकिन इन घटनाओं के समानांतर, एक और क्रांति चल रही थी — युवा प्रतीकों की क्रांति.  

देश के युवा वर्ग को दिशा देने वाले, उन्हें प्रेरित करने वाले कुछ ऐसे व्यक्तित्व इस दशक में उभरे, जिन्होंने भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय मानस पर अमिट छाप छोड़ी. वे नायक केवल अपनी उपलब्धियों के लिए नहीं, बल्कि अपनी सोच, साहस, संघर्ष और मूल्यों के लिए भी याद किए जाते हैं. आइए जानें पाँच ऐसे युवा प्रतीकों के बारे में, जिन्होंने 1960के दशक में भारतीय युवाओं के आदर्श बनने का गौरव प्राप्त किया.

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1. हवलदार अब्दुल हमीद : साहस और बलिदान का प्रतीक

"राष्ट्र नायक की पहचान उसके कृत्य से होती है, पद से नहीं." यह पंक्ति पूरी तरह से हवलदार अब्दुल हमीद पर लागू होती है. 1965के भारत-पाक युद्ध के दौरान जब पाकिस्तान अपने पैटन टैंकों के अजेय बेड़े के साथ भारत पर टूट पड़ा, तब अब्दुल हमीद एक आरसीएल गन और एक जीप के सहारे उनके सामने डट गए.

गन्ने के खेतों में छिपकर, 8सितंबर को उन्होंने पहला टैंक ध्वस्त किया. उस दिन उन्होंने तीन टैंकों को नष्ट किया और दो को कब्जे में लिया. यह अकेले एक सैनिक की युद्ध-नीति, सूझबूझ और साहस का अद्भुत उदाहरण था.

अगले दिन, यानी 10सितंबर को वे शहीद हो गए, लेकिन तब तक 9 से अधिक टैंकों को तबाह कर चुके थे. उनकी वीरता ने सिर्फ युद्ध का पलड़ा भारत की ओर मोड़ा, बल्कि पाकिस्तान के उस दावे को भी ध्वस्त कर दिया कि भारत अपने मुस्लिम नागरिकों के साथ भेदभाव करता है.

अब्दुल हमीद ने एक सच्चे भारतीय मुसलमान के रूप में न सिर्फ देश की रक्षा की, बल्कि यह भी दिखा दिया कि भारतीय सेना में विविधता, एकता और समर्पण कितने गहरे हैं. उनके इस अद्वितीय बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

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2. मंसूर अली खान पटौदी : क्रिकेट में आत्मविश्वास की क्रांति

1960के दशक की शुरुआत में क्रिकेट एक अभिजात वर्ग का खेल माना जाता था, और भारतीय टीम अक्सर हारती थी. लेकिन 1961में एक युवा खिलाड़ी मंसूर अली खान पटौदी ने मैदान में कदम रखा और खेल की दिशा बदल दी. 21 वर्ष की आयु में वे भारतीय टेस्ट टीम के सबसे युवा कप्तान बने. आश्चर्यजनक बात यह थी कि एक भयानक कार दुर्घटना में अपनी एक आंख गंवा देने के बावजूद उन्होंने क्रिकेट को नहीं छोड़ा.

पटौदी की कप्तानी ने भारतीय क्रिकेट में आत्मविश्वास और आक्रामकता की नींव रखी. उन्होंने टीम को विदेशी धरती पर पहली टेस्ट जीत दिलाई. उनकी बल्लेबाज़ी शैली आक्रामक थी, और फील्डिंग में वे सर्वश्रेष्ठ थे.

उन्होंने भारतीय क्रिकेट को नया आत्म-सम्मान दिया और एक विजयी सोच विकसित की, जिसने बाद में कपिल देव, गांगुली और धोनी जैसे कप्तानों को प्रेरित किया. वे केवल एक क्रिकेटर नहीं थे, बल्कि एक युवा भारत के आत्मबल के प्रतीक बन गए.

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3. मनोज कुमार : देशभक्ति का सिनेमाई चेहरा

जब भारत अपने अस्तित्व की चुनौतियों से लड़ रहा था, तब बड़े परदे पर एक नया नायक उभरा — मनोज कुमार. 1965 की फिल्म शहीद, जिसमें उन्होंने भगत सिंह की भूमिका निभाई, ने देशभक्ति को एक नई ऊँचाई दी. फिल्म का लेखन भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त ने किया था, और इसकी विश्वसनीयता और भावनात्मक गहराई दर्शकों को अंदर तक छू गई.

इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार से जय जवान, जय किसान पर आधारित फिल्म बनाने की अपील की. जवाब में आई 1967 की फिल्म उपकार, जिसमें 'मेरे देश की धरती' जैसे गीतों ने भारतीयों के दिलों में देशप्रेम की लौ जला दी.

मनोज कुमार को ‘भारत कुमार’ की उपाधि दी गई और वे युवाओं के लिए एक ऐसे आदर्श बन गए, जिन्होंने कला के माध्यम से देशभक्ति को जन-जन तक पहुँचाया. उनका सिनेमा नारा नहीं था, बल्कि चेतना थी.

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4. रीता फारिया:आधुनिकता और परंपरा का संगम

1966 में, जब भारत पश्चिमी संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों के बीच झूल रहा था, तब एक 23 वर्षीय मेडिकल छात्रा रीता फारिया ने मिस वर्ल्ड का खिताब जीतकर भारत का मान बढ़ाया. वे न केवल पहली एशियाई थीं जिन्हें यह सम्मान मिला, बल्कि उन्होंने साबित किया कि सुंदरता सिर्फ चेहरे की नहीं होती, बल्कि सोच और व्यक्तित्व की भी होती है.

रीता फारिया ने प्रतियोगिता में साड़ी पहनकर 'बेस्ट इन स्विमसूट' और 'बेस्ट इन इवनिंगवियर' जैसे खिताब भी जीते — यह दर्शाता है कि भारतीय पहनावा भी विश्व मंच पर आत्मविश्वास से पहना जा सकता है.

लेकिन उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने मॉडलिंग या फिल्मों का मोह नहीं किया, बल्कि डॉक्टर बनने के अपने उद्देश्य को प्राथमिकता दी. उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की और बाद में चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य किया. वे उस समय की युवा पीढ़ी के लिए एक संदेश थीं — "आप सुंदर भी हो सकते हैं और बुद्धिमान भी."

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5. अमीन सयानी — आवाज़ जिसने भारत को जोड़ा

" बहनों और भाइयों !" — यह वाक्य सुनते ही किसी भी भारतीय के कानों में अमीन सयानी की आवाज़ गूंज उठती थी. रेडियो की दुनिया में उनका योगदान अतुलनीय रहा. 1960 के दशक में टेलीविजन एक कल्पना था और सोशल मीडिया दूर का सपना। ऐसे में रेडियो सीलोन पर हर बुधवार रात 'बिनाका गीतमाला' अमीन सयानी की आवाज़ के साथ हर घर में पहुंचता था.

उनकी आवाज़ में अपनापन था, जो पूरे भारत को एक सूत्र में बांधती थी. उनके उच्चारण, शैली और प्रस्तुतिकरण ने उन्हें भारत की पहली 'आवाज़ आइकन' बना दिया. छोटे कस्बों से लेकर महानगरों तक, उनकी नकल करते उद्घोषक मिल जाते थे. सयानी न केवल रेडियो उद्घोषक थे, बल्कि उन्होंने भारत की लोकप्रिय संस्कृति को आकार दिया. वे एक ऐसे युग की आवाज़ थे, जहाँ आवाज़ ही मीडिया थी.

1960 का दशक सिर्फ इतिहास की किताबों में दर्ज घटनाओं का समूह नहीं है. यह वह समय था जब भारत ने आत्म-खोज, आत्म-सम्मान और आत्म-निर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाए. हवलदार अब्दुल हमीद ने वीरता की परिभाषा दी, मंसूर अली खान पटौदी ने आत्मविश्वास सिखाया, मनोज कुमार ने देशभक्ति को नया स्वरूप दिया, रीता फारिया ने आधुनिकता और परंपरा के संतुलन को दर्शाया, और अमीन सयानी ने भारतीयता की आवाज़ को परिभाषित किया.

इन पांच युवा प्रतीकों ने 1960 के दशक में भारतीय युवाओं को केवल प्रेरित ही नहीं किया, बल्कि यह सिखाया कि सीमित संसाधनों में भी असीमित ऊँचाइयाँ प्राप्त की जा सकती हैं — अगर जज़्बा हो, आत्मबल हो और अपने देश के लिए समर्पण हो। यही वह भावना है जो आज भी युवा भारत की प्रेरणा बनती है।