देस-परदेश : मालदीव में राजनीतिक-परिवर्तन के मायने

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 02-10-2023
 Meaning of political change in Maldives
Meaning of political change in Maldives

 

parmodप्रमोद जोशी

मालदीव में राष्ट्रपति पद के चुनाव में चीन-समर्थक मुहम्मद मुइज़्ज़ू की विजय हिंद महासागर क्षेत्र में भारतीय रणनीति पर कितना प्रभाव पड़ेगा, यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा, पर आमतौर पर माना जा रहा है कि प्रभाव पड़ेगा ज़रूर. अलबत्ता पिछले कुछ वर्षों का अनुभव कहता है कि हालात 2013 से 2018 के बीच जैसे नहीं बनेंगे. देश की नई सरकार भारत और चीन के बीच संतुलन बनाकर चलना चाहेगी. 

यह चुनाव मुइज़्ज़ू के 'इंडिया आउट' और इब्राहिम सोलिह के ‘इंडिया फर्स्ट’ के बीच हुआ था, जिसमें मुइज़्ज़ू को जीत मिली. दोनों देशों में मालदीव पर अपने असर को लेकर अरसे से होड़ चल रही है. चुनाव का यह नतीजा भारत और चीन से मालदीव के रिश्तों को एक बार फिर परिभाषित करेगा. 
 
पिछले पाँच साल से वहाँ भारत-समर्थक सरकार थी, पर अब चीन फिर से वहाँ की राजनीति में अपने पैर जमाएगा. इस दौर में चीन को वैसी ही सफलता मिलेगी या नहीं, अभी कहना जल्दबाजी होगी. चीन के कर्जों को लेकर हाल के वर्षों में बांग्लादेश, श्रीलंका और यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी विरोध हुआ है. क्या मालदीव इस बात से बचा रहेगा ? 
 
हिंद महासागर में चीन अपनी गतिविधियाँ बढ़ा रहा है. मालदीव उसका एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ है. हाल के वर्षों में उसने उत्तरी अफ्रीका के देश जिबूती में अपना फौजी अड्डा स्थापित किया, तो भारत के कान खड़े हुए. मालदीव और श्रीलंका में खासतौर से सक्रियता बढ़ाई. गौर करने वाली बात है कि सन 2011 तक मालदीव में चीन का दूतावास भी नहीं था.
 
राजनीतिक-अंतर्विरोध

प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव (पीपीएम) और पीपुल्स नेशनल कांग्रेस (पीएनसी) के प्रोग्रेसिव अलायंस के उम्मीदवार मुहम्मद मुइज़्ज़ू ने निवृत्तमान राष्ट्रपति और मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के उम्मीदवार इब्राहिम सोलिह को हराया, जिनके भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते भी ज़ाहिर हैं. 
 
निर्णायक चुनाव में मुहम्मद मुइज़्ज़ू को 54 फीसदी वोट हासिल हुए और इब्राहिम मुहम्मद सोलिह को करीब 56 फीसदी. गत 9 सितंबर को हुए पहले दौर में आठ प्रत्याशी मैदान में थे. उसमें मुइज़्ज़ू को 46 फीसदी और सोलिह को 39 फीसदी वोट मिले थे.
 
मालदीव की व्यवस्था के अनुसार यदि पहले दौर में किसी एक प्रत्याशी को आधे से ज्यादा वोट नहीं मिलें,  तो केवल पहले दो प्रत्याशियों के बीच मतदान का निर्णायक दौर होता है. मुइज़्ज़ू जिस प्रोग्रेसिव अलायंस के सहारे जीतकर आए हैं, उसमें शामिल सभी तत्व चीन-समर्थक नहीं हैं.
 
इसलिए जरूरी नहीं कि यह सरकार अब्दुल्ला यामीन सरकार की तरह पूरी तरह चीन-समर्थक नीतियों पर चलने की कोशिश करे. देश में एक तबका ऐसा भी है, जो विदेश-नीति के राजनीतिकरण का विरोधी है. वह मानता है कि हमें अपने राष्ट्रीय-हित देखने चाहिए. 
 
इब्राहीम सोलिह की हार के पीछे एंटी-इनकंबैंसी ने भी भूमिका अदा की है. एक बड़ा कारण पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद का उनकी पार्टी को छोड़ जाना भी है. हाल में उनके कई सहयोगी उन्हें छोड़कर चले गए थे. ‘इंडिया आउट अभियान’ और सोशल मीडिया, मीडिया संगठनों, राजनीतिक दलों और चीन के दुष्प्रचार का असर किस हद तक है, यह अब देखना होगा.   
 
चीन की भूमिका

दक्षिण एशिया में अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बनाने की भारतीय कोशिशों में चीन एक बड़ी बाधा के रूप में उभर कर आया है. मालदीव के 'इंडिया आउट' अभियान के पीछे भी चीन की भूमिका भी स्पष्ट है. चीन ने पाकिस्तान के अलावा बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव में काफी पूँजी निवेश किया है. 
 
मुहम्मद मुइज़्ज़ु की पार्टी ने पिछले कार्यकाल में चीन से नजदीकियां काफी ज्यादा बढ़ा ली हैं. चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए खूब सारा धन बटोरा गया. 45 साल के मुइज़्ज़ु माले के मेयर रहे हैं. पिछली सरकार में मालदीव के मुख्य एयरपोर्ट से राजधानी को जोड़ने की 20 करोड़ डॉलर की चीन समर्थित परियोजना का नेतृत्व उन्हीं के हाथ में था. 
 
चीन के पैसे से बनी इसी परियोजना की सबसे अधिक चर्चा है. 2.1 किमी लंबा यह चार लेन का एक पुल है. यह पुल राजधानी माले को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से जोड़ता है, जो दूसरे द्वीप पर स्थित है. इस पुल का उद्घाटन 2018 में किया गया था. तब खुलकर चीन-समर्थक और भारत-विरोधी यामीन राष्ट्रपति थे. 
 
भारत-विरोध का दौर
 
2013 से लेकर 2018 तक राष्ट्रपति यामीन के दौर में मालदीव में भारत-विरोधी ताकतों ने खुलकर खेला. उसी दौरान मालदीव चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव में वह शामिल हुआ और उसने फ्री-ट्रेड समझौता भी किया. शी चिनफिंग उसी दौरान मालदीव भी आए थे. 
 
यामीन की तरह मुइज़्ज़ु चीन के प्रति प्रेम को खुले रुप से जाहिर करते हैं. पिछले साल चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रतिनिधि के साथ ऑनलाइन मीटिंग में उन्होंने कहा कि अगर पीपीएम सत्ता में वापस आई तो, दोनों देशों के बीच मजबूत रिश्तों का एक और अध्याय लिखा जाएगा.
 
2018 में सोलिह ने यामीन को हराकर उस खेल को रोका. भ्रष्टाचार के आरोपों में यामीन11 साल के कैद की सजा काट रहे हैं. उन्हें निरंकुश नेता भी कहा जाता है. सोलिह ने आरोप लगाया था कि यामीन ने बुनियादी ढाँचे के लिए भारी कर्ज लेकर देश को चीनी कर्जों के दलदल में फँसा दिया. 
 
मतदाता की भूमिका

यह मान लेना भी सही नहीं होगा कि मालदीव का मतदाता इस इलाके की भू-राजनीति में ही दिलचस्पी रखता है. वस्तुतः वह भी अपने जीवन और पारिवारिक सुरक्षा से जुड़े सवालों को लेकर सोचता-विचार करता है. चुनाव के पहले दौर के नतीजों से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. 
 
जनता की दिलचस्पी चुनाव में कम हो रही है. चुनाव के पहले दौर में देश के 79 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया जो मालदीव में 2008 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद सबसे कम है. 2008, 2013 और 2018 के पिछले चुनावों में क्रमश: 86 प्रतिशत, 87 प्रतिशत और 89 प्रतिशत वोट डाले गए थे. 
 
राजनीतिक-मंथन

ज्यादातर दल पुराने दलों के भीतर से निकले हैं. जम्हूरी पार्टी से अलग होकर मालदीव नेशनल पार्टी बनी और एमडीपी से अलग होकर डेमोक्रेट्स का गठन हुआ. डेमोक्रेट्स का गठन पूर्व राष्ट्रपति नशीद की अगुवाई में चुनाव से कुछ ही महीने पहले हुआ था. नशीद का रुझान भारत-समर्थक और चीन विरोधी है. वे देश में बैलेंसिंग फोर्स का काम कर सकते हैं और मुइज़्ज़ू सरकार के चीनी-रुझान को कम करने में सहायक हो सकते हैं.
 
निवृत्तमान गठबंधन के साझेदार-डेमोक्रेट्स, जम्हूरी पार्टी और मालदीव रिफॉर्म मूवमेंट (एमआरएम) अलग हो गए और उन्होंने अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला किया. इन दलों ने प्रोग्रेसिव अलायंस के साथ मिलकर सरकार की राजनीति और साझेदारी की आलोचना की. इन पार्टियों के एकजुट होने से सरकार को नुकसान हुआ. विपक्ष की पार्टियां सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए कई महीनों से एक-दूसरे के साथ सहयोग कर रही थीं. 
 
छोटा देश, बड़ी भूमिका

मालदीव द्वीप समूह का आधिकारिक नाम मालदीव गणराज्य है. यह मिनिकॉय और शागोस द्वीप समूह के बीच लक्षद्वीप सागर में मूँगे के द्वीपों की एक दोहरी श्रृंखला में करीब 90,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है. इसमें 1,192 टापू हैं, जिनमें से 200 पर बस्तियाँ है. यह एशिया का सबसे छोटा देश है, पर इसकी भौगोलिक स्थिति इसे महत्वपूर्ण बनाती है.
 
देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है माले, जिसकी आबादी करीब सवाल लाख है. पूरे देश की उसकी कुल आबादी 5.2 लाख है, जिनमें से 2.8 लाख वोटर हैं. राजा का द्वीप माले था, जहाँ से प्राचीन मालदीव राजकीय राजवंश शासन करते थे. यहाँ उनका महल स्थित था. 
 
इस देश का प्राचीन भारतीय इतिहास से संबंध है. 1153 से 1968 तक स्वतंत्र इस्लामी सल्तनत के रूप में इस पर शासन रहा और 1887 से 25 जुलाई 1965 तक यह देश ब्रिटिश में संरक्षण रहा. देश को पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता देने का समझौता देश के सुल्तान के प्रतिनिधि और ब्रिटिश प्रतिनिधि के बीच हुआ था, जिसका समारोह 26 जुलाई 1965 को कोलंबो में ब्रिटिश उच्चायुक्त के निवास पर हुआ था. 
 
लोकतांत्रिक-विकास

ब्रिटेन से आजादी के बाद, सल्तनत, राजा मुहम्मद फरीद दीदी के अधीन अगले तीन साल तक चलती रही. 11 नवम्बर 1968 को राजशाही समाप्त कर दी गई और इब्राहीम नासिर की राष्ट्रपति पद के रूप में नियुक्ति के साथ इसे गणतंत्र घोषित कर दिया गया. 
 
सत्तर के दशक में, राष्ट्रपति नासिर के गुट और अन्य राजनैतिक समूहों के बीच प्रतिद्वंद्विता 1975 में निर्वाचित प्रधानमंत्री अहमद ज़की की गिरफ्तारी हुई और उन्हें एक द्वीप पर निर्वासित कर दिया गया. 1978 में पूर्व राष्ट्रपति नासिर सिंगापुर भाग गए. 
 
1978 में मालदीव की संसद ने मौमून अब्दुल ग़यूम को राष्ट्रपति के पद पर चुना. वे 30 वर्ष इस पद पर रहे. इस दौरान नसीर समर्थकों और कुछ दूसरे समूहों ने 1980, 1983 और 1988 में उनकी सरकार को गिराने की कोशिश की. सबसे घातक प्रयास 1988 में हुआ. 
 
उथल-पुथल का दौर

उस साल नवंबर में एक स्थानीय कारोबारी ने श्रीलंका के तमिल चरमपंथी समूह के करीब 200-लोगों की मदद से तख़्तापलट की कोशिश की. उन्होंने हवाई अड्डे पर कब्जा कर लिया. उस समय मालदीव सरकार की ओर से मदद की अपील के बाद भारतीय सेना ने हस्तक्षेप किया और व्यवस्था को बनाए रखा. 
 
दिसंबर 2004 में हिंद महासागर की सुनामी से मालदीव में काफी तबाही मची. उसके बाद देश में सरकार के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, जिन्हें देखते हुए राष्ट्रपति ग़यूम ने राजनीतिक दलों को वैध बनाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सुधार लाने के प्रयास शुरू किए. उस समय तक देश में एकदलीय प्रणाली थी. 
 
अंततः बहुदलीय प्रणाली की स्थापना हुई और 9 अक्टूबर 2008 को चुनाव हुए, जिसमें ग़यूम और मुहम्मद नशीद के बीच राष्ट्रपति पद का मुकाबला हुआ. इसमें नशीद की जीत हुई. मुहम्मद नशीद पहले ऐसे राष्ट्रपति बने, जो बहुदलीय लोकतंत्र द्वारा चुने गए थे. 
 
उनके पद ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी माले गए थे. मुहम्मद नशीद के साथ भारत के रिश्ते अच्छे थे, पर 2012 में अचानक देश में भारत-विरोधी प्रवृत्तियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया. 
 
चीन-परस्ती
 
माले के इब्राहिम नासिर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की देखरेख के लिए भारतीय कंपनी जीएमआर को दिया गया 50 करोड़ डॉलर का करार रद्द कर दिया गया. 2013 में अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति बने और हवाई अड्डे का काम चीनी कंपनी को दे दिया गया. 
 
उन्हीं दिनों श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का काम चीन को मिला था. पाकिस्तान ने ग्वादर बंदरगाह का काम सिंगापुर की एक कंपनी से वापस लेकर चीन को दे दिया. चीन के उस आक्रामक रुख को देखते हुए भारत ने भी अपने प्रयास बढ़ाए हैं. 
 
2018 में जब इब्राहीम सोलिह राष्ट्रपति चुनाव जीते, तब उनके शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए. देखना होगा कि मुहम्मद मुइज़्ज़ू के शपथ ग्रहण समारोह में कोई भारतीय राजनेता शामिल होगा या नहीं.  
 
उत्तेजक दुष्प्रचार

इसबार के चुनाव का एक महत्वपूर्ण कारक है उत्तेजक दुष्प्रचार. 2018 में यामीन के सत्ता से बेदखल होने के साथ हाल के वर्षों में दुष्प्रचार की सीमा और इसके इकोसिस्टम में काफी बढ़ोतरी हुई है. प्रोग्रेसिव अलायंस का ‘इंडिया आउट अभियान’ एक उदाहरण है. यह ऐसा रुझान है जो आने वाले वर्षों में मालदीव की राजनीति के भविष्य को तय करता रहेगा. 
 
यह प्रवृत्ति 2008 में मालदीव के लोकतांत्रिक बदलाव के समय से ही मौजूद रही है, ख़ास तौर पर चुनाव के दौरान, लेकिन समय-समय पर यह रुझान आता था और फिर गायब भी हो जाता था. पर पिछले पांच वर्ष संकेत देते हैं कि विदेश नीति का राजनीतिकरण ऐसा रुझान हो गया है जो आगे भी बना रहेगा.
 
‘इंडिया आउट अभियान’ की शुरुआत आधिकारिक तौर पर अक्टूबर 2020 में हुई थी यानी चुनाव के लगभग तीन साल पहले. राजनीतिक-दृष्टि से इस चुनाव के बाद देश में एक और राजनीतिक गतिविधि अगले महीने प्रस्तावित है.
 
नागरिक एक जनमत संग्रह में भाग लेंगे, जिसमें तय होगा कि देश वर्तमान राष्ट्रपति के चुनाव की प्रणाली पर चले या संसदीय प्रणाली को अपनाए. पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद इस माँग का लंबे समय से समर्थन करते आए हैं. इस जनमत संग्रह के परिणाम का भी इंतजार करना चाहिए. 
 
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )