तृप्ति नाथ/नई दिल्ली
सातवीं पीढ़ी के संगीतकार उस्ताद गुलफाम अहमद, जो रबाब और सरोद पर अपनी महारत के लिए विश्व स्तर पर जाने जाते हैं, हिंदू मुस्लिम एकता पर अपने सूफियाना कलाम के लिए भी समान रूप से पहचाने जाते हैं.
2021 में पद्मश्री और कई अन्य पुरस्कारों से अलंकृत गुलफाम का कहना है कि संगीत न हिंदू जानता है, न मुसलमान. “संगीत की अपनी ज़ुबान है.” संगीत आत्मा का भोजन है.मेरा प्रदर्शन पर नहीं होता.अधिकतर मन्दिरों और आश्रमों में होता हैं.जब लोग संगीतकारों की सराहना करते हैं, तो वे उनका धर्म नहीं देखते.''
2005 में हरबलभ उत्सव में पहली बार इसे बजाने के बाद उन्होंने पंजाब में रबाब को लोकप्रिय बनाया और हिंदू मुस्लिम एकता पर उनके सूफियाना कलाम बहुत हिटहुए हैं.
“हिंदू मुस्लिम एकता पर मेरा एक सूफी कलाम जो मैंने 2006 में लिखा था, बहुत लोकप्रिय है.“मस्त कलंदर गाता जाए, मस्त कलंदर. अल्लाह तेरी शान, मौला तेरी शान. तू ही दिल में, तू ही लाभ पर, वो भी चरणों में.कोई जय मंदिर में, कोई दे अज़ान.कोई जाए गिरिजा में, बोले कोई सतनाम.''“अल्लाह अल्लाह कहता है, कहता है राम.” प्रेम के दो अक्सर ना जाने, कैसा ये अंसान?'' इस पंक्ति के साथ पद्य समाप्त होता है.
चार साल पहले उन्होंने लोगों की मांग पर वाराणसी के संकटमोचन मंदिर में रबाब बजाया था.“सुबह के 4 बजे थे.आरती के साथ, मैं दर्शकों के अनुरोध पर रबाब बजा रहा था.”200वर्षों के बाद अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में कीर्तन में रबाब के पुनरुद्धार में उस्ताद गुलफाम अहमद का योगदान ऐतिहासिक है.
“यह तब संभव हुआ जब पंजाब में उनके तीन सिख छात्रों ने 30 मार्च, 2007 को स्वर्ण मंदिर में एक कीर्तन में तबले की संगत में दो रबाब बजाए.अब, वे हर दिन वहां बजाते हैं.सिख धर्म में रबाब की परंपरा गुरु नानक के समय से चली आ रही है.जब उनके शिष्यों में से एक इसे बजाते थे.अब, 131 वर्षों के बाद देश के गुरुद्वारों में यह परंपरा पुनर्जीवित हो गई है.''
हरबल्लाबा उत्सव में उनके प्रदर्शन के बाद ही रागियों ने रबाब सीखने के लिए उनसे संपर्क करना शुरू किया.“एक महीने के भीतर, कई सिख मेरे पास आए.मैंने पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला, दुखनिवारण गुरुद्वारा और लुधियाना में गुरुदास विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया.पंजाब में 65 छात्रों को रबाब सिखाया है.
2009 से 2014 तक काबुल में अपने प्रवास के दौरान, मैंने भारतीय दूतावास में 185छात्रों को सरोद, सितार, हारमोनियम और रबाब सिखाया.मैं विदेश मंत्रालय की सांस्कृतिक शाखा, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के निमंत्रण पर वहां गया था.''
गुलफाम अहमद अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं.उन्होंने उस सरोद को संरक्षित किया है जिसे उनके परदादा सरकार नियामतुल्ला खान ने लगभग 200साल पहले बजाया था.
1956 में उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर के पास बगरासी में जन्मे गुलफाम का पालन-पोषण दिल्ली में हुआ.उनके पिता ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) में एक शीर्ष ग्रेड स्टाफ कलाकार (रबाब और सरोद वादक) थे.
वह फ़तेहपुरी, खारी बावली में पले-बढ़े, जो ड्राई फ्रूट बाज़ार के लिए जाना जाता है.चार भाइयों और दो बहनों में चौथे नंबर पर गुलफाम अहमद ने छह साल की उम्र में अपने पिता से सरोद और रबाब सीखना शुरू किया.1967 में उनके निधन तक सीखना जारी रखा.
उसके बाद, उनके सबसे बड़े भाई, मुख्तार अहमद, जो आकाशवाणी में ए ग्रेड कलाकार थे, ने उन्हें अपने अधीन कर लिया.दुर्भाग्य से, 1994में उनकी भी मृत्यु हो गई.“मेरे परिवार के बुरे दिन आ गए.
मेरे लिए अपनी पढ़ाई जारी रखना मुश्किल हो गया.मैंने 1969 में अपनी माँ को खो दिया.लेकिन अपना रियाज़ नहीं छोड़ा. मैं अपने चचेरे भाई इलियास खान, जो भातखंडे कॉलेज में प्रोफेसर हैं, से सीखने के लिए लखनऊ भी जाता था.उन्होंने राज कपूर को सितार सिखाया था.''
गुलफाम ने बताया कि जब पिता की मौत हुई तो वह सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा में थे . वह याद करते हैं,“मैं पढ़ाई जारी नहीं रख सका. लगभग सात वर्षों तक, मैंने बल्लीमारान में एक कपड़े की दुकान और एक जूते की दुकान में सेल्समैन के रूप में काम किया.पूर्वी दिल्ली में एक इकाई में कढ़ाई में अपने भाई की सहायता की.
मेरे पास कोई विकल्प नहीं था.अन्यथा मैं भूखा रह जाता.उस समय रुपये की कीमत थी.पेट भरने के लिए आठ आने पैसे काफी होते थे.सालन की कीमत चार आने (पच्चीस पैसे) होगी.तंदूरी रोटी की कीमत एक आना होगी.कुछ दुकानदार प्रति माह 80 रुपये देते थे,जबकि अन्य 100 रुपये प्रति माह देते थे.''
उन्होंने कहा, “लेकिन यह रोमांचक है.वह भी जीवन था.यह भी जीवन है.मेरे कतरी राजनयिक मित्र ने कई बार न्यूयॉर्क के रिवॉल्विंग रेस्तरां में भी मेरी मेजबानी की, जो दुनिया के सबसे महंगे रेस्तरां में एक है.
1991 और 1996 के बीच, कनाडा, यूरोप और अमेरिका के ढाई महीने के दौरे के दौरान, मुझे स्वामी शिवानंद के शिष्य, स्वामी विश्वदेव के जन्मदिन पर संगीत समारोहों के दौरान सरोद वादन के लिए आमंत्रित किया गया.1991 में, मैंने अपना नया साल न्यूयॉर्क में शुरू किया.
भारत में कतर के पूर्व राजदूत के निमंत्रण पर, जो मुझसे सरोद सीखना चाहते थे.लेकिन इराक युद्ध शुरू हो गया.वह आठ महीनों में बमुश्किल आठ घंटे ही सरोद सीख सके.फिर मैं आठ महीने बाद भारत लौट आया.''
उस्ताद गुलफाम अहमद कहते हैं, “वह चीन और वेस्ट इंडीज को छोड़कर सभी देशों में गए हैं.वह भारत में प्रदर्शन करना पसंद करते हैं.उनके कई संगीत कार्यक्रम हुए हैं.उन्हें 1963 में आठ साल की उम्र में पंजाब के गुरदासपुर में अपने पिता के साथ अपना पहला प्रदर्शन स्पष्ट रूप से याद है."यह एक प्रतिष्ठित सभा थी.मुझे पृथ्वी राज कपूर से पहले रबाब बजाने की याद है, जिन्होंने मेरे पिता से सितार सीखा था."
उस्ताद गुलफ़ाम अहमद पूर्वी दिल्ली में अपने घर में छात्रों को पढ़ाते भी हैं.उन्होंने 2006 में पारिवारिक परंपरा को छोड़ दिया जब उनकी सबसे छोटी बेटी हाजरा, जो अफगानिस्तान में ब्याही गई है, उनसे रबाब सीखना चाहती थी.
9 छात्र जो अब दिल्ली में उनके घर में उनसे सीख रहे हैं, उनमें से तीन उनके ही परिवार की 11 से 22 वर्ष की आयु वर्ग की युवा लड़कियाँ हैं.“वे हिंदुस्तानी रबाब और अफगानी रबाब का उपयोग करते हैं.हिंदुस्तानी रबाब, जिसे दुरपति के नाम से भी जाना जाता है, में छह तार होते हैं.रबाब मूलतः अफगानिस्तान से आये थे.यह कश्मीर में भी बजाया जाता है.मैं दोनों तरह के रबाब बजाता हूं.मेरा रबाब काबुल से आता है.''
गुलफाम अहमद की पोती जेना खान इस बात से खुश हैं कि उन्होंने एक अलग तरह का तानपुरा बनाया है.जेना कहती हैं, ''यह युवा पीढ़ी के लिए एक बड़ा संदेश है.वह परंपरा से हट रहे हैं.उन्होंने मुझे एक सरोद भी उपहार में दिया है. वह न केवल बहुत अच्छा बजाता है, बल्कि गीत भी लिखता है, गाता है और बहुत अच्छा खाना बनाता है.''
गुलफाम का कहना है कि वह उन्हीं लोगों को पढ़ाते हैं जो गंभीर हैं और जिनमें सीखने का जुनून है.''मुझे अंकज्योतिष का ज्ञान है.इसलिए, मैं उन्हें पढ़ाने के लिए सहमत होने से पहले उनसे उनकी जन्मतिथि पूछता हूं.''
उनकी अनूठी पारिवारिक विरासत के बारे में बात करते हुए, “मेरे परदादा सरकार नियामुतल्लाह खान (1835से 1896) ने मियां तानसेन के परदादा बसत खान को उनके घर में छह साल तक उनसे सीखने के लिए एक लाख से अधिक चांदी के सिक्के दिए थे.
मेरे परदादा अफगानिस्तान में रहते थे और भारत आते रहते थे.जब महारानी विक्टोरिया दिल्ली आईं तो नियामुतल्लाह खान को प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया.यह मेरे दादा करामतुल्ला खान ही थे जिन्होंने 100साल पहले इलाहाबाद में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित रघुपति राघव राजा राम की रचना की थी.''
वह प्रतिदिन छह घंटे अभ्यास करते हैं.“जब पद्म श्री से सम्मानित किया जाता है, तो लोग आपका मूल्यांकन करना शुरू कर देते हैं.देखते हैं कि क्या आप इस सम्मान के योग्य हैं.कुछ महीने पहले चंडीगढ़ के एक स्कूल में एक संगीत कार्यक्रम में, मैंने एक तबला वादक को दूसरे से पूछते हुए सुना, 'इनको किस बात का पद्मश्री मिला है ?'
मैंने उनसे कहा, 'हमें खुद ही नहीं मालूम.'मेरा प्रदर्शन समाप्त होने के बाद, उनमें से एक उन्होंने मेरे जूते पकड़ रखे थे और दूसरे ने मेरा वाद्ययंत्र ले रखा था.दिवाली पर, अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर में मेरे प्रदर्शन से पहले, आयोजक ने मेरी रिकॉर्डिंग मांगी. उसी व्यक्ति ने मुझे 'हीरा' बताया.
उस्ताद गुलफ़ाम अहमद की तीन बेटियाँ हैं.दो दिल्ली में हैं तो एक की शादी काबुल में हुई है.“कनाधार, जलालाबाद, मजार-ए-शरीफ में हमारे रिश्तेदार हैं.जब मुझे पद्मश्री से सम्मानित किया गया.मैं मोदी जी से मिला, तो उन्होंने तालिबान शासन में रबाब का भाग्य जानना चाहा.''
गुलफ़ाम के दिन की शुरुआत सुबह 5बजे अज़ान के समय घर पर नमाज़ पढ़ने से होती है, उसके बाद रियाज़, कुछ चाय, जिम में कसरत और योगा होता है.गुलफाम का कहना है कि सोशल मीडिया ने कला को बढ़ावा देने में सकारात्मक भूमिका निभाई है.
6 मार्च को उन्होंने परिचय फाउंडेशन के निमंत्रण पर भुवनेश्वर में प्रदर्शन किया.उनका कहना है कि संगीत का शौकीन कोई भी व्यक्ति नरम दिल का होता है.