हरजिंदर
स्कूलों में दोपहर को दिया जाने वाला भोजन यानी मिड-डे मील भारतीय शासन व्यवस्था की एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता है. वैसे इसका इतिहास 1920 में मद्रास राज्य से शुरू होता है, लेकिन आधुनिक दौर में इसका श्रेय सुप्रीम कोर्ट को दिया जाता है जिसके 28 नवंबर 2001 के एक फैसले के बाद इसे पूरे देश में तमाम बाधाओं और विपरीत मानसिकताओं के बीच लागू किया गया.
हालांकि शुरू में कईं राज्यों ने और कईं मामलों में स्थानीय स्तर पर इस योजना को टालने या उसका रूप बिगाड़ने की कोशिशें की. कईं जगह यह कोशिश की गई कि स्कूल में बच्चों को पका कर भोजन खिलाने के बजाए उन्हें सूखा अनाज दे दिया जाए.
लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया. बच्चों को सूखा अनाज देने में एक तो इस बात की गारंटी नहीं थी कि बच्चों को जो पोषण देने के लिए इस योजना को शुरू किया गया है वह पोषण उन्हें मिलेगा भी या नहीं. दूसरे इसके पीछे की एक सोच जिस सामाजिक परिवर्तन को लाने की थी वह मकसद धरा रह जाता.
जहां तक पोषण का मामला है यह तय किया गया कि बच्चों को ऐसा मिड-डे मील दिया जाए जिसमें कम से कम 450 कैलोरी और 12 ग्राम प्रोटीन हो. इसे सुनिश्चित करने की भी कईं कोशिशें की गईं जिसका कुछ हद तक असर भी हुआ.
पहला असर तो यह दिखा कि जो बच्चे अभी तक स्कूल जाने से कतराते थे या जिनके अभिभावाकों की उन्हें स्कूल भेजने में कोई दिलचस्पी नहीं थी उन्होंने भी मिड-डे मील के लालच में नियमित स्कूल जाना शुरू कर दिया. बहुत सारे अध्ययनों में यह भी पाया गया कि कईं अति गरीब परिवारों के बच्चों को दिन भर में सबसे पौष्टिक खाना मिड-डे मील के रूप में स्कूल में ही मिलता है.
लेकिन दूसरी महत्वपूर्ण बात इसके जरिये सामाजिक बदलाव थी. इस योजना के पीछे ज्यां दे्रज और रितिका खेड़ा जैसे अर्थशास्त्रियों की सोच यह थी कि सभी जाति धर्मों के बच्चे जब एक साथ बैठ कर खाएंगे तो उनके बहुत से पूर्वाग्रह टूटेंगे.
कईं जगहों पर स्थानीय स्तर पर इसका खासा विरोध भी हुआ. उच्च जातियों के लोगों ने अपने बच्चों को दलित बच्चों से अलग बैठाने के लिए दबाव वगैरह भी डाले. यह भी कहा गया कि उनके बच्चे निचली जाति के लोगों द्वारा बनाए गए भोजन को नहीं खाएंगे.
अब ऐसी खबरें बहुत कम सुनाई देती हैं इसलिए कहीं न कहीं हम सबने मान लिया है कि सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है. लेकिन चंद रोज पहले पश्चिम बंगाल से आई एक खबर बताती है कि अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है.
यह बात है राज्य के पूर्वी बर्दमान जिले के नादानघाट की. यहां एक स्कूल है जिसे किशोरीगंज मनमोहनपुर प्राईमरी स्कूल के नाम से जाना जाता है. यानी यह किशोरीगंज और मनमोहनपुर के बच्चों के लिए बना एक संयुक्त प्राईमरी स्कूल है.
इस स्कूल में जब मिड-डे मील का समय आता है तो दो चूल्हे जलते हैं. एक में हिंदू बच्चों का खाना बनता है और दूसरे मुसलमान बच्चों का. हिंदू बच्चों का खाना कोई हिंदू बनाता है .मुसमलान बच्चों का कोई मुसलमान.
वे बच्चे जो दिन भर एक साथ पढ़ते हैं, एक ही पाठ पढ़ते हैं. एक साथ उठते बैठते और खेलते हैं. वे मिड-डे मील के समय अलग-अलग बैठ कर अलग-अलग खाना खाते हैं. उनके खाना खाने के बर्तन भी अलग-अलग हैं. सामाजिक शिक्षा में पढ़ाए जाने वाले एकता के पाठ दोपहर होते-होते उनके दिमाग से धुल जाते हैं..
जब इस पर स्कूल के प्रिंसिपल से बात की गई तो उनका कहना था कि वे इसे गलत मानते हैं. इसे खत्म करना उनके बस में नहीं हैं. इस बात के लिए प्रिंसिपल को दोष देने के बजाए हमें यह समझना होगा कि स्थानीय स्तरों पर शिक्षकों को किस तरह के दबावों में काम करना होता है.
यही वे दबाव हैं जो सामाजिक बदलाव की तमाम अच्छी कोशिशों को रोक देते हैं. इन स्थानीय दबावों से लड़ने का तरीका विकसित करने का वक्त आ गया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)