प्रेमचंद की अंतिम यात्रा : वाद-विवाद नहीं, संवाद की ज़रूरत

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-06-2025
Premchand's last journey: There is a need for dialogue, not debate
Premchand's last journey: There is a need for dialogue, not debate

 

jk हरीश शिवनानी

एक पखवाड़ा बीत चुका है,जब हिंदी साहित्य जगत अपनी भाषा के महान लेखक की अंतिम यात्रा को लेकर अब भी वाद-विवाद के दायरे से बाहर नहीं निकल पाया है.हिंदी में प्रेमचंद की अंतिम यात्रा को लेकर जो परिदृश्य उपजा है, वो निराश करने वाला है.दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विवाद प्रेमचंद को लेकर एक नए तथ्य के संधान को लेकर हुआ है.

शुरुआत हुई 30मई को काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री और वरिष्ठ कवि-रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल के साहित्यिक वेबपोर्टल पर लिखे एक आलेख पर.‘मास्टर की अर्थी नहीं, आशिक का जनाज़ा था’ शीर्षक के आलेख में शुक्ल ने हिंदी के महान उपन्यासकार-कथाकार प्रेमचंद की अंतिम यात्रा के संदर्भ में वाराणसी के शताधिक पुराने प्रतिष्ठित समाचार-पत्र ‘आज’ के नौ अक्टूबर 1936 में प्रकाशित एक समाचार ‘स्वर्गीय प्रेमचंद जी- श्मशान पर साहित्यिकों की भीड़’ के आधार पर यह तथ्य उद्घाटित किया कि प्रेमचंद की अंतिम यात्रा में ‘बीस-पचीस आदमी’ नहीं, ‘साहित्यिकों की भीड़’ थी.

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प्रेमचंद की अंतिम यात्रा को लेकर हिंदी जगत में गत नौ दशकों से यह बात स्थापित है कि उनकी शवयात्रा एक प्रतिष्ठित महान लेखक की तरह नहीं, बल्कि एक ‘गुमनाम आदमी’ की तरह निकली थी, जिसे देखकर राह चलते एक अनजान व्यक्ति ने किसी दूसरे से पूछा था- ‘के रहल ?’

दूसरे ने ज़वाब दिया - ‘कोई मास्टर था.’ यह बात प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने अपने पिता की जीवनी ‘क़लम का सिपाही’ में लिखी है.इस बात को शुक्ल ने कुछ क्षुब्ध भाव से लिखा है- “प्रेमचंद जी की कहानियों, उपन्यासों और लेखों की तरह उनकी मृत्यु की ट्रैजिक गाथा भी हिंदी-लेखकों के सामूहिक अवचेतन में रिस गई है.…आज यह पता लगाना असंभव है कि अमृत राय ने ऐसा क्यों लिखा, लेकिन दैनिक ‘आज’ में 9 अक्टूबर 1936 को प्रकाशित ख़बर के आलोक में इतना बिल्कुल साफ़ है कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा है वह मिथ्या है.प्रेमचंद का पार्थिव शरीर ‘गुमनाम आदमी’ की लाश नहीं था.”

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इसे पढ़कर प्रेमचंद के वामपंथी धारा के अनेक आलोचकों-प्रशंसकों में उबाल आ गया.वे इस बात को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं कि अमृत राय अपने पिता की अंतिम यात्रा के बारे ने कुछ गलत लिख सकते हैं.वे यह बात भी भूल जाते हैं कि अमृय राय ने  यह बात नन्ददुलारे बाजपेयी की पुस्तक ' जयशंकर प्रसाद ' के एक अध्याय ' व्यक्ति की एक झलक' के आधार पर लिखी है.

प्रेमचंद की मृत्यु के समय अमृत राय पंद्रह वर्ष के थे,लेकिन जब उन्होंने ‘क़लम का सिपाही’ लिखी तब तक वे पूरी तरह से वामपंथी धारा में रंग कर वामपंथी लेखक-संपादक के रूप स्थापित हो चुके थे.

यह भी सर्वमान्य सत्य है कि हिंदी ही नहीं, किसी भो भाषा के वामपंथी, प्रगतिशील विचारधारा के लिए कवि-लेखक साहित्यकार, पत्रकार और किसान का ‘गरीब, बेबस और लाचार’ होना एक अनिवार्य तत्व है.इन्हें गरीब रहना और गरीब दिखना ही चाहिए.हिंदी साहित्यिक समाज का भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो दुख का कारोबार करता है.वह बार-बार ‘दुःख के दागों को तमगों सा पहना…’ दोहराता रहता है.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमृत राय ने अपने पिता प्रेमचंद की जीवनी लिखते हुए उनकी ऐसी बेचारी छवि जानबूझकर गढ़ी थी? वे तो वहाँ मौजूद थे.फिर उन्होंने ऐसा क्यों लिखा? जब उनके सामने नंददुलारे वाजपेयी की किताब थी तो परिपूर्णानन्द की किताब ‘बीती यादें’ कैसे याद नहीं आई, जिसमें वे कहते हैं कि उनकी अंतिम यात्रा में वे स्वयं व कई अन्य लेखकों सहित शहर के सैकड़ो गणमान्य लोग उपस्थित थे.

पर सन 1962तक परिपक्व वामपंथी हो चुके अमृत राय ने अपनी विचारधारा के अनुरूप जीवनीकार के रूप में इन बातों का भरसक ध्यान रखा है कि प्रेमचन्द की छवियों को अपने मुताबिक स्थापित करना है.‘क़लम का सिपाही’ में बहुत से ऐसे प्रसंग मिलेंगे जब प्रेमचंद को लाचार और बेचारा बताया गया है.

प्रो. कमल किशोर गोयनका ने प्रेमचंद के निजी, पारिवारिक जीवन और आर्थिक स्थिति के बारे में बरसों तक संधान करके कई मिथ्या मिथकों का तथ्यों सहित उनकी गढ़ी गई छवि का भंजन किया,लेकिन हिंदी के स्वयंभू प्रगतिशील वामपंथी आलोचकों ने बिलबिला कर उन्हें ‘हिन्दुत्ववादी’ घोषित कर ख़ारिज कर दिया.

इस वर्ग की जड़ता का आलम यह है कि प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में प्रेमचंद के बारे में काफी कुछ ऐसा लिखा कि उसे भी वे स्वीकार नहीं कर पाते.अब जब मिथक टूट रहे हैं तो पिछले ‘इकोसिस्टम’ के ‘आलोचकों’ को सच्चाई पर शक़ हो रहा है.

इस प्रसंग में वरिष्ठ कवि उदयन वाजपेयी ने महत्वपूर्ण बात कही है कि प्रेमचन्द जी की ग़रीबी केवल वही नहीं है, उसे बहुत मेहनत से साहित्यिक मूल्य बनाया गया है.इसी मूल्य के आधार पर हिन्दी आलोचना के श्रीकांत वर्मा जैसे कवि को हाशिए पर डाल देने जैसे कई आत्मघाती उपक्रम सम्भव हो सके.‘

आज’ की यह खबर और उस पर शुक्ल की व्याख्या के आलोक में हमें अपने दो धेले के बायोडेटावादी आलोचना-मूल्यों पर दोबारा विचार करना चाहिए.यह नव तथ्य का संधान है.इसे स्वीकार करना होगा.

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शुक्ल ने अपने तथ्य का सूत्र ‘आज’ में प्रकाशित समाचार से लिया है.‘आज’ अपने समय का महत्वपूर्ण और विश्वनीय समाचार पत्र था.उसके स्वामी शिव प्रसाद गुप्त और संपादक बाबू विष्णुराव पराड़कर की साख और समाज में महत्व असंदिग्ध था.

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को लेकर आज भी ‘आज’ की मिसालें दी जाती हैं.दूसरी ओर हिंदी का एक इकोसिस्टम अब भी अपनी रूढ़ और फैंटेसीनुमा रोमांटिसिज़्म से बाहर आने को तैयार नहीं कि सत्य का एक दूसरा आयाम भी हो सकता है.

शुक्ल के नए संधान पर आपत्ति,आलोचना, असहमति के लिए परंपरागत प्रगतिशील खेमे ने तथ्यात्मक तर्क गढ़ने की बजाए ‘ब्राह्मणवाद’, ‘प्रतिक्रियावादी’, ’भगवावादी’ जैसे रूढ़ और भोथरे औजारों के साथ सनातनी, हिन्दू धर्म के प्रतीक चिन्हों का भी नकारात्मक उपयोग किया.

बेहतर होता वे वाद-विवाद की बजाए संवाद का रास्ता अपनाते तो उनकी धूमिल हो चुकी छवि कुछ विश्वसनीयता उत्पन्न करती क्योंकि नये साक्ष्य और सिद्धांत के आलोक में पूर्ववर्ती स्थापनाओं का पुनर्मूल्यांकन भी आवश्यक है.

(वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार)