नईम फिरदौस रीतम
बदलती वैश्विक व्यवस्था में अब केवल सैन्य ताकत या आर्थिक शक्ति ही निर्णायक नहीं रह गई है. आज देशों के लिए यह भी उतना ही ज़रूरी हो गया है कि वे अपनी वैचारिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ताकत का इस्तेमाल करके दूसरों को प्रभावित करें — यानी कि अपनी 'सॉफ्ट पावर' को मज़बूत करें. सॉफ्ट पावर वह क्षमता है जिससे कोई देश बिना बल प्रयोग के, अपने सांस्कृतिक आकर्षण, ऐतिहासिक विरासत और विचारधारा के ज़रिए दुनिया के फैसलों और धारणाओं को प्रभावित कर सकता है.
ग्लोबल साउथ, यानी दुनिया के दक्षिणी हिस्से के कई विकासशील देश, इस दौड़ में अब पूरी तरह शामिल हो चुके हैं. भारत, चीन, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश अब अपनी विदेश नीति में सॉफ्ट पावर को एक प्रमुख हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं.
भारत का उदाहरण लें तो यह देश अपनी हज़ारों वर्षों पुरानी सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता से पेश कर रहा है. भारत सरकार की ‘मौसम परियोजना’ एक प्रमुख रणनीतिक पहल है, जो प्राचीन हिंद महासागर व्यापार मार्गों को पुनर्जीवित करने की कोशिश है.
इस परियोजना के ज़रिए भारत अफ्रीका, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों को फिर से उभार रहा है. इसका उद्देश्य सिर्फ सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करना नहीं है, बल्कि भारत को क्षेत्रीय शक्ति और आर्थिक भागीदार के रूप में भी स्थापित करना है. इससे भारत एक ऐसे देश की छवि गढ़ने की कोशिश कर रहा है जो न केवल आधुनिक है, बल्कि जिसकी जड़ें भी बेहद गहरी और समृद्ध हैं.
दूसरी ओर, चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (BRI) को अक्सर एक आर्थिक परियोजना के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह चीन की सॉफ्ट पावर रणनीति का भी अहम हिस्सा है. चीन इसे प्राचीन 'सिल्क रोड' से जोड़कर यह दिखाना चाहता है कि वह हमेशा से वैश्विक व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का हिस्सा रहा है.
इस ऐतिहासिक सिल्क रोड की कल्पना को पुनर्जीवित कर चीन यह संदेश देता है कि वह न केवल आधुनिक विकास का केंद्र है, बल्कि उसका अतीत भी उतना ही गौरवशाली रहा है. चीन कन्फ्यूशियस संस्थानों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और ऐतिहासिक आख्यानों के ज़रिए वैश्विक धारणाओं को प्रभावित करने की कोशिश करता है. यह सब मिलकर चीन को न केवल एक आर्थिक महाशक्ति, बल्कि एक वैचारिक और सांस्कृतिक ताकत के रूप में भी प्रस्तुत करता है.
भारत और चीन के बीच सॉफ्ट पावर को लेकर चल रही प्रतिस्पर्धा इस पूरी तस्वीर को और रोचक बनाती है. भारत ने बार-बार BRI में शामिल होने से इनकार किया है. आधिकारिक रूप से इसका कारण यह बताया गया कि BRI का एक हिस्सा पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है.
लेकिन असल में यह भारत की वैचारिक असहमति भी दिखाता है — भारत मानता है कि सिल्क रोड की ऐतिहासिक विरासत में उसकी भी उतनी ही भूमिका है, जितनी चीन की. चीन की मीडिया भारत पर वैचारिक पक्षपात का आरोप लगाती है, जबकि भारत इसे भू-राजनीतिक प्रभुत्व की कोशिश के रूप में देखता है.
इस विवाद से साफ ज़ाहिर होता है कि इतिहास और विरासत केवल अतीत की बातें नहीं हैं, बल्कि वे अब विदेश नीति का एक जीवंत औज़ार बन चुके हैं.मलेशिया की रणनीति थोड़ी अलग है। वह खुद को एक बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करता है, जहाँ विभिन्न सभ्यताओं का संगम हुआ है.
उसकी भूगोलिक स्थिति — प्रमुख समुद्री मार्गों के बीच — उसे एक प्राकृतिक 'सभ्यताओं के मिलन स्थल' की भूमिका देती है. मलेशिया अपनी सांस्कृतिक विविधता को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रदर्शित करके, खुद को एक सहिष्णु, सहयोगी और समावेशी देश के रूप में स्थापित करने की कोशिश करता है.
यह रणनीति मलेशिया की कूटनीति को मजबूती देती है और अंतरराष्ट्रीय छवि को भी बेहतर बनाती है. अंतर्राष्ट्रीय उत्सवों, शैक्षिक आदान-प्रदान, और विरासत पर्यटन के ज़रिए मलेशिया दुनिया भर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है.
इंडोनेशिया की सॉफ्ट पावर रणनीति भी उससे काफी मिलती-जुलती है, लेकिन उसका फोकस समुद्री विरासत पर अधिक है. इंडोनेशिया खुद को एक 'वैश्विक समुद्री धुरी' के रूप में फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहा है.
इतिहास में वह एक महत्वपूर्ण समुद्री राष्ट्र रहा है, जिसने व्यापार, धर्म और संस्कृति के ज़रिए क्षेत्रीय संपर्क बनाए थे. आज वह उसी अतीत को आधुनिक संदर्भ में फिर से प्रस्तुत कर रहा है. विभिन्न सांस्कृतिक उत्सव, शैक्षणिक साझेदारी और पर्यटन जैसे माध्यमों से इंडोनेशिया अपनी ऐतिहासिक समुद्री पहचान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उभार रहा है.
यह न केवल उसकी सांस्कृतिक पहचान को मज़बूत करता है, बल्कि उसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक प्रमुख रणनीतिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने की दिशा में भी मदद करता है.हालाँकि, मलेशिया और इंडोनेशिया के बीच सांस्कृतिक विरासत को लेकर कई बार टकराव भी हुए हैं.
वायांग कुलित कठपुतली कला, रियोग पोनोरोगो नृत्य और रसा सयांग लोकगीत जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों को लेकर दोनों देशों में विवाद हुए हैं. कभी-कभी यह विवाद इस स्तर तक पहुँच जाते हैं कि वे राजनयिक रिश्तों में तनाव पैदा कर देते हैं.
फिर भी, हाल के वर्षों में इन दोनों देशों ने कुछ सांस्कृतिक सहयोग के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं — जैसे यूनेस्को में केबाया और रियोग पोनोरोगो का संयुक्त नामांकन, और मलेशिया द्वारा इंडोनेशिया के गेमलान नामांकन का समर्थन. यह दिखाता है कि सॉफ्ट पावर की रणनीति में प्रतिस्पर्धा और सहयोग दोनों का स्थान है, और यह संतुलन बनाए रखना काफी चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
इन सभी उदाहरणों से यह साफ होता है कि वैश्विक साउथ के देश अब अपने इतिहास, संस्कृति और सभ्यता का रणनीतिक उपयोग कर रहे हैं. वे यह समझ चुके हैं कि केवल सैन्य या आर्थिक ताकत से वैश्विक प्रभाव नहीं बनाया जा सकता.
आज की दुनिया में यह भी उतना ही ज़रूरी है कि आप वैचारिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से दूसरों को प्रेरित कर सकें. लेकिन इसमें एक जोखिम भी है. जैसे-जैसे देश अपनी ऐतिहासिक विरासत को सॉफ्ट पावर के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वैसे-वैसे वैचारिक टकराव और प्रतिस्पर्धा की संभावना भी बढ़ जाती है.
इतिहास और संस्कृति को एक रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना नई तरह की अंतर्राष्ट्रीय असुरक्षाओं को जन्म दे सकता है.अंततः, सॉफ्ट पावर की यह होड़ केवल आकर्षण की नहीं, बल्कि पहचान, प्रभुत्व और प्रतिस्पर्धा की भी है.
भारत, चीन, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश यह दिखा रहे हैं कि इतिहास और संस्कृति को आधुनिक विदेश नीति में किस तरह एक प्रभावशाली और रणनीतिक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इससे यह भी पता चलता है कि 21वीं सदी की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवाद और पहचान की राजनीति अब साथ-साथ चल रही हैं.
(अनुवाद: "The Global South Contest for Soft Power and Influence" )