झारखंड राज्य का आंदोलन, गठन और मुसलमानों की अनदेखी भूमिका

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 06-11-2025
The Jharkhand state movement, its formation, and the overlooked role of Muslims.
The Jharkhand state movement, its formation, and the overlooked role of Muslims.

 

dमंजीत ठाकुर

झारखंड राज्य 15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग करके गठित किया गया था। यह महज एक सियासी फैसला नहीं था, बल्कि एक सदी से अधिक समय तक चले सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्ष का नतीजा था। इस संघर्ष में जितना योगदान आदिवासी समुदायों, छात्रों और स्थानीय संगठनों का रहा, उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा मुसलमानों का भी रहा है। परंतु, आज झारखंड की राजनैतिक स्मृति में मुस्लिमों की भूमिका लगभग गायब कर दी गई है।

स्वाधीनता आंदोलन में मुस्लिमों की शहादत

1857के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड के मुस्लिमों ने उल्लेखनीय योगदान दिया। शेख भिखारी उस दौर के सबसे बहादुर योद्धाओं में गिने जाते हैं। ठाकुर विष्णुनाथ शाहदेव के नेतृत्व में मुक्ति वाहिनी के सक्रिय सदस्य बने शेख भिखारी ने रांची और चुटूपाल की लड़ाइयों में अंग्रेज़ों के खिलाफ असाधारण साहस दिखाया था।

2अगस्त, 1857को रांची पर ब्रिटिश हमले के दौरान भिखारी और विष्णु सिंह की रणनीति ने अंग्रेज़ों की योजनाओं को विफल कर दिया।शेख भिखारी ने संताल परगना के संतालों को भी संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ विद्रोह को प्रेरित किया। लेकिन देशी बंदूकों से लैस यह सेना भारी हथियारों के सामने टिक नहीं सकी।

इसी युद्ध में शेख भिखारी, नादिर अली (चतरा), सलामत अली और शेख हारू जैसे योद्धाओं ने अपने प्राण न्योछावर किए। नादिर अली और ठाकुर विष्णुनाथ पांडे को फांसी दी गई जबकि सलामत अली और शेख हारू को कालापानी की सजा सुनाई गई।यह वही झारखंड था जहाँ धर्म और जाति की दीवारें टूटकर एक साझा संघर्ष में बदल गई थीं।

मॉमिन कॉन्फ्रेंस और झारखंडी चेतना का सूत्रपात

1923में रांची के पास मुरमा में मॉमिन कॉन्फ्रेंस की स्थापना ने मुस्लिम समाज को एक संगठित रूप दिया। इस संगठन ने जलियांवाला बाग हत्याकांड की निंदा की, शहीदों को श्रद्धांजलि दी और बुनकरों को ब्रिटिश आर्थिक अत्याचार से बचाने का आह्वान किया।

इमाम अली (ब्राम्बे), नज़हत हुसैन (बुंडू), जग्गू मियां (बिजुलिया), फ़र्ज़ंद अली (इटकी), अब्दुल्ला सरदार (सिसई), ज़ाकिर अली (इटकी), सोहबत मियां (रांची) और चंदन मियां (डुमरी) जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ स्थानीय पहचान के लिए भी आवाज़ उठाई।

1912 से शुरू हुई झारखंड राज्य की मांग

जब 1912में बिहार को बंगाल से अलग किया गया, तब झारखंड के कुछ हिस्से बंगाल में और कुछ बिहार में शामिल कर दिए गए। उस समय असमत अली नामक मुस्लिम नेता ने पहली बार चेताया कि झारखंड की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान इस नये प्रशासनिक ढांचे में खो जाएगी।

असमत अली ने उसी वर्ष झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग रखी। यह झारखंड राज्य निर्माण की पहली राजनीतिक पुकार थी।1919 में चिराग अली ने इस आंदोलन को और मज़बूत किया।

इसके बाद अनेक मुस्लिम नेताओं मसलन, मोहम्मद मुर्तज़ा अंसारी (चक्रधरपुर), अशरफ ख़ान (खेलारी), मोहम्मद सईद और ज़ुबैर अहमद (जमशेदपुर), वहाब अंसारी (पुरुलिया) और एस.के. क़ुतुबुद्दीन (मेदिनीपुर) ने 1980के दशक तक इस संघर्ष में अपनी जानें दीं।

राजनीतिक संगठनों में मुस्लिम नेतृत्व

1936में मॉमिन कॉन्फ्रेंस ने झारखंड राज्य की मांग पर प्रस्ताव पारित किया। 1937के चुनाव में आर. अली ने मुस्लिम लीग उम्मीदवार को हराकर बिहार विधानसभा में प्रवेश किया। यह मुस्लिम समाज की स्वायत्त राजनीतिक सोच का उदाहरण था।

1937के बाद जब आदिवासी प्रोग्रेसिव सोसायटी बनी, तो हाजी इमाम अली, नज़रत हुसैन, अब्दुल्ला सरदार, फ़र्ज़ंद अली, शेख़ अली जान और मौलवी दुखू मियां जैसे मुस्लिम नेता उसके सक्रिय सदस्य बने। यह एक सामाजिक गठजोड़ था, जिसने आदिवासियों और मुसलमानों के बीच साझा पहचान और परंपराओं की रक्षा की भावना को जन्म दिया।

इतिहास की जड़ों में मुस्लिम उपस्थिति

प्रसिद्ध इतिहासकार आर.आर. दिवाकर अपनी पुस्तक ‘बिहार थ्रू एजेज’ में लिखा है कि लगभग आठ सौ वर्ष पहले मुस्लिम समूह पहली बार झारखंड क्षेत्र में पहुँचे और यहाँ के मुंडा गाँवों में बस गए। वे स्थानीय समुदायों में इस तरह घुल-मिल गए कि अपनी पुरानी भाषा, रीति-रिवाज और जीवनशैली लगभग भूल गए।

दिवाकर अपनी किताब में पादरी हॉफमैन को उद्धृत करते हैं कि, “इन क्षेत्रों के निवासियों ने अरबी और फ़ारसी शब्दों को अपनी भाषा में अपनाया।”यह सांस्कृतिक समागम झारखंडी समाज की एक अनोखी पहचान बन गया, जहाँ धर्म से अधिक मानवता का रिश्ता प्रधान रहा।

1661में दायूदनगर में पहली बार मुसलमानों ने मस्जिद बनाई और बाद में मदरसों की स्थापना भी हुई। 1740में हिदमतुल्लाह ख़ाँ झारखंड के जपला के पहले मुस्लिम जागीरदार बने।

यह इस बात का संकेत था कि मुस्लिम समाज यहाँ केवल धार्मिक रूप से ही नहीं, प्रशासनिक और सामाजिक रूप से भी सक्रिय भूमिका निभा रहा था।

आधुनिक काल में झारखंड कौमी तहरीक की भूमिका

1989 में जमशेदपुर के सीताराम डेहरा में झारखंड कौमी तहरीक (जेक्यूटी) का गठन हुआ। प्रोफेसर ख़ालिद अहमद इसके पहले अध्यक्ष बने और अफ़ताब जमी़ल, मोहम्मद रज़ान, इमरान अंसारी तथा बशीर अहमद इसके संस्थापक सदस्य थे।

इस संगठन ने छात्रों के संगठन ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (एजेएसयू) के साथ मिलकर आंदोलन का मोर्चा संभाला।23 जुलाई, 1989 को रांची विश्वविद्यालय परिसर में हुई इसकी पहली कॉन्फ्रेंस में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, शिक्षा और प्रतिनिधित्व से जुड़ी नीतियाँ तय की गईं। इसमें कुछ बातें तय की गई थीं।

इन नीतियों में तय किया गया कि झारखंड में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा, अल्पसंख्यकों को राजनीति, शिक्षा और प्रशासन में उचित प्रतिनिधित्व मिलेगा, मुस्लिमों को उनकी आबादी के अनुपात में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण दिया जाएगा, सभी स्थानीय भाषाओं को समान दर्जा मिलेगा, अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थानों को सरकारी मान्यता और सहायता दी जाएगी, अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अल्पसंख्यक आयोग, हज समिति, मदरसा बोर्ड और वक्फ बोर्ड गठित किए जाएंगे।

जेक्यूटी की ये नीतियाँ झारखंड तक सीमित नहीं रहीं। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान आकर्षित किया। सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने झारखंड आंदोलन में गहरी रुचि दिखाई। मुस्लिम युवाओं ने भी आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

साझा संघर्ष और बलिदान की गाथा

झारखंड कौमी तहरीक से जुड़े अनेक युवाओं को आंदोलन के दौरान पुलिस की हिंसा और जेल की यातना झेलनी पड़ी। मोहम्मद फैज़ी, सरफ़राज़ अहमद, मुश्ताक अहमद, इमरान अंसारी, मुजीबुर्रहमान, सरवर सज्जाद और सुबरान आलम अंसारी जैसे कार्यकर्ताओं ने झारखंड राज्य के लिए अपनी जिंदगी लगा दी।

इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अधिकारों और आत्मसम्मान का आंदोलन था। मुसलमानों ने यहाँ धर्म नहीं, बल्कि झारखंडियत को अपनी पहचान का हिस्सा बनाया।

राज्य बनने के बाद उपेक्षा का सिलसिला

15 नवंबर, 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ और भाजपा के बाबूलाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। परंतु नवगठित राज्य की सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री या विधायक नहीं था। न तो राज्यपाल प्रभात कुमार और न ही मुख्यमंत्री मरांडी ने अपने प्रारंभिक भाषणों में अल्पसंख्यकों की भूमिका या अधिकारों पर एक शब्द कहा।

यह स्थिति उस ऐतिहासिक अन्याय की ओर इशारा करती है जिसमें मुसलमानों ने तो झारखंड के निर्माण के लिए आंदोलन किया, परंतु इतिहास की किताबों और राजनीतिक मान्यता में उनका नाम तक दर्ज नहीं हुआ।

गठन के 25 साल बाद झारखंड के सामने चुनौती

झारखंड की पहचान बहुसांस्कृतिकता और साझी विरासत में निहित है। यहाँ आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुसलमान सदियों से साथ रहते आए हैं। राज्य की स्थायी शांति और विकास के लिए यह आवश्यक है कि सरकार मुस्लिम समुदाय की ऐतिहासिक भूमिका को मान्यता दे और उन्हें राजनीतिक, शैक्षिक और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व प्रदान करे।

सरकार को तत्काल झारखंड उर्दू अकादमी, मदरसा बोर्ड, वक्फ बोर्ड, अल्पसंख्यक आयोग और उर्दू निदेशालय की स्थापना करनी चाहिए। इससे न केवल मुस्लिम समाज का भरोसा बहाल होगा बल्कि राज्य की समावेशी राजनीति की जड़ें भी मज़बूत होंगी।

झारखंड की मिट्टी ने शेख भिखारी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को जन्म दिया, जिन्होंने अंग्रेज़ों से लोहा लिया। उसी धरती पर असमत अली और चिराग अली ने अलग राज्य की मांग उठाई। 1980 के दशक में झारखंड कौमी तहरीक ने इस आंदोलन को नई ऊर्जा दी। लेकिन आज इन नामों को जानने वाले भी कम हैं।

अब समय आ गया है कि झारखंड के इतिहास को एकतरफ़ा दृष्टि से नहीं, बल्कि उसके साझे संघर्षों और बहुलतावादी चरित्र के रूप में देखा जाए। झारखंड की असल पहचान किसी एक समुदाय की नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों की है जिन्होंने इस भूमि की अस्मिता के लिए संघर्ष किया, जिनमें मुसलमानों का योगदान कभी भी कम नहीं रहा।

(लेखक आवाज द वाॅयस के एवी संपादक हैं)