दुर्गा पूजा और शिउली की कहानी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 01-10-2025
Memories of Durga Puja and Shiuli flowers
Memories of Durga Puja and Shiuli flowers

 

इराज अहमद

मेरे दादाजी ने कभी उस समय एक किराएदार के घर के आँगन में शिउली (शेउली) का पौधा लगाया था. लेकिन किराएदारों के विपरीत, उस पेड़ ने अपना सिर उठाने में ज़रा भी संकोच नहीं किया. 1970 के दशक में बांग्लादेश में उथल-पुथल भरे दौर में भी, यह पेड़ तेज़ी से बढ़ा और यहाँ तक कि उसमें फूल भी आने लगे.

सुबह-सुबह, जब पतझड़ के आसमान में हल्की-सी ओस के साथ रोशनी ठीक से नहीं दिखाई देती थी, मैं अपने दोस्तों के साथ रमना पार्क चला जाता था. धीरे से दरवाज़ा खोलकर, आँगन की दीवार फांदकर सड़क पर चढ़ने से पहले, मैं शिउली के पेड़ को अपने सफ़ेद और नारंगी फूलों को गिराते हुए देखता था.

मुझे पता था कि दादाजी जल्द ही उठेंगे और एक छोटी-सी पीतल की थाली में गिरे हुए फूल एक-एक करके तोड़ेंगे. फिर, वे फूलों को पत्तों और कपड़े के टुकड़े के साथ एक थाली में फैलाकर घर ले जाएँगे. वह थाली सारा दिन उनकी मेज़ पर ही रहेगी.

ये फूल हमारे आँगन को सफ़ेद प्रसाद से भर देते थे, जिससे मुझे पता चलता था कि दुर्गा पूजा का समय आ गया है. दादाजी कहते थे कि शिउली के फूल की सात सफ़ेद पंखुड़ियाँ मानो सात लोकों का ज्ञान और आनंद समेटे हुए हैं. मैंने कभी नहीं पूछा कि वे ऐसा क्यों कहते थे.

उस ज़माने में, पतझड़ में इतनी बारिश नहीं होती थी. आसमान नीला होता था और उसमें सर्दी का एहसास होता था. सुबह आँगन की घास भीग जाती थी और रात भर उस पर ओस जमी रहती थी. दोपहर की नारंगी धूप में, कोई घर की छत पर तिरपाल बिछाकर सर्दी से बचने की तैयारी करता और सूरज की गर्मी जमा करता. शाम होने से पहले, कोई घर के बगल वाले बड़े से बगीचे में इकट्ठी की हुई पत्तियों से आग जलाता. फिर, हल्के धुएँ की अजीब-सी खुशबू मेरे मन को एक बेवजह की खुशी से भर देती.

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जन्म से ही शहर में रहने के कारण, मुझे गाँव या कस्बे की पूजाओं की कोई ख़ास याद नहीं है. इस राजधानी के पड़ोस में, जहाँ मैं पला-बढ़ा, आज भी एक बहुत पुराना काली मंदिर है. जब मैं किशोर था, तब उस मंदिर में दुर्गा पूजा होती थी. हालाँकि, उस समय पूजा उतनी भव्य नहीं होती थी जितनी अब होती है.

पूजा के दौरान हमारे आस-पास जो चहल-पहल होती है, मंडपों में चमकती हुई चमकदार रोशनियाँ, उमड़ती हुई भीड़, तथा आसपास का वातावरण उनकी निरंतर हँसी और बातचीत से भरा रहता है, वह सब उस समय नहीं होता था.

पुराने मंदिर के किनारे कहीं-कहीं बरगद के पेड़ उग आए हैं. कहीं-कहीं दरारें मकड़ी के जालों की तरह फैली हैं, मानो बरसों पुरानी कहानियाँ सुना रही हों. मंदिर के सामने घास से ढका एक छोटा-सा चबूतरा है. वहाँ हड्डी और लकड़ी रखी थी. लकड़ी का ढाँचा अब काला पड़ गया है. पता नहीं कब का था? मैं समझ गया कि मंदिर में कभी पशु बलि दी जाती होगी. चबूतरे से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक छोटा-सा तालाब मिलेगा. तालाब के पानी में भी किसी उत्सव की छाया थी.

राजधानी होने के बावजूद, ढाका में आज जैसी रौनक और रंग-बिरंगी चमक तब नहीं थी जब मैं किशोर था. आजकल पूजा के दौरान जो चहल-पहल होती है, मंडपों में जगमगाती रोशनियाँ, लोगों की उमड़ती भीड़, और उनकी लगातार हँसी-मज़ाक और बातचीत से भरा माहौल, वो तब नहीं होता था.

दुर्गा पूजा मेरे मन में कितनी सहजता से अपनी शाखाएँ फैलाती थी. हमारे पड़ोस के मंदिर में, पूजा के पाँच दिनों में उत्सवों की कोई कमी नहीं होती थी. पड़ोस में एक हिंदू परिवार रहता था. लड़के मेरे दोस्त थे. सुबह-सुबह मैं उनके दरवाज़े पर खड़ा होकर पहले से तय कर लेता था कि वहाँ कितनी बार और कब खाना खाऊँगा.

उबलते पानी, तेजपत्ते और तली हुई लूची की महक किसी किशोरी की स्वादिष्ट भोजन की तीव्र इच्छा की तरह बनी रहती थी. सुबह-सुबह उनके घर पर धूप और अगरबत्ती चढ़ाई जाती थी. आज भी उस सुगंध की याद आते ही न जाने कितनी तस्वीरें, न जाने कितने दोस्तों के चेहरे, न जाने कितनी बातें याद आ जाती हैं. जब मैं दूर किसी खेत की पगडंडी पर ढाक के काश के फूल बाँधते धुलियों को चलता देखता हूँ, तो मन में आज भी खुशी का राग गूंज उठता है.

पूजा के दिनों में कुछ दिनों के लिए मेरे दोस्त अमर की लॉन्ड्री हमारी स्थायी अड्डा बन जाती थी. अमर के पिताजी पूजा के लिए गाँव जाते थे. फिर, अपने दोस्त की खातिर, हम लॉन्ड्री का काम संभालते थे. वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर काली मंदिर था और मंदिर के बगल में परेशदार किराना दुकान थी.

मंदिर की दीवारों के पास एक मेला सा लग जाता. अनजान लोग वहाँ बैठकर तरह-तरह की छोटी-छोटी चीज़ें सजाते. शाम होते ही मंदिर से घंटियों और घंट की आवाज़ आती. दोपहर में माइक्रोफ़ोन से एक गाना बजता, लता मंगेशकर का गाना 'ओगो आर किछु तो नई'.

मेले में आस-पड़ोस के लोगों की भीड़ बढ़ती जाती. दुकानदार सड़क पर मोमबत्तियाँ या तूफ़ानी दीप जलाते. ऐसा लगता मानो आसमान से दोपहर की रोशनी टुकड़ों में सड़क पर गिर पड़ी हो. मैं उस रोशनी के इर्द-गिर्द, लोगों की मित्रता और करुणा के इर्द-गिर्द घूमता रहता.

पूजा के दौरान, हमने परिषद की दुकान पर मुफ़्त चाय पी. मंदिर प्रांगण में मिट्टी के चूल्हे पर एक बड़ी कढ़ाई में निमकी तली जा रही थी. मैं गिनती नहीं कर सकती कि मैं कितनी बार मंदिर गई, तेल में अनगिनत तारों की तरह तैरती निमकी की लालसा में. कभी-कभी, मैं और मेरे दोस्त समूहों में गोपीबाग स्थित रामकृष्ण मिशन में पूजा देखने जाते थे. वह जगह अभी ज़्यादा चीज़ों से भरी नहीं थी. विशाल परिसर में इतनी ज़्यादा संरचनाएँ नहीं बनी थीं. जैसे-जैसे हम बस से आते-जाते, हमारी खुशी के बुलबुले पूरे शहर में फैलते प्रतीत होते.

शिउली एक छोटा-सा फूल है. यह जल्दी गिर जाता है, और गिरने से पहले ही थाली में सूख जाता है. अपराजिता और कमल के बिना दशभुजा-वंदना अधूरी है. फिर भी, कवियों और कलाकारों के प्रेम के कारण, कुछ लोग इस फूल को 'शरद मुस्कान' के नाम से जानते हैं. इस मुस्कान की तरह, इस शहर में हमारे सह-अस्तित्व की कहानी भी शायद बीते दिनों की बात हो गई है.

अब हमें लोगों के घर उनकी जोत (प्लॉट) और गली नंबर देखकर ढूँढने पड़ते हैं. हम भूल गए हैं कि अमुक हरे दरवाज़े वाले घर में रहता है, तमुक बड़े जामुन के पेड़ की छाया से घिरे घर में रहता है. पास खड़े होकर त्योहार मनाने का आनंद शायद एक दिन हमसे छिन गया होगा.

शिउली के फूल का पेड़ आजकल कम ही दिखाई देता है. पतझड़ के दिन बारिश और बादलों के साथ आते हैं. इस जीवन में सामूहिक विचारों के लिए जगह भी बँट गई है. शिउली के पेड़ के नीचे गिरते अनगिनत फूलों का नज़ारा गायब हो गया है. सोचता हूँ, सोचता हूँ, अचानक कहाँ देखूँगा वो शिउली का पेड़ जिसे मेरे दादाजी ने घर के आँगन में लगाया था? पूजा का समय आने से पहले सिर उठाए खड़ा?

जिस घर में मैं अब रहती हूँ, वहाँ कोई शिउली का पेड़ नहीं है. कमल के फूल नहीं हैं. फूल लगाने की जो थोड़ी-बहुत जगह है, उस पर भी अजीबोगरीब, अपरिचित पौधे उग आए हैं. दादाजी भी तब से गुज़र चुके हैं. उनकी सफ़ेद थान साड़ी और सुपारी के मसाले से सने नारंगी होंठ, शिउली के फूलों की तरह गायब हो गए हैं.

फिर भी आज भी, पतझड़ की सुबह बरामदे में खड़े होकर, मैं अपने दादाजी को साफ़-साफ़ पूछती सुन सकती हूँ, 'क्या अब तुम सुबह जल्दी उठकर गिरे हुए शिउली के फूल नहीं देखती?' मैं जवाब देती हूँ, 'नहीं देख पाती. इस शहर ने मेरी यादों से गिरे हुए शिउली के फूलों की खुशबू तक मिटा दी है. पूजा से पहले की उस सर्दी की हवा और नीले आसमान ने उस संभावना को मिटा दिया है. क्या शहर ने उसे मिटा दिया है, या हमने? हम यादें मिटाने में बहुत माहिर हैं.

सोचता हूँ, कहीं शिउली फूल का पौधा लगाऊँगा. मुश्किलों के बावजूद वह पेड़ तेज़ी से बढ़ेगा. रात के आसमान से गिरती ओस की जादुई चमक से सजे अनगिनत शिउली फूलों से खिलेगा. सुबह-सुबह फिर से दीवार पर चढ़कर पार्क जाऊँगा. जब धीरे से दरवाज़ा बंद करूँगा, तो आँगन में बिखरे शिउली के फूल देखूँगा.

पूजा के आने का समय मेरे मन में यूँ ही गूंजता रहेगा. मेरी छुट्टियाँ खत्म हो जाएँगी. अपने दोस्त अमर के लॉन्ड्री रूम में बैठे-बैठे, मैं माइक्रोफ़ोन से लता मंगेशकर का गाना 'ओगो आर किछु तो नई...' सुनता रहूँगा.

इराज अहमद: कवि