चीनी संकट: पाकिस्तान को चाहिए अब स्थायी समाधान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 06-08-2025
Sugar crisis: Pakistan now needs a permanent solution
Sugar crisis: Pakistan now needs a permanent solution

 

 चौधरी शफ़ीक

पाकिस्तान, जो दुनिया के बड़े चीनी उत्पादक देशों में गिना जाता है, वहां हर साल एक ही संकट बार-बार सिर उठाता है — चीनी की कमी, कीमतों में भारी उछाल और आम जनता की परेशानियां. यह संकट अब केवल एक मौसमी या आर्थिक समस्या नहीं रह गया है, बल्कि यह एक गंभीर प्रशासनिक विफलता, नीति निर्धारण की कमजोरी और कार्टेलाइज्ड बाजार व्यवस्था की पहचान बन चुका है.

असल में, यह संकट इसलिए भी लगातार बना रहता है क्योंकि देश की शुगर इंडस्ट्री ज़्यादातर असंगठित और गैर-दस्तावेज़ी ढांचे में काम कर रही है. चीनी के उत्पादन, भंडारण और खपत से संबंधित आंकड़े या तो उपलब्ध नहीं होते या फिर उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इसकी एक बड़ी वजह है – संस्थागत लापरवाही, खासतौर से पाकिस्तान ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स की विफलता, जो वास्तविक समय में डेटा देने में असमर्थ रहा है.
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अक्सर ऐसा हुआ है कि देश में चीनी की उपलब्धता को लेकर गलत आंकड़ों के आधार पर निर्णय लिए गए. कभी जरूरत से ज्यादा चीनी का निर्यात कर दिया गया, और फिर घरेलू कमी होने पर महंगे दामों पर आयात करना पड़ा. ऐसे हालात में जब बाज़ार में अनिश्चितता हावी होती है, तो मुनाफाखोर और जमाखोर तत्व इसका भरपूर फायदा उठाते हैं और मनचाही कीमतें वसूलते हैं.

पिछली सरकारों ने इस संकट से निपटने के लिए कई उपाय किए, लेकिन वे सभी अस्थायी, दिखावटी और अल्पकालिक साबित हुए. सरकारों की अनिच्छा, निर्णयों में पारदर्शिता की कमी और नीतियों के अमल में गंभीरता का अभाव इस संकट को और अधिक गहरा करता गया..

आज ज़रूरत है कि इस समस्या का समाधान केवल "रेट कंट्रोल" जैसे कमज़ोर उपायों से नहीं, बल्कि एक मजबूत, पारदर्शी और डेटा-आधारित नियामक ढांचे के ज़रिए किया जाए, जो बाज़ार की वास्तविक मांग और आपूर्ति के आधार पर फैसला ले सके, कालाबाज़ारी को रोके और उपभोक्ता, किसान और उद्योगपति — सभी के हितों में संतुलन बनाए.

इस दिशा में एक व्यवहारिक मॉडल है – "सेमी-स्टेट, सेमी-मार्केट" मॉडल, यानी अर्ध-सरकारी और अर्ध-बाज़ार आधारित प्रणाली. यह कोई नया विचार नहीं है, बल्कि 1970 के दशक में पंजाब सरकार द्वारा इस मॉडल का उपयोग सफलतापूर्वक किया जा चुका है. उस समय 1950 के शुगर फैक्ट्रीज कंट्रोल एक्ट के तहत एक प्रणाली विकसित की गई थी जिसमें गन्ने के ज़ोन, मिलों के लिए निर्धारित क्षेत्र और अतिरिक्त चीनी की सरकारी खरीद जैसे उपाय शामिल थे.
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आज उसी मॉडल का आधुनिक संस्करण लागू किया जा सकता है, जिसमें प्रांतीय सरकारें — जैसे पंजाब सरकार — बैंकों से क्रेडिट लिमिट लेकर शुगर मिलों से सीधे नकद में चीनी खरीदें, जिससे मिलों को तत्काल पूंजी मिले और वे अपने बैंक लोन चुका सकें. इसके लिए बैंकों की मौजूदा अतिरिक्त नकदी (liquidity) का इस्तेमाल किया जा सकता है.

सरकार द्वारा खरीदी गई चीनी को शुगर मिलों के गोदामों में ही रखा जाएगा, लेकिन खाद्य विभाग की निगरानी में इन गोदामों को सील किया जाएगा. इन मिलों को इसके लिए भंडारण शुल्क दिया जाएगा ताकि वे सहयोग करने को तैयार हों.

इसके बाद सरकार यह चीनी मान्यता प्राप्त थोक डीलरों के माध्यम से आम जनता को बेचेगी. कीमतें तय करने में खरीद मूल्य, ब्याज, भंडारण लागत और अन्य प्रशासनिक खर्चों को ध्यान में रखा जाएगा ताकि कोई भी अतिरिक्त बोझ उपभोक्ताओं पर न पड़े.

इस पूरी व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि चीनी की नियमित और स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकेगी. जमाखोरी, कृत्रिम संकट और कालाबाज़ारी पर प्रभावी नियंत्रण संभव होगा.जब देश में चीनी की उपलब्धता आवश्यकता से अधिक हो, तो सरकार ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ पाकिस्तान (TCP) के माध्यम से इसे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में निर्यात कर सकती है. वहीं, यदि घरेलू कमी का खतरा हो, तो समय रहते आयात के टेंडर जारी किए जा सकते हैं, ताकि देश की जरूरतों को संतुलित रखा जा सके.

एक और रचनात्मक विकल्प यह है कि सरकार, बैंक और शुगर मिल मालिकों के बीच एक त्रिपक्षीय कानूनी समझौता हो. इसके तहत क्रेडिट, भंडारण और विक्रय प्रक्रिया को एकसाथ जोड़कर प्रणालीबद्ध किया जा सकता है. इससे शुगर मिल मालिकों को भी पारदर्शी तरीके से लाभ होगा और सरकारी निगरानी सुनिश्चित होगी.

इस पूरे मसले में एक और महत्वपूर्ण पक्ष है — गन्ना किसान. अक्सर देखा गया है कि शुगर मिलें समय पर किसानों को भुगतान नहीं करतीं, जिससे किसान विरोध प्रदर्शन करते हैं, सड़कें जाम होती हैं और सरकार की मुश्किलें बढ़ जाती हैं.

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अगर सरकार इस त्रिपक्षीय समझौते में किसानों को समय पर भुगतान की शर्त को अनिवार्य बना दे, तो इस समस्या का स्थायी समाधान संभव है. इससे किसानों में भरोसा बढ़ेगा, उनकी आय सुनिश्चित होगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी.

अंततः, यह कहना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान का चीनी संकट उत्पादन की समस्या नहीं, बल्कि एक नीति निर्धारण, पारदर्शिता और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की समस्या है. यदि सरकार गंभीर हो, सही समय पर निर्णय ले, पारदर्शी डेटा प्रणाली लागू करे और नीतियों में स्थिरता बनाए रखे — तो यह संकट आसानी से सुलझाया जा सकता है.

पाकिस्तान जैसे देश में जहां किसान, उपभोक्ता और उद्योगपति — तीनों ही चीनी अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं, वहां एक संतुलित, व्यवहारिक और आधुनिक प्रणाली की सबसे अधिक आवश्यकता है. सरकार को अब अस्थायी उपायों से ऊपर उठकर लंबी अवधि की रणनीति अपनानी होगी, जिससे देश को इस हर साल दोहराए जाने वाले मीठे लेकिन कड़वे संकट से स्थायी रूप से निजात मिल सके.

"चीनी का संकट नहीं, नीतियों की कड़वाहट है असली चुनौती — और समाधान अब केवल नीयत और नीति में सुधार से ही संभव है."