पूजा मेहरा
राजस्थान के ग्रामीण अंचल में आज भी अनगिनत महिलाओं के लिए दोहरी चुनौती बनी हुई है: घर की ज़िम्मेदारियाँ निभाना और सम्मानजनक आय अर्जित करना. नाथवाना गाँव की 27 वर्षीय किरण की कहानी ऐसी ही लाखों महिलाओं के संघर्ष को दर्शाती है. बच्चों की देखभाल और रोज़मर्रा के काम निपटाने के बाद किरण खेतों में मज़दूरी करने जाती हैं, लेकिन इस कड़ी मेहनत के बावजूद मिलने वाले थोड़े से पैसों से घर चलाना मुश्किल है. वह अक्सर सोचती हैं कि काश, गाँव में ही ऐसा कोई काम मिल जाए जिसे करके वह घर भी संभाल सकें और अपने परिवार को एक बेहतर जीवन दे सकें.
यह समस्या महज़ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और आर्थिक चुनौती है. विशेषज्ञ मानते हैं कि महिलाओं के विकास का रास्ता रोज़गार से होकर ही गुज़रता है, जिससे उन्हें केवल आर्थिक स्वतंत्रता ही नहीं मिलती, बल्कि उनका आत्म-सम्मान, निर्णय लेने की शक्ति और सामाजिक पहचान भी मज़बूत होती है.
श्रम की अधिकता, अवसरों की कमी
राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की श्रम-शक्ति की स्थिति विरोधाभासी है. "पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS)" के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण राजस्थान में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु की महिलाओं की श्रम भागीदारी दर राष्ट्रीय औसत से लगभग 10 प्रतिशत अधिक है. इसका सीधा अर्थ है कि महिलाएँ किसी न किसी रूप में सक्रिय रूप से काम कर रही हैं.
हालांकि, "Female Work Participation Rate in Rajasthan: Trends and Determinants" नामक अध्ययन के अनुसार, लगभग 82 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ कृषि और खेतिहर मज़दूरी जैसे असंगठित, अनिश्चित, कम वेतन वाले और सुरक्षा रहित कार्यों में लगी हुई हैं.
महिलाएँ खेतों में काम करती हैं, पशुपालन करती हैं, और घर-बच्चों की देखभाल करती हैं, लेकिन इन कामों को अक्सर 'रोज़गार' नहीं माना जाता क्योंकि इनके लिए न तो नियमित आय मिलती है और न ही सम्मानजनक वेतन. यही वजह है कि उनकी कड़ी मेहनत के बावजूद, उनका योगदान समाज और परिवार दोनों ही जगहों पर कम करके आंका जाता है, और वह आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर बनी रहती हैं.
नाथवाना गाँव जैसी जगहों पर महिलाएँ अब भी परंपरागत सोच, संसाधनों की कमी और शिक्षा की सीमाओं से बंधी हुई हैं. 45 वर्षीय द्रौपदी कहती हैं कि अगर उन्हें सिलाई, बुनाई, कढ़ाई या डेयरी का प्रशिक्षण और छोटा-सा ऋण मिल जाए तो वे घर बैठकर भी अच्छी कमाई कर सकती हैं. लेकिन उनके रास्ते में प्रशिक्षण केंद्रों की दूरी, परिवहन की दिक्कतें और सामाजिक बंदिशें जैसी बाधाएँ खड़ी हैं.
आर्थिक स्वतंत्रता से सामाजिक उत्थान
महिलाओं को रोज़गार से जोड़ना इसलिए बेहद ज़रूरी है क्योंकि यह न केवल उनके आर्थिक पक्ष को मज़बूत करता है, बल्कि पूरे सामाजिक ढांचे को प्रभावित करता है.
1. बच्चों की शिक्षा में सुधार: एक सर्वे के अनुसार, जब किसी परिवार में महिला आय अर्जित करती है, तो उस परिवार में बालिकाओं के स्कूल जाने की संभावना 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है. आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाएँ अपने बच्चों की पढ़ाई और पोषण को प्राथमिकता देती हैं.
2. निर्णय लेने की शक्ति: आर्थिक स्वतंत्रता महिलाओं को घरेलू हिंसा, बाल विवाह और पितृसत्ता की अन्य ज़ंजीरों से बाहर निकलने की शक्ति देती है. जब नाथवाना की महिलाएँ रोज़गार से जुड़ेंगी, तो यह केवल उनकी आय का सवाल नहीं होगा, बल्कि समाज में उनकी आवाज़ और अस्तित्व को मान्यता देने का सवाल होगा.
3. शिक्षा और रोज़गार में अंतर: PLFS के आँकड़े एक गंभीर समस्या को उजागर करते हैं: राजस्थान में उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं का काम में शामिल होने का अनुपात केवल 22 प्रतिशत है. इसका मतलब है कि शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद, समाज में महिला की भूमिका को अभी भी 'घर तक सीमित' मानने की सोच हावी है, और व्यवस्था दोनों ही स्तर पर समर्थन कम है.
समाधान: संगठित प्रयास और नीतिगत समर्थन
महिलाओं की मेहनत को उत्पादक और सम्मानजनक रोज़गार में बदलने के लिए स्थानीय और नीतिगत स्तर पर संगठित प्रयासों की आवश्यकता है:
स्वरोज़गार और कौशल विकास: द्रौपदी जैसी महिलाओं को संगठित ढंग से स्वरोज़गार के अवसर, प्रशिक्षण और बाज़ार तक पहुँच मिले तो यह उनकी मेहनत को सम्मानजनक रोज़गार में बदल सकती है. स्थानीय स्तर पर कौशल विकास प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करना समय की मांग है.
सामूहिक भागीदारी: स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं को ऋण और बाज़ार से जोड़ना तथा सरकारी योजनाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना आवश्यक है. नरेगा जैसी योजनाओं में महिलाओं की सक्रिय हिस्सेदारी को और मज़बूत किया जाना चाहिए.
बुनियादी ढाँचा: सुरक्षित परिवहन, बाल देखभाल केंद्र और कार्यस्थल पर सम्मानजनक वातावरण जैसे सहायक कदम भी उठाने होंगे.
नाथवाना गाँव और ऐसे ही तमाम ग्रामीण अंचलों में महिलाओं का भविष्य रोज़गार से ही सुरक्षित होगा. किरण जैसी महिलाएँ अगर घर के साथ-साथ अपने हुनर से कमा सकेंगी, तो न केवल उनके परिवार का भविष्य बदलेगा बल्कि पूरा समाज भी आगे बढ़ेगा. जब महिलाएँ आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, तभी राष्ट्र सही अर्थों में मज़बूत होगा.