मलिक असगर हाशमी
क्या वक्फ अधिनियम के विरोध में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेतृत्व वाला आंदोलन अब दिशाहीन हो चला है ? यह सवाल अब केवल सियासी हलकों तक सीमित नहीं, बल्कि आम मुस्लिम समुदाय के बीच भी गूंजने लगा है. कारण है—पटना के गांधी मैदान में आयोजित ‘वक्फ बचाओ, संविधान बचाओ’ रैली, जहां लाखों की भीड़ तो ज़रूर दिखी, लेकिन मंच से बोर्ड के किसी बड़े पदाधिकारी की आवाज़ नहीं गूंजी.
जनसभा को संबोधित करते तेजस्वी
इतना ही नहीं, AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, जो अब तक इस आंदोलन की एक प्रमुख आवाज़ माने जाते रहे हैं, उन्होंने पटना पहुंचने की बजाय महाराष्ट्र के परभणी में अपनी पार्टी की रैली को प्राथमिकता दी. सवाल उठता है: क्या वक्फ मुद्दे की प्राथमिकता अब उनके एजेंडे में पीछे चली गई है ? यदि नहीं, तो क्या बिहार की यह रैली केवल राजनीतिक मंचों के लिए एक औजार बनकर रह गई ?
अपने अमीर की एक आवाज़ पर वक़्फ़ बचाओ, दस्तूर बचाओ,
— HiFZAN. SIDDIQUE (@Hifzan_S) June 29, 2025
कॉन्फ्रेंस में लाखो लोग पटना के गांधी मैदान मे इक्ट्ठा हुए और अपना विरोध इस बिल के खिलाफ दर्ज करवाए। #WaqfAct #Bihar #SaveWaqf #patna pic.twitter.com/v7XEp2UHQw
रैली में जमीयत उलेमा-ए-हिंद और जमात-ए-इस्लामी हिंद जैसे संगठनों के बड़े नेताओं की अनुपस्थिति भी कई तरह के संदेह खड़े करती है. जमात-जमीयत, पर्सनल लॉ बोर्ड के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी इस रैली का कोई उल्लेख तक नहीं दिखा. क्या यह संकेत है कि मुस्लिम संगठनों में इस मुद्दे को लेकर नीतिगत मतभेद और नेतृत्व संघर्ष गहराता जा रहा है ?
बोर्ड का बैनर लगने के बावजूद, रैली की पूरी कमान इमारत-ए-शरिया के प्रमुख मौलाना फैसल रहमानी के हाथों में दिखी. मंच पर सियासी दलों का वर्चस्व इतना हावी रहा कि यह कहना गलत नहीं होगा कि यह मंच 'राजद समर्थित' लगने लगा.
तेजस्वी यादव के भाषणों को जिस तरह तवज्जो दी गई, और AIMIM के नेता अख्तरूल इमान तक को सीमित समय मिला, उसने इस आशंका को बल दिया कि आंदोलन अब एक सामाजिक जनांदोलन कम और सियासी रैली अधिक बन चुका है.
तेजस्वी यादव ने अपने भाषण में वादा किया कि यदि महागठबंधन सत्ता में आता है, तो बिहार में वक्फ अधिनियम को 'कूड़ेदान' में फेंक दिया जाएगा. यह बयान दर्शकों को लुभाने वाला तो ज़रूर था, पर तथ्य यह है कि यह कानून केंद्र सरकार का विषय है, और राज्य सरकार की सीमाएं स्पष्ट हैं.
रैली से इतर इमारत-ए-शरिया प्रमुख मौलाना फैसल रहमानी ने मीडिया से बात करते हुए स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य केवल विरोध नहीं, बल्कि संविधान के मूल प्रावधानों की रक्षा है.
उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के संशोधन वक्फ संपत्तियों पर नियंत्रण की एक जबरन कोशिश है, जो न केवल अल्पसंख्यकों के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों पर हमला है, बल्कि यह सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं के भी खिलाफ है.
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि कई वक्फ संपत्तियों पर चलने वाले संस्थानों में हिंदू लाभार्थियों की संख्या मुस्लिमों से अधिक है. उदाहरणस्वरूप, मौलाना मजहरुल हक विश्वविद्यालय के बी.एड. कोर्स में 88% छात्र हिंदू हैं. ऐसे में यह कानून केवल एक समुदाय का मसला नहीं, बल्कि समावेशी सामाजिक व्यवस्था पर हमला है.
किसी भी मुस्लिम संगठन के ट्वीटर हैंडल पर पटना की रैली का जिक्र नहीं
फैसल रहमानी ने केंद्र सरकार द्वारा 300 से अधिक आपत्तियों को खारिज किए जाने को लोकतांत्रिक संवाद की असफलता करार दिया और कहा कि जैसे तीन कृषि कानूनों को जनदबाव में वापस लिया गया, वैसे ही वक्फ कानून पर भी सरकार को पुनर्विचार करना होगा.
राजनीतिक समीकरणों की बात करें तो, मार्च में रमज़ान के दौरान नीतीश कुमार के आयोजित इफ्तार में इमारत-ए-शरिया के बहिष्कार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति उसका रुख कितना सख्त है.
बिहार की मुस्लिम आबादी लगभग 17% है, जो सीमांचल के किशनगंज, अररिया, कटिहार, पूर्णिया जैसे जिलों में केंद्रित है. साथ ही पटना, दरभंगा, मधुबनी, नालंदा जैसे इलाकों में भी इनकी संख्या प्रभावशाली है.
सभा को संबोधित करते रहमानी
इस जनसंख्या की राजनीतिक चेतना को देखते हुए वक्फ अधिनियम का मुद्दा निश्चित ही चुनावी राजनीति का केंद्र बन सकता है, लेकिन यदि मुस्लिम नेतृत्व और संगठनों के भीतर फूट और असहमति की यही स्थिति बनी रही, तो यह आंदोलन अपने उद्देश्य से भटक सकता है.
पटना की रैली ने जहां जनभावना की गहराई को ज़ाहिर किया, वहीं मुस्लिम संगठनों के बिखरे हुए रुख ने इस आंदोलन की गंभीरता पर सवाल खड़े कर दिए हैं. यदि वक्फ कानून का विरोध सचमुच व्यापक और समर्पित आंदोलन बनना है, तो इसके लिए नेतृत्व में एकता, पारदर्शिता और ईमानदारी ज़रूरी है—वरना यह सियासी मंचों की भेंट चढ़ता रहेगा.