मुस्लिम आउटरीच : कहां तक जाएगा दोस्ती का हाथ

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 17-07-2023
मुस्लिम आउटरीच : कहां तक जाएगा दोस्ती का हाथ
मुस्लिम आउटरीच : कहां तक जाएगा दोस्ती का हाथ

 

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दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में काफी दिनों बाद एक शब्द बहुत तेजी से घूम रहा है- मुस्लिम आउटरीच। यानी मुस्लिम समुदाय की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना. वैसे तो यह शब्द ही अपने आप में बहुत कुछ कहता है. यह हाथ आप उसी की ओर बढ़ाते हैं जिसके साथ आपके रिश्तों में कुछ दूरी बनी हुई है या कम से कम दोस्ती तो नहीं ही है. दोस्ती का हाथ साथ रह रहे या साथ चल रहे लोगों की ओर बढ़ाने की जरूरत नहीं होती.

हालांकि राजनीति में भाषाशास्त्र के ये नियम नहीं देखे जाते. फिर मुस्लिम आउटरीच कोई भारतीय जनता पार्टी का गढ़ा हुआ शब्द नहीं है. इसका इस्तेमाल पहले भी होता रहा है. भारत तो छोड़िये अमेरिका जैसे देशों में भी यह शब्द कुछ साल से सुनाई दे रहा है.
 
कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा समाज का जिक्र किया था. तब यह कहा गया था कि उनकी नजर अब मुसलमानों के वोटों पर है. लेकिन तब किसी ने भी मुस्लिम आउटरीच शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था. तब इसे भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग वाले एजेंडे से जोड़ कर देख गया था.
 
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पिछले दिनों दो ऐसी चीजे हुईं जिनके बाद यह शब्द चलन में आ गया. 11 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल खुसरों फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में गए. वहां उन्होंने जो बाते कहीं वे काफी अहमियत रखती हैं.
 
एक तो उन्होंने इस्लाम के महत्व की बात की. यह भी कहा कि आतंकवाद को धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू धर्म और इस्लाम आध्यात्मिक तौर पर एक दूसरे के काफी नजदीक हैं.
 
इस कार्यक्रम में सउदी अरब के पूर्व न्यायमंत्री मुहम्मद बिन अब्दुलकरीम अल ईसा और भाजपा सांसद हंसराज हंस समेत कईं बड़ी हस्तियां मौजूद थीं. मुस्लिम आउटरीच शब्द दरअसल पहली बार इसके बाद सुनाई दिया.
 
इसके ठीक अगले ही दिन भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा ने सूफी संवाद नाम का एक कार्यक्रम आयोजित किया. यह कार्यक्रम भाजपा के मुख्यालय में हुआ जिसमें 70 प्रतिनिधियों ने भाग लिया. कुछ खबरों में इसे ट्रेनिंग प्रोग्राम भी बताया गया.
 
भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष जमार सिद्दीकी ने बताया कि दिल्ली के बाद ऐसे सूफी संवाद देश भर में आयोजित किए जाएंगे.भाजपा की इस तरह की गतिविधियां नई हैं.हमें पता नहीं है कि इसके पीछे का अल्पकालिक और दीर्घकालिक मकसद क्या है?
 
mulim out reach
 
अगला आम चुनाव अब बहुत दूर नहीं है. इस दौरान राजनीतिक दल जो कुछ भी नया करेंगे उसे चुनाव से जोड़कर देखा ही जाएगा. उसे वोट हासिल करने या विरोधियों के वोट काटने की रणनीति ही माना जाएगा.
 
क्या सचमुच ऐसी कोशिशें किसी पार्टी को वोट दिला पाती हैं ? खासकर उस समय जब उत्तरकाशी के हरोला में जो हुआ उसकी याद अभी ताजा है. समान नागरिक संहिता को लेकर भ्रम की स्थिति है. एक राज्य के मुख्यमंत्री महंगाई के लिए भी एक समुदाय विशेष को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
 
वैसे. एक सोच यह भी है कि ऐसी कोशिशें वोट हासिल करने के लिए उतनी नहीं हैं जितनी कि वे मुस्लिम वोटों को कंसालिडेट होने से रोकने की है.इस सबके बावजूद अगर भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार एक खिड़की को खोल रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन इसके साथ ही काश उन रास्तों को भी बंद किया जाता जिनसे समाज में नफरत फैलती है.
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )