हसन नसरल्लाह की मौत पर शिया-सुन्नी एकजुटता की बहस

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 01-10-2024
Shia-Sunni solidarity debate over Hassan Nasrallah's death
Shia-Sunni solidarity debate over Hassan Nasrallah's death

 

मलिक असगर हाशमी

इजरायली हमले में  हिज्बुल्लाह कमांडर हसन नसरल्लाह की मौत के बाद एक नई बहस शुरू हो गई है. बहस का विषय है-शिया-सुन्नी एकजुटता. इस विषय पर बहस करने वालों की मुख्यतः दो तरह की दलील है. एक, मुसलमान यदि शिया-सुन्नी के फिरके में नहीं बंटते तो दुनिया पर आज भी उनकी हुकूमत होती. दूसरा, मस्जिद ए अक्सा और गाजा-फिलिस्तीन के लिए केवल शिया देश ही इजरायल से लोहा ले रहे हैं, जब कि सुन्नी देशों ने खामोशी अख्तियार कर रखी है.

इन दोनों विषयों पर खुद को सही साबित करने वालों के अपने तर्क है. वैसे, मुसलमानों के आत्मचिंतन के लिए ये दोनों ही विषय बेहद जरूरी हैं. इसके अलावा इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि क्या समस्याओं का हल केवल ‘बैरल’ से ही निकलेगा, स्थानीय या अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के इस्तेमाल का कोई लाभ नहीं ?

— Abdussamed Dagül (@AbdussamedDgl1) September 28, 2024

अभी ईरान, इराक, अजरबैजान और बहरीन में मुसलमानों का शिया समुदाय बहुसंख्यक में है. इसके अलावा लेबनान में भी ये बहुत संख्यक हैं,जब कि मोरक्को से इंडोनेशिया तक, 40 से अधिक देश सुन्नी प्रभाव वाले हैं. एकजुटता दिखाने के लिए मुस्लिम देशों का एक संगठन ओआईसी भी है.

बावजूद इसके दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश एकजुट नहीं. यहां तक कि मसलमानों के संगठन भी केवल विवादास्पद मुददों पर बयान देने के सिवाए ऐसा कोई ठोस सकारात्मक कार्य नहीं करते, जिससे यह एहसास हो कि यह विश्व का दूसरा बड़ा जीडीपी है.

— Vandana Meena (@vannumeena0) September 28, 2024

भारत के मुसलमानों के पास  ‘मदरसा’, ‘मस्जिद’, ‘माब्लिंचिंग’ जैसे टाइम पास मुददे है, ठीक उसी तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस कौम ने फिलिस्तीन, कश्मीर, मस्जिद ए अक्सा जैसे विषय को अपना रखा है. इससे आगे मुस्लिम देश बढ़ते ही नहीं.

यदि प्रिंस सलमान जैसा कोई आधुनिक विचारों वाला मुस्लिम नेतृत्व कुछ बड़ा और नया करने का प्रयास करता है तो बाकी देश उसकी खिंचाई में लग जाते हैं. मुस्लिम देशों को समझना होगा कि जमाना बदल चुका है. यदि इजरायल जैसे धाकड़ देश से मुकाबला करना है तो थोथी मिसाइजलों से काम नहीं चलने वाला.

जंग लड़ने के लिए अब आधुनिक हथियार और आधुनिक तकनीक की जरूरत है, ताकि दुश्मन को ढूंढकर कई किलोमीटर दूर से निशाना बनाया जा सके और पेजर और वाॅकी-टाॅकी नेटवर्क को एक झटके में समाप्त किया जा सके.

मगर हिंसा से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण मार्ग कूटनीति का है. पिछले दस वर्षों में भारत ने इस कला को खूब आजमाया. इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि न केवल मजबूत हुई है, बेहतर भी हुई है. बड़े मसलों का हल अब अमेरिका, रूस जैसे देश भारत के नेतृत्व में ढूंढने लगे हैं.

मुस्लिम कौम को भी स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना बेहतर और अच्छी समझ वाला कूटनीतिक लीडर चुनना चाहिए. यह न कर सके तो अच्छे काम करने वालों के पीछे लग जाए, बगैर यह देखे कि यह हिंदू है या मुसलमान. यदि यह भी न हो पाए तो अनर्गल विवाद और गतिविधियां कर खुद को नई मुसीबत में न डालें.

अभी देश-दुनिया में मुसलमानों की जैसी स्थिति  है उसमें उन्होंने अब तक अच्छी बात को अच्छा और बुरी बात को बुरा कहना नहीं सीखा है, जो ठीक नहीं. ऐसे में, शिया-सुन्नी में एकजुटता की वकालत करने वालों से पूछा जा सकता है कि क्या कभी उन्होंने  पाकिस्तान-अफगानिस्तान के शिया समुदाय के खिलाफ होने वाले अत्याचारों के प्रति अपनी सामूहिक नाराजगी जताई है ?

हद तो तब है कि आतंकवाद, मनी लॉन्ड्रिंग में फंसे मौलाना जाकिर नाइक की ऐसी बातों पर हम लट्टू हो जाते हैं. जब कि किसी ने उनसे यह पूछा कि उन्हांेने भारत क्यों छोड़ा ? वह परिवार के साथ मलेशिया में क्यों बैठे हैं ? यदि उनपर किसी तरह के आरोप हैं तो यहीं कोर्ट-कचहरी में निपटाया क्यों नहीं ? कलीमुद्दीन जैसे उनके अलावा भी कई मुस्लिम रहनुमा विभिन्न संगीन आरोपों में जेल की सजा काट रहे हैं. वे तो नहीं भागे भारत छोड़कर !

इसलिए बेहतर है मुसीबतों का सामना करें. अच्छे लोगों की पहचान रखें.समस्या आए तो कूटनीति से निपटाएं. हिंसा किसी मसले का हल नहीं. यह भी कतई जरूरी नहीं कि यदि शिया किसी मुददे को लेकर जंग लड़े तो एकजुटता दिखाने के लिए तमाम सुन्नी देश भी इसमें कूद पड़ें.

और यह भी उचित नहीं कि शिया या सुन्नी एक दूसरे पर जुल्म ढहाए और इसे रोकने की बजाए खामोश रहें. पाकिस्तान में शिया समुदाय की क्या बदतर हालत कर रखी है सुन्नियों ने ! इसपर तो कभी कोई नहीं बोलता ? अब लेबनान और गाजा में इजरायली बमबारी हो रही है तो लोगों को शिया-सुन्नी  एकजुटता याद आ रही है.

यहां तक कि बांग्लादेश के कामचलाऊ प्रधानमंत्री मोहम्मद यूनुस जैसे नेता भी यूएन में गाजा और फिलिस्तीन की स्थिति पर चिंता प्रकट कर रहे हैं, जब कि पूरी दुनिया ने हाल में देखा कि किस तरह उनके देश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किए गए, धार्मिक स्थल,व्यापार, मकान, दुकान को नुकसान पहुंचाया गया. इस लिए बेहतर है कि जबानदराजी छोड़कर खुद को मजबूत करने के लिए कूटनीतिक और बेहतर नेतृत्व खड़ा करने के उपाए ढूंढें.