इस्लाम की भारतीय समझ पर वहाबी असर

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] • 2 Years ago
इस्लाम की भारतीय समझ पर वहाबी असर
इस्लाम की भारतीय समझ पर वहाबी असर

 

डॉक्टर शुजाअत अली कादरी

भारत सूफी संतों का देश है. यहां हिंदू और मुसलमान मिलकर रहते हैं. देखा जाए तो हिंदू समुदाय के दिल में सूफी फकीरों के लिए जो अकीदत है, वह मुसलमानों से कमतर नहीं. आप अजमेर में ख्वाजा के दरबार में चले जाइए.

आपको लगेगा जैसे हिंदू-मुस्लिम एकता का मेला लगा है. सिख, ईसाई,दलित और बौद्ध भी उसी श्रद्धा से आते हैं. गरीब नवाज से अपनी फरियाद लगाते हैं. आपको ऐसी सैकड़ों कहानियां मिल जाएंगीं जो अंतरविश्वास से जुड़ी हैं. हिंदू-मुस्लिम एकता की आज भी सबसे बड़ी वजह है. सवाल यह है कि इस्लामी आतंकवाद के लिए जिम्मेदार घोर वहाबी करण की नियोजित मुहिम के आगे यह एकता कितने दिन टिक पाएगी ?

इसमें बड़ा खतरा वहाबीकरण का है, क्योंकि यह जितना रियाद में पाया जाता है, उतना ही इस्लामाबाद में है. जितना दोहा में है, उतना ही क्वालालम्पुर, जकार्ता, वाशिंगटन और बेशक दिल्ली में है.

भारत में इस्लाम पर सबसे अधिक किताबें लिखी गई हैं. पिछले सौ सालों तक भारतीय सुन्नी सूफी समुदाय ने लाखों किताबों की रचना की जो इस्लाम के उदारपंथ सुन्नत वल जमात या सूफीवाद पर आधारित हैं. भारत में वहाबी नियोजित विचारधारा का पोषण पहले स्वतंत्रता संग्राम के निष्फल होने के बाद शुरू हुआ.

वर्तमान तुर्की से सात सौ साल राज कर चुकी उस्मानिया खिलाफत को अंग्रेज जब किसी हाल में नहीं हरा सके तो उन्नीसवीं शताब्दी में वर्तमान सऊदी अरब में उन्होंने अल सऊद परिवार को चयन किया जो उस जमाने में हाजियों से लूटपाट करने वाले एक डाकू गिरोह की तरह काम करता था.

अल सऊद के अब्दुल अजीज से ब्रिटेन ने संपर्क कर मदद की पेशकश की लेकिन अब्दुल अजीज इलाके जीत जाने पर भी जनता के विद्रोह की आशंका से परेशान था. इसके लिए ब्रिटेन ने उसे पूर्ववर्ती ब्रिटेन परस्त लेखक इब्न अब्दुल वहाब की विचारधारा के मदरसे साथ में स्थापित करने का सुझाव दिया.

इब्न अब्दुल वहाब के नाम से ही इसकी विचारधारा को ‘वहाबियत’ कहा जाता है. अब्दुल अजीज को इस वैचारिक हथियार की जरूरत थी. इससे वह अपने अधीन जनता को डराने में कामयाब हो गया कि यदि मुसलमान उदार है तो वह काफिर है.

उस्मानिया खिलाफत लगातार ब्रिटिश और फ्रेंच हमले और दक्षिणी अरब में अलसऊद के नियोजित हमलों से ढह गई. भारत में उदार सुन्नी समुदाय ने इसके विरोध में मौलाना मोहम्मद अली जौहर की अगुवाई में ‘खिलाफत आंदोलन’ चलाया जिसे महान् स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गांधी ने समर्थन दिया था.

गांधी समझते थे कि जितने खतरनाक अंग्रेज हैं उतने ही खतरनाक वहाबी भी हैं. पूरे विश्व में वहाबी विचारधारा के विरुद्ध पहला फतवा भारत से आया था. भारतीय मुसलमानों ने इस खतरे को तभी पहचान लिया था, लेकिन अरब के लोग इस खौफ में आ गए कि अगर उन्होंने वहाबी विचारकों की बात को नहीं सुना तो वह मुसलमान नहीं रहेंगे. वहाबी की ‘फतवा राजनीति‘ का सूत्रपात यहीं से शुरू हुआ जिसने आज इस्लाम को बेशुमार बदनामी दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

सन् 1857के पहले स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के दौरान अंग्रेजों को इस बात का अनुभव हो गया कि भारत पर लम्बे वक्त तक काबिज रहने के लिए उन्हें दो चीजों की फौरन आवश्यकता है. पहला हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ना और दूसरे मुसलमानों के बीच एक ऐसी विचारधारा को पोषित करना जो खुुद अपने समाज के खिलाफ काम करे.

उस्मानिया खिलाफत के इलाकों के बंटवारे के दौरान अंग्रेजों ने अरब के पवित्र मक्का और मदीना के इलाके ‘हिजाज’ के साथ नज्द और रबीउल खाली का इलाका मिलाकर इसे अल सऊद परिवार को दे दिया. इसका नामकरण एक परिवार के नाम पर किया यानी ‘सऊदी अरब’.

इराक में आईएसआईएस के लिए काम करते हुए कल्याण, महाराष्ट्र के एक लड़के आरिफ और अफगानिस्तान में तालिबान के लिए एक युवा भटकल के मारे जाने के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस भारत ने वहाबियत के विरुद्ध सबसे पहली और बड़ी मुहिम चलाई क्या उसकी जमीन में इतना जहर फैल चुका है कि वहीं से नौजवान वहाबी जिहादी चक्की में पिसने खुद जा रहे हैं.

भारत में लगभग 20 करोड़ से अधिक भारतीय मुसलमान आबादी का 90 प्रतिशत सुन्नी है. इस 90 प्रतिशत का बमुश्किल 10 फीसदी वहाबी है. यह आंकड़ा तब है, जब अंग्रेज 1857 से प्रायोजित वहाबी कार्यक्रम भारत में शुरू करके गए जिसका नतीजा पहले बंटवारे, दंगों के रूप में देखा गया.

आज आईएसआईएस या अलकायदा के लिए काम कर रहे लड़कों के रूप में सामने है. दरअसल, भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाही को इस बात की खबर नहीं है कि वहाबी तंत्र कैसे काम करता है ?

इसी वहाबी विचारधारा से जन्मा राजनीतिक विचार जिसको दुनिया मुस्लिम ब्रदरहुड के नाम से जानती है. बहुत तेजी से फैलाव हो रहा है. इसे कतर और तुर्की का समर्थन प्राप्त है. मिस्र में मोहम्मद मोरसी के नेतृत्व मे कतर समर्थित मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार बनते ही उसे वहाबी उर्फ सलफी एजेंडे पर चलाया जाने लगा.

मिस्र की जनता एक ही साल में सड़कों पर आ गई. मोहम्मद मुर्सी को जुलाई 2013में गद्दी छोड़नी पड़ी. सत्ता से बेदखल मुस्लिम ब्रदरहुड के कार्यकर्ताओं ने राजधानी काहिरा समेत सिकंदरिया, गिजा, फय्यूम, बेनी सुएफ, शर्म अल शेख, मिनया, दखलिया, सिनाई, सुहाग, जगाजिग, दमिता, जेफ्ता, गरबिया, अबू अलमतामिर, नील नदी किनारा, मर्सा महरुआ, सैद बंदरगाह और देश भर में दंगे करने शुरू कर दिए.

अपने आप को शांतिप्रिय संगठन कहने वाले मुस्लिम ब्रदरहुड के कार्यकर्ताओं ने कई हत्या और लूटपाट कीं. करोड़ों रुपये की सार्वजनिक संपत्ति बरबाद कर दी.

दुनिया के 100से अधिक देशों में मुस्लिम ब्रदरहुड की मौजूदगी अलग-अलग नामों से है या इन देशों में मुस्लिम ब्रदरहुड की विचारधारा वाले संगठन हैं. भारत में भी ऐसे कई संगठन हैं. भारत सरकार को ये समझना चाहिए कि कतर और सऊदी अरब की व्यापारिक मित्रता तो ठीक है,

लेकिन जैसे ही आप इन्हें अपनी वैचारिक पौध बोने के लिए जमीन देते हैं. ये उसे नाइजीरिया, सीरिया, लीबिया, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान बना देते हैं. वहाबी आतंकवाद से सूफी मत ही लड़ सकता है. भारत सरकार को यह बात समझनी होगी, ताकि भारत वहाबी आतंकवाद की प्रयोगशाला न बन सके.

 ( कादरी, मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा भू राजनीति के जानकार हैं  )