हामिद अली ख़ान उर्फ़ अजीत मगर सारी दुनिया उन्हें लॉयन के नाम से जानती है

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 26-01-2023
अजीत, जिन्हें सारा शहर लॉयन के नाम से जानता है
अजीत, जिन्हें सारा शहर लॉयन के नाम से जानता है

 

ज़ाहिद ख़ान

जी, हां उनका असल नाम हामिद अली ख़ान था और पैदाइश 27 जनवरी, 1922 गोलकुंडा, हैदराबाद (तेलांगाना). यही वह साल है, जब फ़िल्म ‘नया दौर’ और ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में उनके दोस्त बने दिलीप कुमार और ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के डायरेक्टर के. आसिफ़ ने इस दुनिया में पहली बार अपनी आंखें खोलीं.

यह महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि एक ही साल में अलग-अलग जगह पैदा हुई इन अज़ीम शख़्सियात ने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में एक साथ काम किया. दर्शकों पर अपने काम से ऐसी छाप छोड़ी, जो उन्हें आज भी याद करते हैं.

हम बात कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के रौबदार विलेन अजीत की, जिन्होंने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में शहज़ादा सलीम के जांबाज़ राजपूत दोस्त दुर्जन सिंह का शानदार किरदार निभाया था.

अजीत

लेकिन अजीत की असल पहचान बनी, उन फ़िल्मों से जिनमें उन्होंने ख़लनायकी के जौहर दिखलाए. मसलन ‘सूरज’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘ज़ंजीर’, ‘यादों की बरात’ और ‘कालीचरन’. ख़ास तौर पर फ़िल्म ‘कालीचरण’ का यह डायलॉग ‘‘सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है.’, शायद ही कभी किसी के जे़हन से उतर सकता है.

सारा शहर ही नहीं, पूरी दुनिया उन्हें लॉयन के नाम से जानती-पहचानती हैं. अपने डायलॉग बोलने के अंदाज़ से ही अजीत, दर्शकों की सारी तालियां लूट लेते थे. छोटे-छोटे जुमलों को सिर्फ़ अपने बोलने के लाजवाब अंदाज़ से उन्होंने मक़बूल कर दिया. मिसाल के तौर पर ‘स्मार्ट बॉय’, ‘मोना डार्लिंग’, ‘राबर्ट’. उनके ये वन लाइनर्स आज भी दोहराये जाते हैं.

विलन का यह कूल अंदाज़ लोगों को खू़ब पसंद आया. बिना लाउड हुए, वे अपना काम बड़ी होशियारी से अंजाम देते थे. एक लिहाज़ से कहें, तो उन्होंने फ़िल्मों में विलेन की बंधी—बंधाई छवि को पूरी तरह से तोड़ दिया. फ़िल्मों में वे बेहद स्टाइलिश, सफे़द सूट-बूट और सिगार व पाइप पीते नज़र आते थे.

अजीत के वालिद बशीर अली ख़ान निज़ाम हैदराबाद की फ़ौज में एक अहम ओहदेदार थे. लिहाज़ा तालीम-ओ-तर्बियत हैदराबाद में ही मुकम्मल हुई.

शालीन खलनायक अजीत

फ़िल्मों के जानिब दीवानगी के चलते उनका पढ़ाई में दिल नहीं लगा. दिन-रात फ़िल्मों में हीरो बनने के ख़्वाब देखते. अजीत 22साल के थे, जब उन्होंने अपने कॉलेज की सारी किताबें बेचीं और हीरो बनने की गरज़ से बंबई रवाना हो गए.

शालीमार स्टुडियो के मालिक डब्लू. जेड. अहमद अपनी फ़िल्म ‘मन की जीत’ के लिए कुछ नए आर्टिस्टों की तलाश कर रहे थे. उसके लिए उन्होंने बाक़ायदा बंबई में एक ऑडिशन रखा था. अजीत ने इस ऑडिशन में हिस्सा लिया, मगर अफ़सोस वे इसमें कामयाब नहीं हुए. वे रिजेक्ट कर दिए गए.

इस नाकामी के बाद भी अजीत ने अपना हौसला नहीं खोया. फ़िल्मी दुनिया में जगह पाने के लिए वे मुसलसल जद्दोजहद करते रहे. रोल पाने के लिए प्रोड्यूसर-डायरेक्टर के घरों के चक्कर लगाए. इतनी अच्छी पर्सनालिटी होने के बावजूद छोटे-छोटे एक्स्ट्रा रोल किए. आख़िरकार उनकी मेहनत और सब्र काम आया.

साल 1946में निर्माता-निर्देशक के. अमरनाथ ने हामिद अली ख़ान को अपनी फ़िल्म ‘शाह-ए-मिस्र’ में गीता बोस के साथ हीरो के रोल का चांस दिया. लेकिन वो फ़िल्मी पर्दे पर हामिद अली ख़ान के नाम से नहीं, बल्कि अजीत के नाम से अवतरित हुए.

यह वह दौर था, जब ज़्यादातर लोग जिसमें हीरो और हीरोइन दोनों ही शामिल हैं, फ़िल्मों में अपने नये नाम से ही आते थे. अशोक कुमार, किशोर कुमार, दिलीप कुमार, मनोज कुमार से लेकर ऐसे अनेक हीरो हैं, जिनका हक़ीक़ी नाम दूसरा है. इसकी एक वजह ये भी थी कि नाम ऐसा हो, जो लोगों की ज़ुबान पर आसानी से चढ़ जाए. ख़ैर अजीत, भी अपने नाम के आगे कुमार लगाना चाहते थे, मगर ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की बेशुमार कामयाबी के बाद, उन्होंने अपने नाम के आगे कुमार लगाने का इरादा छोड़ दिया.

पहले हीरो थे अजीत

बहरहाल, बीसवीं सदी के पांचवे दशक में हीरो के तौर पर अजीत की कई फ़िल्में आईं. मसलन ‘मेहरबानी’, ‘सरकार’, ‘सिकंदर’, ‘मेरीन ड्राईव’, ‘हातिमताई’, ‘आपबीती’, ‘सोने की चिड़िया’, ‘पतंगा’, ‘ढोलक’, ‘चंदा की चांदनी’, ‘मोती महल’, ‘सम्राट’, ‘तीरंदाज़’, ‘सैयां’, ‘शहज़ादा’ और ‘नास्तिक’. उन्हें फ़िल्में ज़रूर मिलती रहीं, पर हीरो के तौर पर उन्होंने दर्शकों पर कोई ख़ास छाप नहीं छोड़ी. न ही इन फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर कोई कमाल दिखाया.

इस दरमियान अजीत ने नलिनी जयवंत के साथ सबसे ज़्यादा पन्द्रह फ़िल्में कीं. नलिनी जयवंत के साथ पर्दे पर उनकी जोड़ी ख़ूब जमी. साल 1955में फ़िल्म ‘बारा दरी’ और 1963में ‘शिकारी’ जैसी कामयाब फ़िल्म देने के बाद भी अजीत को बी ग्रेड फ़िल्मों में ही हीरो के रोल मिलते रहे. अलबत्ता सपोर्टिंग एक्टर के किरदार में उन्होंने ज़रूर बेहतरीन एक्टिंग की.

निर्देशक बीआर चोपड़ा की फ़िल्म ‘नया दौर’ (साल-1956) और निर्देशक के. आसिफ़ की ‘मुग़ल-ए-आज़म’ (साल-1960) वे फ़िल्में हैं, जिनमें उनके काम की ख़ूब तारीफ़ हुई. अदाकारी के शहंशाह दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर के सामने भी उन्होंने ग़ज़ब की एक्टिंग की. दोनों ही फ़िल्में सुपर-डुपर हिट हुईं.

यह बतलाना भी लाज़िमी होगा कि ‘दुर्जन  सिंह’ के रोल के लिए के. आसिफ़ ने पहले उन्हें रिजेक्ट कर दिया था. बाद में जब उन्होंने 1952में ‘मुग़ल-ए-आज़म’ दोबारा शुरू की, तब इस रोल के लिए अजीत का इंतख़ाब हुआ. इस दरमियान कमाल अमरोही ने अजीत को अपनी फ़िल्म ‘अनारकली’ के अहम किरदार के लिए चुन लिया था, लेकिन ये फ़िल्म आगे नहीं बढ़ पाई. वरना, शायद ही उन्हें ‘दुर्जन सिंह’ का रोल मिलता.

‘मुग़ल-ए-आज़म’ में अजीत के जितने भी सीन हैं, उन्होंने अपनी डायलॉग डिलीवरी से दर्शकों में अपनी एक अलग छाप छोड़ी. मसलन ‘‘राजपूत जान हारता है...वचन नहीं हारता.’’

अजीत ने अपने करियर के दूसरे हिस्से में विलेन की भूमिकाएं कीं. विलेन के तौर पर उन्हें हीरो से भी ज़्यादा कामयाबी मिली. इसका आग़ाज़ उन्होंने फ़िल्म ‘सूरज’ से किया. जिसमें वे राजेन्द्र कुमार के बरअक्स विलेन के रोल में नज़र आए. फ़िल्म कामयाब रही और उसके बाद तो विलेन के किरदार के लिए अजीत निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद बन गए.

इस दौर में उन्होंने पचास से ज़्यादा फ़िल्मों ‘प्रिंस’, ‘कहानी किस्मत की’, ‘जुगनू’, ‘चरस’, ‘आज़ाद’, ‘खोटे सिक्के’, ‘धरती’, देस परदेस, ‘मिस्टर नटवरलाल’, ‘राम बलराम’, ‘राज तिलक’ वगेरह में विलेन का किरदार निभाया. फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ में निभाया गया उनका ख़लनायक का किरदार ‘तेजा’ और ‘यादों की बरात’ में ‘शाकाल’ हमेशा लोगों के जे़हन में रहेगा.

अपने भारी-भरकम डील-डौल से वे हीरो के सामने एक मज़बूत विलेन के तौर पर सामने आते थे. ख़ास तौर से उनकी डायलॉग डिलीवरी दर्शकों को ख़ूब पसंद आती थी.

उनके बोलने के अंदाज़ ने ही छोटे-छोटे डायलॉग को मशहूरे ज़माना बना दिया है. मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ के ‘मोना डार्लिंग’, ‘यादों की बरात’ में ‘लिली, डोंट बी सिली’, फ़िल्म ‘आज़ाद’-‘‘ज़िंदगी सिर्फ़ दो पांवों से भागती है...और मौत हज़ारों हाथ से उसका रास्ता रोकती है.’’ और ‘कालीचरण’ का यह डायलॉग ‘सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है’ तो जैसे मुहावरों की तरह इस्तेमाल होने लगे.

आज भी इन डायलॉग की तासीर ठंडी नहीं हुई है. इन डायलॉग के आते ही अजीत की छवि नज़र आने लगती है. हिंदी सिनेमा के आग़ाज़ से लेकर आज तक कई अदाकारों ने ख़लनायक का रोल निभाया, दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ी, मगर अजीत की बात ही कुछ और थी.

उन जैसा सफ़ेदपोश ख़लनायक, जो पर्दे पर बड़े ही नफ़ासत और तहज़ीब से दर्शकों में अपना ख़ौफ़ पैदा करता था, ऐसा करिश्मा बहुत कम लोगों ने दिखाया है. अजीत ने अपने चार दशक के फ़िल्मी करियर में करीब दो सौ फ़िल्मों में काम किया.

पर्दे पर बुरे कामों से अपने लिए नफ़रत और ग़ुस्सा पैदा करने वाले अजीत, निजी ज़िंदगी में बेहद शरीफ़ और उसूलपसंद थे. शे’रो-शायरी से उन्हें बेहद लगाव था. उनके प्रशंसकों में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई भी शामिल थे. 22अक्टूबर, 1998को 76साल की उम्र में अजीत ने इस दुनिया को अलविदा कहा.