प्रो. अख़्तरुल वासे
मौत बरहक़ है. ज़िंदगी की अगर कोई एक अटल सच्चाई है तो वह मौत है. जो आया है उसे हर हाल में जाना है. इस हक़ीक़त को जानते बूझते भी जब कोई इस दुनिया से जाता है तो अफ़सोस ही होता है. लेकिन कुछ लोग का जाना एक बड़े हादसे की सूरत में बदल जाता है.
ऐसी ही एक त्रासदी है मशहूर अर्थशास्त्री, आधुनिक और प्राचीन की शख़्सियत, इस्लामिक मूल्यों की जीती-जागती मिसाल, हमारे दौर के विद्वान, शिक्षक, विचारक और महान बुद्धिजीवी प्रोफ़ेसर निजातुल्लाह सिद्दीक़ी की.
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक गांव में 1931 में पैदा हुए निजातुल्लाह साहब 2022 में 91 साल की उम्र में कैलिफ़ोर्निया (अमेरिका) के सैन जोस में अपने रब से जा मिले.
निजातुल्लाह सिद्दीक़ी साहब दुनिया भर में इस्लामी अर्थव्यवस्था के हवाले से एक ऐसा नाम था जिस पर हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी मुसलमान जितना गर्व करें कम है.
1967 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश के समय से ही लेखक का उनके साथ घनिष्ठ संबंध था. उस वक्त निजातुल्लाह सिद्दीक़ी बद्र बाग़ में रह रहे थे और अर्थशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर थे.वह जमात-ए-इस्लामी से जुड़े हुए थे और अलीगढ़ में जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे.
वह 1961 से 1974 तक लेक्चरर रहे और 1975 से 1976 तक रीडर की ओहदे पर रहते हुए अपनी सेवा दे ही रहे थे कि उनको 1977 में प्रो. अली मुहम्मद ख़ुसरो ने, जो स्वयं एक महान अर्थशास्त्री और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति थे, उन्हें चयन समिति के माध्यम से इस्लामिक स्टडीज़ की प्रोफ़ेसरशिप पर औपचारिक रूप से नियुक्त किया.
यह नियुक्ति जहाँ निजातुल्लाह सिद्दीक़ी की विद्वता की स्वीकृति थी वहीं ख़ुसरो साहब ने इस चुनाव प्रक्रिया की अध्यक्षता करके अपनी जान जाखिम में डाल दी क्योंकि यह वो ज़माना था जब देश में आपातकाल लगा हुआ था.
निजातुल्लाह सिद्दीक़ी साहब को लेकर अलीगढ़ में कुछ लोगों ने तत्कालीन केंद्रीय शिक्षामंत्री माध्यम से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से शिकायत की. यूनिवर्सिटी से जवाब भी तलब हुआ और लेखक को प्रत्यक्ष रूप से इसका ज्ञान इसलिए है क्योंकि प्रोफेसर निजातुल्लाह सिद्दीक़ी के समर्थन में आवश्यक सामग्री के साथ.
जिसमें अर्थशास्त्र विभाग के एक उच्च योग्य शिक्षक डॉ. बनर्जी का ख़त भी शामिल था, मुझे ही प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के विशेष प्रतिनिधि जो उस वक़्त अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की कार्यकारी परिषद के सदस्य भी थे, जनाब यूनुस साहिब को पहुँचाने के लिए दिए गए थे .
साउथ ब्लॉक में प्रधानमंत्री के कार्यालय में यूनुस साहिब को पहुँचाए. वे ख़ुसरो साहब के समर्थन में निजातुल्लाह सिद्दीक़ी के चुनाव के समर्थन में एक मजबूत और अभेद्य दीवार की तरह खड़े हो गए और इस तरह निजातुल्लाह साहब की नियुक्ति के ख़िलाफ़ विरोधियों की सभी रणनीति, षड्यंत्र और प्रयास विफल हो गए.
यह और बात है कि निजातुल्लाह सिद्दीक़ी साहब जैसे ही उनकी नियुक्ति का परिवीक्षा अवधि (प्रोबेशन पीरियड) समाप्त हुआ, किंग अब्दुल अज़ीज़ यूनिवर्सिटी जेद्दा चले गए और फिर वहीं के होकर रह गए.
प्रो निजातुल्लाह सिद्दीक़ी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा विज्ञान विषयों में प्राप्त की लेकिन बाद में अलीगढ़ से सामाजिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में बीए और एमए किया.
यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि अलीगढ़ में बीए में उनके सहपाठी इशरत अज़ीज़ और आफ़ताब हॉस्टल में उनके पड़ोसी हामिद अंसारी दोनों उस समय सऊदी अरब में राजदूत थे जब निजातुल्लाह सिद्दीक़ी वहां किंग अब्दुल अज़ीज़ यूनिवर्सिटी में एक प्रोफ़ेसर के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे थे.
ये दोनों ही निजातुल्लाह साहब के ज्ञान, शालीनता और व्यक्तित्व के मुरीद रहे हैं और दोनों ने निजातुल्लाह सिद्दीक़ी साहब के निधन पर गहरा दुख और शोक व्यक्त किया.
निजात साहब अलीगढ़ के अलावा मदरसत-उल-इस्लाह सराय मीर, आज़मगढ़ और जमात-ए-इस्लामी द्वारा स्थापित स्कूल रामपुर में भी ज्ञानार्जन के लिए रुके थे और इस तरह वे इस्लाम के आधुनिक और प्राचीन और बुनियादी सिद्धांतों के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में उभरे थे.
इस्लाम के संदर्भ और स्त्रोत पर उनकी इतनी गहरी नज़र हो गई कि उन्होंने इमाम अबू यूसुफ़ की अरबी किताब ‘किताब अल-ख़िराज’ का उर्दू में ‘इस्लाम का निज़ाम-ए-महासिल’ और सैयद कुतुब की अरबी किताब ‘इस्लाम में अदल-ए-इज्तिमाई’ के नाम से उर्दू में अनुवाद किया.
पिछली शताब्दी के चौथे, पाँचवें और छठे दशक वे थे जिनमें प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में व्याप्त था और प्रगतिशील आंदोलन और साम्यवादी विचार इसकी शुरुआत को छोड़कर, जिसमें प्रेमचंद, हसरत मोहानी और मौलवी अब्दुल हक़ शामिल थे, बाद में पूरी तरह से कम्युनिस्ट विचारों के अधीन हो गए.
ऐसे समय में जमात-ए-इस्लामी से जुड़े लेखकों ने ‘‘अदब-ए-इस्लामी’ के नाम से एक नया आंदोलन चलाया. यह आन्दोलन बहुत प्रबल तो नहीं हो सका, किन्तु इसने उर्दू भाषा के साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया और इस आन्दोलन की विशेषताओं को समझने के लिए प्रोफेसर निजातुल्लाह सिद्दीक़ी की पुस्तक ‘इस्लामी अदब’ आज भी सन्दर्भ की एक पुस्तक है.
उसी तरह अपने ज़माने में तहरीक-ए-इस्लामी दिशा और दशा को समझने के लिए निजात साहिब की किताब ‘तहरीक-ए-इस्लामी अस्र-ए-हाज़िर में’ एक महत्वपूर्ण किताब है.
निजात साहब की प्रत्येक रचना महत्वपूर्ण है लेकिन इस्लामी अर्थव्यवस्था के संस्थापक के रूप में उनकी पुस्तकें, जिन्होंने न केवल अर्थशास्त्र में एक ऊर्जा पैदा की बल्कि एक तहलका मचा दिया, वह हैं ग़ैर सूदी बैंककारी, इंश्योरेंस इस्लामी मअीशत में, शिर्कत और मुज़ारिबत के शरई उसूल और इस्लाम का नज़रिया-ए-मिल्कियत.
ये वो किताबें हैं जिन्होंने निजात साहब को न सिर्फ़ पूरी दुनिया से परिचित कराया बल्कि उन्हें मशहूर भी किया. उनकी अधिकांश पुस्तकों का दुनिया की अधिकांश भाषाओं में अनुवाद किया गया है, और वह उन देशों में भी उनका पाठ्यक्रम है जो इस्लामी अर्थशास्त्र को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं.
पिछले पचास सालों में उनकी किताब ग़ैर सूदी बैंककारी के तीस से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो निस्संदेह किसी किताब के उत्कृष्ट होने का जीता जागता सबूत है.
निजात साहब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, किंग अब्दुल अज़ीज़ यूनिवर्सिटी, इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया, लॉस एंजिलिस समेत कई संस्थानों से जुड़े हुए थे.
उन्हें सऊदी अरब सरकार द्वारा शाह फ़ैसल अवार्ड और इंस्टीट्यूट ऑफ़ ऑब्जेक्टिव स्टडीज़, इंडिया द्वारा शाह वलीउल्लाह अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था.
उन्होंने विभिन्न देशों में भाषणों, अपने लेखों और विशेष रूप से इस्लामी अर्थशास्त्र के माध्यम से ज्ञान का प्रसार किया जिस पर हम सबको फ़ख़्र करना चाहिए.
आज जब प्रोफ़ेसर निजातुल्लाह सिद्दीक़ी हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनकी शैक्षिक और अनुसंधानिक पूंजी, जो हमारे बीच मौजूद है, आने वालों को नए रास्ते दिखाती रहेंगी.
मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि निजात साहब ने अपने अपने विचारों और कार्यों से जो कुछ अपनी ज़िंदगी में कमाया है, वह आख़िरत में उनके निजात के ज़रिया बनेगा और वह हमेशा एक शिक्षक, विचारक और बुद्धिजीवी के रूप में याद किए जाते रहेंगे.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)