मलिक असगर हाशमी
भारत में इन दिनों एक छोटा सा वाक्य ‘आई लव मोहम्मद’, एक बड़ा बवाल बन गया है. सड़कों पर भीड़ जमा हो रही है, गाड़ियों पर स्टीकर लग रहे हैं, दीवारों और मकानों पर संदेश लिखे जा रहे हैं और कुछ लोग इसे लेकर ऐसे हंगामे कर रहे हैं मानो यह किसी टकराव का ऐलान हो. नारेबाज़ी हो रही है, गिरफ्तारियां हो रही हैं और माहौल तनावपूर्ण होता जा रहा है. लेकिन सवाल ये है कि जिस मोहम्मद साहब से आप मोहब्बत का दावा कर रहे हैं, क्या उन्होंने कभी अपने नाम पर ऐसी अफरातफरी को जायज़ ठहराया ? क्या उनका नाम नफरत और टकराव का प्रतीक है या अमन, रहमत और भाईचारे का?
पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का नाम लेना एक जिम्मेदारी है, एक वादा है कि हम उनके बताए रास्ते पर चलेंगे. उनका रास्ता संयम का था, संवाद का था, माफ़ी का था और सबसे बढ़कर इंसानियत का था.
जिन्होंने मदीने में यहूदी, ईसाई, और अलग-अलग कबीलों को एक साझा नागरिकता के तहत संगठित किया, जिन्होंने मदीना चार्टर के ज़रिए दुनिया को पहला ऐसा संविधान दिया जिसमें धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलता का खुले दिल से स्वागत किया गया.
आज जो लोग ‘आई लव मोहम्मद’ के नारे के नाम पर नफरत फैला रहे हैं, उन्हें पैगंबर की उस सादगी और सहिष्णुता की याद क्यों नहीं आती जो उन्होंने तमाम मुश्किलों के बावजूद अपनाई? क्या ये मोहब्बत का अंदाज़ है कि किसी के नाम पर गुस्सा और तोड़फोड़ की जाए? मोहब्बत तो सब्र मांगती है, समझदारी चाहती है और सबसे ज़्यादा सच्चाई की तलब रखती है.
अगर वाकई मोहम्मद साहब से मोहब्बत है, तो उस मोहब्बत का सबसे पहला सबूत यह होना चाहिए कि हम उनके बताए उस अमन और सौहार्द के पैग़ाम को अपनाएं जो आज मक्का चार्टर के रूप में दुनिया के सामने है.
मक्का चार्टर केवल एक दस्तावेज़ नहीं है, यह एक नैतिक संविधान है, एक इंसानी समझौता है, जिसे 139 देशों के इस्लामी नेताओं और 1,300 से ज़्यादा मुस्लिम विद्वानों ने मिलकर मंज़ूर किया. मई 2019 में मक्का के पवित्र धरती पर मुस्लिम वर्ल्ड लीग द्वारा आयोजित सम्मेलन में यह चार्टर पेश किया गया, जिसकी बुनियाद ही इस विचार पर थी कि इस्लाम का असली चेहरा उदारता, सहिष्णुता और इंसानियत है.
मक्का चार्टर का उद्देश्य यह है कि दुनिया को चरमपंथ, आतंकवाद, सांप्रदायिक नफरत और इस्लामोफोबिया जैसी बीमारियों से बाहर निकाला जा सके. इसमें स्पष्ट किया गया है कि किसी भी धर्म, नस्ल, या जाति को दूसरे से बेहतर नहीं माना जा सकता. सब इंसान अल्लाह की नज़र में बराबर हैं और कोई भी धार्मिक श्रेष्ठता केवल नैतिकता और व्यवहार से साबित होती है, नाम या पहचान से नहीं.
मक्का चार्टर बताता है कि धर्मों का उद्देश्य टकराव नहीं, सहयोग है. विविधता संघर्ष का कारण नहीं बल्कि संवाद का ज़रिया है. यह दस्तावेज़ कहता है कि किसी भी धर्म को उसके अनुयायियों की गलतियों से नहीं आँका जाना चाहिए. किसी भी मुस्लिम को यह अधिकार नहीं कि वह अपने गुस्से या जोश में आकर इस्लाम के नाम पर हिंसा या नफरत फैलाए.
‘आई लव मोहम्मद’ कहने का अर्थ यह नहीं कि हम दूसरों से लड़ें, बल्कि यह कि हम उनके जैसा बनने की कोशिश करें — माफ करने वाले, हर धर्म के लोगों के साथ इंसाफ़ करने वाले और दिल से मोहब्बत करने वाले. मोहम्मद साहब ने उन लोगों को भी माफ कर दिया जिन्होंने उन्हें पत्थर मारे थे. तो आज हम उनके नाम पर किसी को क्यों अपमानित करें?
आज जब कोई मोहम्मद साहब के नाम पर सड़कों पर उतरता है और नफरत फैलाता है तो वह केवल देश के कानून की अवहेलना नहीं करता, बल्कि मोहम्मद साहब की तालीम का भी अपमान करता है.
भारत का संविधान सबको धार्मिक स्वतंत्रता देता है, मगर उसका यह मतलब नहीं कि कोई अपने धर्म के नाम पर अशांति फैलाए या दूसरों के अधिकारों का हनन करे. मोहब्बत के नाम पर नफरत फैलाना, इस्लाम और पैगंबर मोहम्मद दोनों के खिलाफ़ सबसे बड़ा गुनाह है.
मक्का चार्टर आज की दुनिया के लिए एक ज़रूरी मार्गदर्शन है. यह बताता है कि कैसे धार्मिक आस्थाएं राजनीतिक स्वार्थों का साधन बन चुकी हैं और कैसे उन्हें सही दिशा देने के लिए इस्लाम के सच्चे मूल्यों को फिर से ज़िंदा करना होगा.
यह चार्टर कहता है कि सभी देशों को पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए, आतंकवाद के खिलाफ़ एकजुट होना चाहिए, महिलाओं और बच्चों को सम्मान और अधिकार देने चाहिए और धार्मिक स्थलों की पवित्रता बनाए रखनी चाहिए.
इस चार्टर के ज़रिए मुसलमानों को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वे केवल उपदेश न दें, बल्कि व्यावहारिक पहल करें. शिक्षा को बढ़ावा दें, चरमपंथ का मुकाबला करें और इस्लाम के उस रूप को पेश करें जो शांति, प्रेम और करुणा पर आधारित है.
जो लोग आज मोहम्मद साहब के नाम पर सड़कों पर भीड़ बना रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे मक्का चार्टर को पढ़ें, समझें और अपने जीवन में उतारें. उन्हें समझना चाहिए कि पैगंबर का नाम केवल नारों में नहीं, बल्कि हमारे आचरण में झलकना चाहिए. आज मुसलमानों की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यही है कि वे अपने प्यारे नबी की शिक्षाओं को अपने आचरण में दिखाएं ताकि दुनिया खुद कहे, "सचमुच, यह मोहम्मद के उम्मती हैं."
इस चार्टर के ज़रिए यह साफ किया गया है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अराजकता नहीं बनने देना चाहिए और धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि कोई भी किसी भी पवित्र चीज़ का अपमान करे या दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाए. यह हर धर्म की, हर जाति की, हर संस्कृति की गरिमा को बनाए रखने की वकालत करता है.
मक्का चार्टर एक वैश्विक सन्देश है कि इंसानियत सबसे ऊपर है और इस्लाम उसकी सबसे बड़ी समर्थक ताकत है. यह दस्तावेज़ न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि पूरी दुनिया को एक ऐसे रास्ते पर चलने की दावत देता है जहां संवाद है, समझ है और सबसे ज़्यादा दिलों को जोड़ने वाली मोहब्बत है.
अगर "आई लव मोहम्मद" कहना है, तो वह मोहब्बत इस बात में होनी चाहिए कि आप उनके किरदार को अपनाएं. आप गरीबों की मदद करें, आप पड़ोसियों का ख्याल रखें, आप बच्चों को प्यार दें, आप महिलाओं की इज़्ज़त करें और आप हर धर्म के लोगों के साथ इन्साफ से पेश आएं। यही असल सुन्नत है.
मोहम्मद साहब ने हमें लड़ने के लिए नहीं, जोड़ने के लिए भेजा है. उन्होंने कुरान के ज़रिए बार-बार इंसाफ, सच्चाई, सब्र और करुणा का संदेश दिया है. अगर हम इन मूल्यों को अपने जीवन में नहीं उतारते, तो हम उनके नाम का इस्तेमाल करने के अधिकारी नहीं.
आज की दुनिया में जहां धार्मिक पहचानें सियासत का ज़रिया बनती जा रही हैं, मक्का चार्टर एक रोशनी की तरह सामने आता है, जो न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि पूरी इंसानियत को यह याद दिलाता है कि हमारे इरादे, हमारे कर्म और हमारी मोहब्बत अगर सच्ची है, तो वह नफरत का जवाब मोहब्बत से देंगे. वह हिंसा का जवाब सब्र से देंगे और वह झूठ का जवाब सच्चाई से देंगे.
तो अगली बार जब आप ‘आई लव मोहम्मद’ कहें, तो दिल पर हाथ रख कर सोचिए, क्या मैं सच में मोहम्मद साहब की राह पर चल रहा हूँ? क्या मेरी मोहब्बत में उनकी तालीमों की रौशनी है? क्या मेरी मोहब्बत इंसानियत के लिए राहत बन रही है या किसी और के लिए तकलीफ?
अगर जवाब हाँ में है, तो यह मोहब्बत भी सच्ची है और इसकी गूंज भी दुनिया को सुनाई देगी.
"वह मोहम्मद हैं, जिनकी मोहब्बत तलवार नहीं, तालीम से होती है!"
(लेखक आवाज द वाॅयस हिंदी के संपादक हैं)