प्रधानमंत्री की पश्चिमी यूरोप की यात्रा: एक आकलन

Story by  जेके त्रिपाठी | Published by  [email protected] • 1 Years ago
प्रधानमंत्री की पश्चिमी यूरोप की यात्रा: एक आकलन
प्रधानमंत्री की पश्चिमी यूरोप की यात्रा: एक आकलन

 

जे.के. त्रिपाठी

हाल में प्रधानमंत्री ने तीन यूरोपीय देशों की अपनी व्यस्तता भरी तीन दिवसीय यात्रा पूरी की. अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप उनका कार्यक्रम काफी व्यस्त रहा, जिसमें जर्मनी के चांसलर से वार्ता, डेनमार्क में आयोजित दूसरे भारत-नॉर्डिक शीर्ष सम्मेलन में भागीदारी और इसके हाशिए पर पांचों बाल्टिक देशों के शासन प्रमुखों से द्विपक्षीय वार्ताएं तथा अंतिम चरण में फ्रांस के पुनर्निवाचित राष्ट्रपति से 2 घंटे की सघन मुलाकात शामिल थी.

द्विपक्षीय संदर्भों के महत्व के अतिरिक्त ये मुलाकातें रूस और यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष से उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर भी बहुत महत्वपूर्ण थी.जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज के साथ हुआ विचार-विमर्श द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने के लिए उपायों, महामारी के बाद आर्थिक प्रगति के विकल्पों, आपसी निवेश और वर्तमान यूरोपीय संकट पर केंद्रित रहा.

पीएम मोदी ने अपने जर्मन मेजबान को इस संघर्ष पर भारत के समय-परीक्षित और सुविचारित रुख को स्पष्ट किया और ऐसा प्रतीत होता है कि वे जर्मन नेता को भारत के राष्ट्रीय हित और ऊर्जा आवश्यकता के चलते विदेश नीति की मजबूरियों को समझाने में सफल रहे.

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छठवें भारत-जर्मनी अंतर सरकारी विमर्श के बाद जारी हुए संयुक्त बयान ने अपने 56 पैराग्राफों में सारे बिंदुओं को समाहित किया. द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देने के लिए वर्तमान प्रयासों पर संतोष व्यक्त करने के अतिरिक्त दोनों पक्षों ने भारत-जर्मनी ग्रीन हाइड्रोजन टास्क फोर्स की संस्तुति के आधार पर एक साझा ग्रीन हाइड्रोजन रोडमैप बनाने पर जोर दिया.

जर्मनी ने भारत को आर्थिक और तकनीकी सहयोग देने के इरादे की घोषणा की जिसमें एक अरब यूरो के सस्ते ऋण भी सम्मिलित हैं. क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर दोनों देशों के बीच जिस एक बात को छोड़ कर सहमति रही, वह थी रूस और यूक्रेन का संघर्ष.

जहां जर्मनी ने रूसी सेनाओं की यूक्रेन के खिलाफ ‘अवैध और अनुचित आक्रमण’ के लिए कड़ी निंदा की, वहीं भारत ने मसले को कूटनीतिक माध्यमों के जरिए शांतिपूर्ण तरीके से वार्तालाप के द्वारा सुलझाने का फिर से आह्वान किया. दोनों देशों ने यूक्रेन में नागरिक मौतों और मानवीय संकट की निंदा की और तुरंत ही हिंसा को समाप्त करने की मांग की.

अफगानिस्तान के मामले पर दोनों का रुख समान रहा. ईरान में आणविक ईंधन के विस्तार पर संयुक्त व्यापक कार्ययोजना का समर्थन किया तथा नियमों पर आधारित एक कारगर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने पर जोर दिया.

साथ ही आतंकवाद के सभी रूपों की और अपनी जमीन का आतंकवादी गतिविधियों के लिए उपयोग की अनुमति देने की कड़ी निंदा की गई. दोनों देश जी-4के सदस्यों के तौर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुनर्गठन के लिए काम करते रहने पर सहमत हुए.

अपनी यात्रा के दूसरे चरण में भारतीय प्रधानमंत्री ने कोपेनहेगन में द्वितीय भारतीय-नॉर्डिक शीर्ष सम्मेलन में शिरकत की. कोविड महामारी के कारण चार साल के अंतराल के बाद आयोजित होने वाले इस शिखर सम्मेलन ने मोदी को अन्य प्रतिभागी देशों के नेताओं को यूक्रेन संघर्ष पर भारत के रुख को अच्छी तरह स्पष्ट करने का मौका दिया.

यहां भी उम्मीद के अनुसार सारे नॉर्डिक नेताओं ने संकट पर रूस की आलोचना की और भारत ने वार्ता द्वारा शांति स्थापित करने की वकालत की. इन द्विपक्षीय वार्ताओं की एक खास बात ये रही कि पुराने बहुप्रसारित ढंग से सामान्य सहयोग की बात करने की बजाए भारतीय प्रधानमंत्री ने अलग-अलग देशों से उनकी अपनी विशेषताओं और शक्तियों के अनरूप सहयोग बढ़ाने की बात की.

जहां नार्वे के साथ सामुद्रिक अर्थव्यवस्था, पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा और हरित हाइड्रोजन पर बात हुई वही स्वीडन के साथ वार्तालाप स्वच्छ तकनीक, निवेश, शोध और नवाचार तथा आइसलैंड की प्रधानमंत्री के साथ भूगर्भीय ऊर्जा के दोहन पर सहयोग की बात हुई. फिनलैंड की प्रधानमंत्री के साथ डिजिटल नवाचार और 5जी तथा 6जी प्रणालियों पर वार्ता हुई.

 निःसंदेह यात्रा के अंतिम चरण में फ्रांसीसी राष्ट्रपति से वार्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही. सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में फ्रांस भारत के सबसे विश्वसनीय सहयोगी के रूप में उभरा है, जिसके साथ रिश्ते 20वर्षों से अधिक समय से गहनतर होते गए हैं.

1998 में भारत के परमाणु परीक्षण की आलोचना न करने वाला फ्रांस भारत के साथ सबसे पहले वार्तालाप शुरू करने वाला देश बना. उसी साल दोनों देशों की साझेदारी बढ़कर के रणनीतिक साझेदारी में बदली.

तभी से भारत के असैनिक परमाण्विक उपयोग के लिए फ्रांस परमाण्विक ईंधन मुहैया कराता रहा है तथा तमाम क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटलों पर भारत का समर्थन करता रहा है. दोनों नेताओं के बीच में द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर वार्ता का आयाम बहुत व्यापक था.

हालांकि फ्रांस यूक्रेन में रूसी सैनिक कार्रवाई की खिलाफत करता है, फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रो भारत के रुख को समझने में सफल रहे. दोनों ने यूक्रेन में बदतर हो रहे मानवीय संकट पर चिंता जाहिर की और संघर्ष को तुरंत समाप्त कर वार्तालाप के द्वारा समस्या का हल निकालने पर जोर दिया.

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अफगानिस्तान और इंडो-पैसिफिक पर भी दोनों के विचार समान थे.  रक्षा के क्षेत्र में बढ़ रहे सहयोग पर संतुष्टि जाहिर करते हुए दोनों नेताओं ने स्कॉर्पियन श्रेणी के छह पनडुब्बियों के मझगांव डॉक लिमिटेड में उत्पादन को रेखांकित किया जो भारत की आत्मनिर्भर योजना के अंतर्गत ‘मेक इन इंडिया’  का एक ज्वलंत उदाहरण है.

दोनों नेताओं ने रक्षा उत्पादन क्षेत्र में साझा डिजाइन, साझा विकास और साझा उत्पादन पर सहमति व्यक्त की. दोनों रणनीतिक साझेदारों ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में सहयोग के लिए एक ‘द्विपक्षीय रणनीतिक वार्ता’ को प्रारंभ करने का भी निर्णय किया.

रक्षा क्षेत्र में सहयोग के मामले में दोनों देशों में अंतर्राष्ट्रीय सौर सहयोग पर काम करते रहने पर बल दिया और फ्रांसीसी सहयोग से बन रहे छह यूरोपीय नए रिएक्टरों वाले जैतापुर परमाण्विक विद्युत संयंत्र के निर्माण में शीघ्रता करने की आवश्यकता पर बल दिया.

ध्यान रहे कि एक बार चालू हो जाने पर यह संयंत्र विश्व का सबसे बड़ा आण्विक ऊर्जा संयंत्र होगा जो 13अरब डॉलर से बनाया जाएगा और 9.6गेगावॉट की ऊर्जा उत्पन्न करेगा. दोनों देशों के बीच विचारों की समानता दर्शाने के दो और बिंदु थे - साइबर सुरक्षा और आतंकवाद का विरोध.

 प्रधानमंत्री मोदी की उपरोक्त सातों देशों के शासनाध्यक्षों के साथ हुई वार्ता से यह स्पष्ट है कि इन सभी के बीच एक सामान्य सूत्र था - भारत द्वारा यूक्रेन संकट पर अपने रुख की स्पष्टता और सफलता के साथ व्याख्या.

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दूसरी समानता थी आतंकवाद और उससे निपटने के तरीकों पर विमर्श. द्विपक्षीय मुद्दों में सामान्य सूत्र था स्वच्छ और पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा की हमारी तलाश, चाहे वह सौर, आण्विक, हाइड्रोजन या भूगर्भीय ऊर्जा के रूप में हो.

जर्मनी के साथ वार्तालाप में जहां जोर जी-4 प्रारूप के अंतर्गत के अनुरुप कार्य और जर्मन निवेश को आकर्षित करना था, फ्रांसीसी राष्ट्रपति के साथ वार्ता में विशेष जोर रक्षा उत्पादन, अंतरिक्ष और ऊर्जा सहयोग पर था.

दोनों पक्षों ने सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता को बढ़ाने के लिए औद्योगिक साझेदारी की स्थापना का निश्चय किया ताकि उनके द्वारा उत्पादित बिजली एक समेकित सप्लाई चेन के द्वारा एशिया और यूरोप के बाजारों में बेची जा सके.

 इस प्रकार से सार रूप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय प्रधानमंत्री अपने उन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल रहे, जिनको लेकर यह यात्रा की गई थी. हालांकि हम यह निश्चित तौर से कह सकते हैं कि सारी दुनिया ने हमारी रूस के प्रति नीति की तार्किकता को स्वीकार कर लिया है, फिर भी शेष दोनों लक्ष्यों पर हुए वार्तालाप के परिणामस्वरूप किए जाने वाले उपायों में समय लगेगा.

आखिर जैतापुर ऊर्जा संयंत्र पिछले 8 साल से कार्यान्वित होने की राह देख रहा है. यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि उनके निर्णयों और उनके कार्यान्वयों के बीच लगने वाले समय को दृढ़ निश्चय के साथ कम न किया जाए.

( लेखक पूर्व राजनयिक हैं. )