गुलाम क़ादिर
हुसैनी ब्राह्मण एक अद्वितीय ब्राह्मण समुदाय हैं जो हिंदू और मुस्लिम दोनों सांस्कृतिक परंपराओं का सम्मिलन करते हैं. यह समुदाय ऐतिहासिक रूप से दोनों धर्मों से गहरे रूप से जुड़ा रहा है और इसके इतिहास में सांप्रदायिक सौहार्द का समृद्ध उदाहरण मिलता है.
पद्मश्री से सम्मानित ब्रज नाथ दत्ता 'क़ासिर', जो अमृतसर के एक प्रतिष्ठित व्यापारी और प्रसिद्ध उर्दू-फ़ारसी शायर थे, इसी समुदाय से आते हैं. उनकी पोती नोनिका दत्ता लिखती हैं कि उनके परिवार की पहचान हुसैनी ब्राह्मणों के रूप में रही है, जिनका अमृतसर में ताज़िया जुलूसों से भी करीबी रिश्ता रहा है. ताज़िया, मुहर्रम के अवसर पर इमाम हुसैन की याद में निकाला जाने वाला प्रतीकात्मक जुलूस होता है.
चेन्नई के पत्रकार सैयद अली मुजतबा लिखते हैं कि हुसैनी ब्राह्मण हिंदू होते हुए भी इमाम हुसैन में आस्था रखते हैं. उनके घरों में पूजा स्थल पर हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ 'आलम' (इमाम हुसैन का प्रतीक चिह्न) भी रखा जाता है. यह बात असामान्य लग सकती है, लेकिन यह परंपरा आज भी जीवित है.
हुसैनी ब्राह्मण मुख्यतः पंजाब क्षेत्र के मोहयाल ब्राह्मण समुदाय से आते हैं, जिसमें सात उप-जातियां शामिल हैं: बाली, भीमवाल, छिब्बर, दत्त, लौ, मोहन और वैद. ऐसा माना जाता है कि इनकी दत्त शाखा ने करबला की लड़ाई में इमाम हुसैन की ओर से युद्ध लड़ा था.
टी.पी. रसेल स्ट्रेसी की किताब History of The Muhiyals में एक प्रसिद्ध बॉलैड में बताया गया है कि दत्त योद्धा अरब गए थे और करबला की लड़ाई में शामिल हुए थे.करबला की लड़ाई 680 ईस्वी में इराक के करबला में लड़ी गई थी, जिसमें पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की सेना और उम्मयद खलीफा यज़ीद प्रथम की सेना आमने-सामने थी.
कहा जाता है कि रहब सिंह दत्त, जो बगदाद में रहते थे और दत्त समुदाय के नेता थे, अपने सैनिकों के साथ इमाम हुसैन की मदद के लिए इस युद्ध में शामिल हुए थे. बगदाद में उनका निवास स्थान "दैर-अल-हिंदिया" कहलाता था, जिसका अर्थ है "भारतीयों का मोहल्ला".
करबला की लड़ाई के बाद मोहयाल समुदाय ने इस्लामिक परंपराओं को भी आत्मसात किया और हुसैनी ब्राह्मणों का एक उपवर्ग अस्तित्व में आया, जो आज भी मुहर्रम मनाते हैं और इमाम हुसैन को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.
इतिहासकारों के अनुसार, उस समय बगदाद में लगभग 1,400 ब्राह्मण रहते थे.
आज भी भारत के पुणे, दिल्ली, चंडीगढ़, अमृतसर और जम्मू जैसे शहरों में, तथा पाकिस्तान के सिंध और लाहौर और अफगानिस्तान के काबुल में कुछ परिवार अपनी वंशावली करबला से जोड़ते हैं.
भारत के विभाजन से पहले लाहौर में हुसैनी ब्राह्मणों की बड़ी आबादी थी। आज अजमेर और बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में रहने वाले कुछ भूमिहार ब्राह्मण भी स्वयं को हुसैनी ब्राह्मण मानते हैं.
इस समुदाय को लेकर एक प्रसिद्ध कहावत भी है:"वाह दत्त सुल्तान, हिंदू का धर्म, मुसलमान का ईमान, आधा हिंदू आधा मुसलमान."यह कहावत इस बात का प्रतीक है कि कैसे यह समुदाय दोनों धार्मिक परंपराओं का सम्मान करते हुए एक सेतु का कार्य करता है.