– एमन सकीना
यह केवल एक प्रसिद्ध कहावत नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक मार्गदर्शन है, जो इस्लामी परंपरा में अपनी जड़ें रखता है और आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना सदियों पहले था. इस कथन का मूल एक हदीस में है, जहाँ पैग़ंबर मुहम्मद (स.अ.) ने स्पष्ट रूप से कहा, "तुम्हारी माँ," तीन बार दोहराकर, जब एक व्यक्ति ने पूछा कि उसकी सेवा का सबसे अधिक अधिकारी कौन है.
इसके बाद उन्होंने "तुम्हारे पिता" कहा. यह दोहराव इस बात पर ज़ोर देता है कि माँ का स्थान कितना ऊँचा और पवित्र है.आज की दुनिया में, जहाँ अक्सर भौतिक सुख और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ मानवीय मूल्यों पर हावी हो जाती हैं, वहाँ यह सिद्धांत एक नैतिक और भावनात्मक स्तंभ की तरह खड़ा है.
यह हमें मातृत्व के महत्व, माँ के प्रति कृतज्ञता और सेवा की भावना की याद दिलाता है.
इस्लाम ही नहीं, अन्य धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भी माँ को ईश्वर के रूप में देखा गया है.
हिंदू धर्म में माता को 'दिव्य शक्ति' माना जाता है – दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती जैसी देवियाँ माँ के रूप में पूजनीय हैं.
ईसाई धर्म में वर्जिन मैरी (मरियम) को माँ की महानता का प्रतीक माना गया है.
सभी संस्कृतियों में माँ को निस्वार्थ प्रेम, त्याग और पालन-पोषण की मूर्ति के रूप में चित्रित किया गया है.
मातृत्व की शुरुआत केवल जन्म देने से नहीं होती, बल्कि उससे बहुत पहले – गर्भधारण की पीड़ा, प्रसव की यातना और शिशु के पालन-पोषण की अनगिनत कठिनाइयों से होती है.
वह अपनी नींद, आराम, इच्छाएँ, यहाँ तक कि अपना जीवन भी अपने बच्चों के लिए न्योछावर कर देती है.उसका त्याग केवल शारीरिक नहीं, मानसिक और आत्मिक भी होता है.वह न केवल खाना खिलाती है, बल्कि जीवन का स्वाद भी सिखाती है – प्रेम, धैर्य, आत्मबल और करुणा.
विकासशील समाजों में तो माताएँ कई बार बिना किसी प्रशंसा या धन्यवाद के सालों तक परिवार की सेवा करती हैं. उनके योगदान को न तो पैसों में मापा जा सकता है और न ही किसी पुरस्कार से तौला जा सकता है.
माँ की सेवा केवल उसके लिए चीजें खरीद देना नहीं है.
यह है –
उसकी बातों को ध्यान से सुनना,
उसका आदर करना,
उसे समय देना,
बुढ़ापे में उसका सहारा बनना,
और कभी उसे अपमानित न करना.
क़ुरआन में भी बार-बार यह आदेश दिया गया है कि अल्लाह की इबादत के साथ-साथ माता-पिता, विशेष रूप से माँ, के साथ भलाई करना अनिवार्य है.
तेज़ भागती दुनिया में, कई बार हम अनजाने में अपनी माँ को अकेला छोड़ देते हैं.वृद्धाश्रमों में रह रही बुज़ुर्ग माताएँ, जो कभी अपने बच्चों को गोद में सुलाती थीं, अब किसी फ़ोन कॉल या मुलाक़ात की राह देखती हैं.यह केवल नैतिक चूक नहीं, बल्कि आत्मिक हानि है.
पैग़ंबर मुहम्मद (स.अ.) ने माँ की सेवा को जन्नत का मार्ग बताया.यह एक सुनहरा अवसर है, जो हर किसी को हर समय नहीं मिलता.अगर हम इस अवसर को खो दें, तो शायद जन्नत के दरवाज़े भी बंद हो जाएँ.
जब हम विनम्र होकर माँ की सेवा करते हैं, तो हम केवल उन्हें नहीं, बल्कि खुद को भी ऊँचा उठाते हैं.
माँ के चरणों में झुकना केवल आदर नहीं, आत्म-परिवर्तन है.
यहीं से शुरू होती है आत्मिक संतुलन, शांत जीवन और सच्ची सफलता की यात्रा.
माँ के साथ अच्छा व्यवहार करना न तो केवल धार्मिक आदेश है, न ही कोई बीता हुआ मूल्य –यह एक सार्वभौमिक, कालातीत सत्य है.
अगर आपकी माँ इस दुनिया में हैं –उन्हें गले लगाइए, उनकी सेवा कीजिए, उन्हें समय दीजिए.
अगर वे इस संसार से जा चुकी हैं –उनके लिए दुआ कीजिए, उनके नाम पर दान दीजिए, और ऐसा जीवन जिएँ जिस पर वे गर्व करतीं.
क्योंकि वास्तव में,जन्नत माँ के कदमों के नीचे है.