कश्मीरी मर्सिया: आस्था, शोक और संस्कृति की काव्यात्मक विरासत

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 03-07-2025
Kashmiri Marsiya: A poetic legacy of faith, grief and culture
Kashmiri Marsiya: A poetic legacy of faith, grief and culture

 

आमिर सुहैल वानी/श्रीनगर

श्रीनगर की शांत गलियों और मुहर्रम की रातों के दीपमय मजलिसों में जब कश्मीरी भाषा में मर्सिया की दर्दभरी आवाज़ गूंजती है, तो वह केवल शोक नहीं, बल्कि एक जीवंत आध्यात्मिक परंपरा, सांस्कृतिक पहचान और ऐतिहासिक स्मरण की अभिव्यक्ति बन जाती है.

मर्सिया क्या है?

मर्सिया एक शोकगीत है, जो विशेष रूप से कर्बला के शहीदों—इमाम हुसैन और उनके साथियों की कुर्बानी को याद करने के लिए लिखा और गाया जाता है. इस परंपरा की जड़ें इस्लामी इतिहास के उस निर्णायक क्षण से जुड़ी हैं, जब 680 ईस्वी में करबला की लड़ाई हुई थी.
 
 
अरबी, फारसी और उर्दू में इस काव्य परंपरा ने सदियों तक विकास किया, और धीरे-धीरे यह कश्मीर में भी पहुंची. 16वीं सदी में जब फारसी संस्कृति और शिया समुदाय का प्रभाव कश्मीर में बढ़ा, तब मर्सिया ने भी स्थानीय भाषा में आकार लेना शुरू किया.
 
कश्मीरी मर्सिया का विकास

शुरुआती दौर में कश्मीरी मर्सिया फारसीनुमा भाषा में होता था, जिसे केवल विद्वान या मौलवी ही समझ पाते थे. लेकिन 18वीं और 19वीं शताब्दी में यह शैली आम बोलचाल की कश्मीरी भाषा में ढल गई, जिससे यह जनमानस की भावना बन गई.
 
 
आगा सैयद यूसुफ अल-मूसवी और मीरवाइज़ शम्सुद्दीन जैसे कवियों ने इस शैली को जनप्रिय बनाया। उनके लिखे मर्सिए सिर्फ़ शोक नहीं थे, वे धर्म, शिक्षा और आध्यात्मिकता का स्रोत थे. आज भी आगा सैयद आबिद हुसैन जैसे आधुनिक कवि इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं—नई संवेदनाओं के साथ, लेकिन उसी आत्मा के साथ.
 
क्या बनाता है कश्मीरी मर्सिए को विशिष्ट?

हर कश्मीरी मर्सिए का केंद्र बिंदु कर्बला की त्रासदी होती है. इसमें बलिदान, पीड़ा, निष्ठा और प्रतिरोध की भावनाएं झलकती हैं. आम तौर पर मर्सिया छह पंक्तियों की मुसद्दस शैली में लिखा जाता है. इसकी शुरुआत आध्यात्मिक वंदना से होती है, फिर कर्बला की घटनाओं का वर्णन किया जाता है और अंत में मार्मिक शोकगीत के रूप में समाप्त होता है.
 
कई बार इसमें कश्मीरी लोकशैली जैसे वन्कुन और नौहा की छाया भी दिखाई देती है, जिससे यह और अधिक सजीव और प्रभावी बनता है. यह काव्य केवल पढ़ा नहीं जाता, बल्कि समूह के बीच गाया जाता है—आंसुओं, सिसकियों और मातम के साथ. यही सामूहिक भाव इसे सिर्फ़ कविता नहीं, बल्कि एक अनुभव बना देता है.
 
मौखिक परंपरा का जीवंत स्वरूप

कश्मीरी मर्सिया की बड़ी खासियत यह है कि यह किताबों में नहीं, लोगों के दिलों और ज़ुबानों में जीता है. पीढ़ी दर पीढ़ी—खासतौर पर महिलाओं के बीच—यह मर्सिए मौखिक रूप से आगे बढ़ते रहे हैं।
 
कई लोगों के लिए यही शेर उनके पहले धार्मिक, नैतिक और ऐतिहासिक पाठ होते हैं. यहां तक कि आज जब युवा पीढ़ी उर्दू और अंग्रेज़ी की ओर झुक रही है, तब भी बडगाम की बस्तियों या ज़डिबल की गलियों में मर्सिए की गूंज अब भी वैसी ही बनी हुई है।
 
आधुनिक मीडिया और पुराना संदेश

आज डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने इस परंपरा को नई ज़िंदगी दी है. व्हाट्सऐप ग्रुप्स, यूट्यूब चैनल और इंस्टाग्राम रील्स पर कश्मीरी मर्सिए की रिकॉर्डिंग और प्रस्तुतियां देखी जा सकती हैं.
 
नई पीढ़ी इसमें नए संगीत और तकनीकी प्रयोग कर रही है, तो पुरानी पीढ़ी इसकी प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए सजग है. सांस्कृतिक संगठन अब मर्सियों को संग्रहित कर रहे हैं, ताकि यह विरासत भविष्य में भी जीवित रहे.
 
मर्सिया का महत्व

कश्मीर में मर्सिया सिर्फ़ मातम नहीं है, यह एक सामूहिक स्मृति, प्रतिरोध और पहचान का माध्यम है. यह नई पीढ़ी को बलिदान की कीमत और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने की प्रेरणा देता है.
 
आगा सैयद नासिर रिज़वी, एक सांस्कृतिक इतिहासकार और मर्सिया पाठक, कहते हैं—“कश्मीरी मर्सिए का हर शेर एक आह, एक दुआ और एक वादा होता है.” वहीं श्रीनगर की छात्रा ज़हरा बानो कहती हैं, “जब मेरी दादी मर्सिया पढ़ती हैं, ऐसा लगता है जैसे कर्बला का दर्द हमारे सामने घट रहा है.
 
कश्मीरी मर्सिया केवल कविता नहीं है—यह याद है, प्रतिरोध है, और दुख से उपजी सुंदरता है. कश्मीर की सूफियाना आत्मा और सांस्कृतिक जिजीविषा का यह एक दुर्लभ और जीवंत स्वर है, जो अतीत और वर्तमान, भाषा और आस्था, मौन और अभिव्यक्ति को जोड़ता है और जब तक कर्बला की गाथा जीवित है, कश्मीरी मर्सिया की आवाज़ें—आंसुओं, लय और श्रद्धा के साथ—हर मुहर्रम में गूंजती रहेंगी.