साकिब सलीम
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की असाधारण सफलता के पीछे दो महान वैज्ञानिकों का विशेष योगदान रहा है – डॉ. विक्रम साराभाई और प्रोफेसर सतीश धवन. जहाँ 1963 से 1973 तक का दशक विक्रम साराभाई की दूरदृष्टि, सपनों और उम्मीदों का युग कहा जाता है, वहीं 1973 से 1983 तक का दौर प्रो. सतीश धवन का नेतृत्वकाल था, जिसमें भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक ठोस आधार मिला और बड़ी योजनाओं को वास्तविकता में बदला गया.
25 सितंबर 1920 को श्रीनगर में जन्मे सतीश धवन ने पंजाब विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की और फिर उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए. भारत लौटने के बाद उन्होंने बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (IISc) में पढ़ाना शुरू किया. 1955 में वह एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर बने और 1962 में वह आईआईएससी के सबसे युवा निदेशक नियुक्त हुए.
1972 में उन्हें एक साथ कई जिम्मेदारियाँ दी गईं, स्पेस कमीशन और इसरो के अध्यक्ष, अंतरिक्ष विभाग के सचिव और साथ ही आईआईएससी के निदेशक का कार्य भी उन्होंने जारी रखा. यह वह दौर था जब भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में एक नया युग शुरू हुआ. प्रो. धवन एक स्वाभाविक नेता थे, जिनका स्पेस साइंस से गहरा नाता पहले से था। उन्होंने सैकड़ों वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को एयरोनॉटिक्स और रॉकेट टेक्नोलॉजी का प्रशिक्षण दिया था.
प्रोफेसर धवन की नेतृत्व शैली को डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथाओं और भाषणों में कई बार याद किया है. उन्होंने एक घटना का ज़िक्र करते हुए बताया कि कैसे उन्होंने SLV-3 (सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया था, जिसका उद्देश्य था भारत का पहला सैटेलाइट — रोहिणी — को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करना। यह प्रोजेक्ट 1973 में शुरू हुआ और हजारों वैज्ञानिकों ने दिन-रात मेहनत की.
10 अगस्त 1979 को पहला लॉन्च हुआ, SLV-3 का पहला चरण सफल रहा, लेकिन दूसरे चरण में नियंत्रण प्रणाली की खराबी के कारण रॉकेट बंगाल की खाड़ी में जा गिरा. यह राष्ट्र के लिए बहुत बड़ा झटका था और मीडिया ने डॉ. कलाम को असफलता का जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया.
कलाम ने बताया कि वह इस असफलता से इतने टूट चुके थे कि अपने कमरे में जाकर चुपचाप सो गए. उसी समय प्रो. सतीश धवन उन्हें ढूँढते हुए वहाँ पहुँचे. उन्होंने न केवल उन्हें उठाया, खाना खिलाया, बल्कि दोस्त की तरह कोई सवाल-जवाब किए बिना उनका मनोबल बढ़ाया. जब मीडिया से सामना करने का समय आया, तो प्रो. धवन ने खुद सामने आकर पूरे मिशन की असफलता की जिम्मेदारी ली — जबकि परियोजना निदेशक खुद कलाम थे.
धवन ने न केवल टीम को दोष देने से इंकार किया, बल्कि एक साल बाद 18 जुलाई 1980 को होने वाले दूसरे लॉन्च के लिए उसी टीम को बनाए रखा. इस बार मिशन सफल रहा . रोहिणी सैटेलाइट कक्षा में स्थापित हो गई. इस बार प्रो. धवन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में डॉ. कलाम को आगे भेजा और कहा कि सफलता का श्रेय पूरी तरह टीम और उसके लीडर को जाता है.
इस अनुभव ने डॉ. कलाम को जीवन भर के लिए दो सबक दिए — पहला, असफलता के बाद उठ खड़े होने की हिम्मत और दूसरा, एक सच्चे नेता की पहचान यह है कि वह असफलता की ज़िम्मेदारी खुद ले और सफलता का श्रेय अपनी टीम को दे. डॉ. कलाम ने कहा, “मैंने यह पाठ किसी किताब से नहीं, बल्कि प्रोफेसर धवन के व्यवहार से सीखा.”
इस सफलता ने कलाम को राष्ट्रीय नायक बना दिया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनसे मिलना चाहती थीं. जब यह बात धवन ने कलाम को बताई, तो उन्होंने कहा कि वे साधारण कपड़े और सैंडल पहने हुए हैं, क्या इस हाल में प्रधानमंत्री से मिलना ठीक होगा? इस पर प्रो. धवन ने मुस्कराकर कहा, “तुम सफलता की पोशाक में लिपटे हुए हो, यही तुम्हारा असली पहनावा है.”
आज भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम चाँद और मंगल तक पहुँच चुका है. एपीजे अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति बने और विश्व भर में सम्मानित हुए. भारत ने अपने अंतरिक्ष केंद्र का नाम ‘सतीश धवन स्पेस सेंटर’ रखकर इस महान वैज्ञानिक और अद्भुत नेता को सच्ची श्रद्धांजलि दी.