कन्हैयालाल की हत्या, जिम्मेदारी हम सब पर

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 29-06-2022
कन्हैयालाल की हत्या के जिम्मेदारी हम सब पर है
कन्हैयालाल की हत्या के जिम्मेदारी हम सब पर है

 

साकिब सलीम

 

कोई हिंदू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है

सबने इंसान न बनने की कसम खाई है

            निदा फाजली

दिल बहुत परेशान है. ये आखिर हम कहां आ गए हैं? मुझे तो समझ नहीं आता कि ये कौन सा देश, कौन सा समाज है जहां इंसानी जान की कोई एहमियत ही नहीं. आज एक वीडियो देखा - उदयपुर के कन्हैयालाल को मोहम्मद रियाज और गौस मुहम्मद ने धारधार हथियारों से मार डाला. तब से कहीं भी जी नहीं लग रहा.

ऐसा नहीं कि इस समाज में अपराध नहीं होते थे और हत्या नहीं होती थी. बेशक इंसानी समाज जितना पुराना है, उतना ही पुराना हत्या का जघन्य अपराध भी है. लेकिन पहले अपराधी अपने अपराध को छुपाने की कोशिश करता था और आज अपराधी सीना चौड़ा कर अपने गुनाह का इश्तिहार छापता है. ये क्यों हुआ ? कैसे हुआ ?

ये ऐसी पहली घटना नहीं है. आज से तीन साल पहले राजस्थान में ही अफराजुल नामक एक मजदूर को शंभूलाल रेगर ने मार डाला था और उसकी वीडियो बनाकर वायरल कर दी थी. उस समय भी मैंने अपने एक लेख में इस कृत्य को सामाजिक पतन से जोड़ा था.

आज फिर मेरा यही कहना है. हमें अपने समाज में सुधार की जरुरत है. हमें ये समझना होगा कि ऐसा क्या हुआ कि इन हत्यारों को ये लगने लगा है कि जनमानस को जब उनके गुनाहों की जानकारी होगी तो वो इनसे नफरत करने के बजाए इनको अपना हीरो मान लेंगे.

असल में हम समाजिक पतन के दौर में जी रहें हैं. राजनीति, धर्म, देश आदि के नाम पर लोगों को नफरतों का पाठ पढ़ाया जा रहा है. इकबाल का कथन - ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ अब पुराने जमाने का किस्सा हो चला है, अब तो हर विचारधारा नफरत की बुनियाद पर ही आ टिकी है.

कुछ साल पहले जब सीरिया से खबर सुनी थी कि आइसिस के आतंकियों ने किसी का सर काटने की वीडियो बना कर उसे जिहाद करार दिया है तो बड़ा अजीब लगा था. लेकिन अब तो ये बीमारी हमारे देश तक आ पहुंची है. डर लगता है कि ये नफरत हमारे घरों तक भी न फैल जाए.

आखिर हुआ क्या है? हुआ ये है कि आज सोशल मीडिया के दौर में युवा पीढ़ी दिन भर ऐसे लोगों के फॉलोवर्स बढ़ते देखती है जो नफरत की ही बात करते हैं. इनको देख यही लगता है कि धर्म, देश या समाज की रक्षा में अपराधी प्रवृत्ति की हिंसा जरूरी है.

ये भी गुमान होने लगता है कि ऐसे अपराध करने पर समाज का एक बड़ा तबका उन्हें हीरो मान लेगा. ये गुमान बेबुनियाद भी नहीं है हमने देखा था कि कैसे शंभूलाल के जेल से निकलने पर उसका स्वागत हुआ था. मुझे तो डर है कि कुछ नफरती रियाज और गौस को भी हीरो बनाने की कोशिश न करे. ऐसा हुआ तो ये हमारे समाज की एक और हार होगी.

हम और हमारा समाज हार रहा है कुछ नफरत फैलाने वाले भटके हुए लोगों से लेकिन क्यों? क्योंकि हमने इन नफरत के ठेकेदारों को समाज और धर्म का ठेकेदार बना दिया है. आज से आधा सदी से ज्यादा बीत चुकी है जब साहिर लुधियानवी ने इन लोगों के लिए लिखा था कि - “ये दीन के ताजिर ये वतन बेचने वाले , इंसानों की लाशों के कफन बेचने वाले” लेकिन अभी भी ये लुटेरे महलों में बैठे हैं. जरुरत है कि मजहब की ठेकेदारी इनके हाथ से ली जाए.

आज दो हत्यारों ने वीडियो में दावा किया है कि उन्होंने इस्लाम धर्म की खिदमत की है. उनका दावा है कि बाकी सब मुसलमानों को भी उनके जैसा होना चाहिए. आज जरुरत है कि हम अपने मजहब को इन नफरत के सौदागरों से बचाएं.

घरों में अपने बच्चों को, मुहल्ले में अपने साथियों को ये बताएं कि अल्लाह के नबी मुहम्मद के बताए मजहब में खून खराबा नहीं है. किसी बेगुनाह की जान ले लेना जिहाद नहीं अपराध ही है. जिसे यकीन न आता हो वो जिहाद से ठीक पहले मुहम्मद साहब द्वारा दिए गए आदेशों में देख सकता है कि ये सख्त हिदायत होती थी कि अगर कोई दुश्मन फौजी मैदान से भागने लगे तो उसके पीछे जाकर उसे कत्ल करना जिहाद का हिस्सा नहीं है.

फिर भले हुए उस दुश्मन फौजी ने मुस्लिम फौज के कितने ही लोगों को क्यों न मारा हो. क्या ये समझाना हमारा फर्ज नहीं कि खुद अल्लाह के नबी मुहम्मद ने अपने खिलाफ खड़े दुश्मनों को कत्ल नहीं किया बल्कि आखिर दम तक उनको सच का रास्ता बताते रहे. यहां तक कि जब मक्का उनके अधीन आ गया था तब भी लोगों को उनको या उनके मजहब को गली देने के लिए सजा देने के बजाए उनको धर्म का पाठ पढ़ाने की कोशिश हुई.

इस्लाम वो धर्म है जो लोगों को समझाने की बात करता है. जो लोग सच्चाई के रास्ते को नहीं अपनाते उनको मारने की बात ये धर्म नहीं करता, बल्कि सिर्फ उनको समझाने की बात करता है. किसी ने अगर अल्लाह के नबी के बारे में गलत बात कही है तो मुसलमान का फर्ज है कि उसको बताए कि मुहम्मद क्या थे और उनका धर्म क्या है ?

लोगों में जो गलतफहमियां हैं उनको दूर कीजिए. हत्या करना किसी मुद्दे का हल नहीं . आखिर में आपके कृत्यों से ही इस्लाम पहचाना जाएगा आखिर इस्लाम वो नहीं है जो किताबों में लिखा है. इस्लाम तो वही है जो मुसलमान दुनिया के सामने पेश करते हैं.

बात ये है कि मैंने क्या क्या लिख दिया मैं नहीं जानता. बात बस इतनी है कि “मैं बड़े बिरोग की हूं सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूं” मुझे सिर्फ इतना मालूम है कि हम सबको नफरतों की ये सौदागरी बंद करानी होगी. वर्ना हर बार हम 75बरस पुराना मजाज का ये शेर ही लिखते रहेंगे - “हिंदू चला गया न मुसलमान चला गया, इन्सां की जुस्तजू में एक इन्सां चला गया” और ये शेर पुराना ही न होगा.